ऐतिहासिक धरोहर और आस्था का महासंगम है नंदा देवीराजजात यात्रा (Nanda Devi Rajjat Yatra)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालयी महाकुंभ श्री नंदा देवी राजजात की शुरुआत यूं तो नंदाधाम नौटी से मानी गई है, लेकिन सही मायने में यह निर्धारित तिथि से एक दिन पूर्व कांसुवा से शुरू हो चुकी होती है। इस दिन कांसुवा के राजकुंवर राज छंतोली व चौसिंग्या खाडू (मेंढा) लेकर नौटी पहुंचते हैं। नंदाधाम नौटी में भगोती नंदा की विधिवत पूजा-अर्चना के बाद से जात अगले दिन ईड़ाबधानी के लिए प्रस्थान करती है। परंपरा के अनुसार जात को फिर ईड़ाबधानी से नौटी लौटना पड़ता है। तब जाकर नौटी में स्थापित भगोती नंदा के यंत्र की परिक्रमा पूर्ण होती है और जात चल पड़ती है अपने अगले पड़ाव कांसुवा की ओर। नंदा राजजात के 20 पड़ाव हैं, जिनमें वाण तक के 12 पड़ाव आबादी के बीच से गुजरते हैं। इन सभी पड़ावों पर सैकड़ों डोली-छंतोलियों का मिलन मुख्य जात से होता है। मिलन का अंतिम पड़ाव वाण है। इसके बाद जात एकरूप होकर निर्जन पड़ावों से होते हुए होमकुंड पहुंचती है।
भगोती नंदा की मायके से ससुराल विदाई की यह परंपरा अपने आप में अनूठी है। इस अलौकिक दृश्य को अंतर्मन में सहेजकर रखना तो आसान है, लेकिन शब्दों में व्यक्त करना नहीं। प्रो. डीआर पुरोहित के अनुसार उत्तराखंड में नंदा दो अवतारों में वास करती है। यह अवतार हैं लोक देवी व शास्त्रीय देवी के। लोक देवी के रूप में नंदा पहाड़वासियों की धियाण (बहिन-बेटी) है, जबकि शास्त्रीय रूप में महिषमर्दिनी लेकिन, जनमानस ने उसे धियाण के रूप में ही स्नेह मिला। इसी स्नेह की परिणति है 12 साल के अंतराल में होने वाली श्री नंदा देवी राजजात।नन्दा देवी राज जात भारत के उत्तराखंड राज्य में होने वाली एक नन्दा देवी की एक धार्मिक यात्रा है। मां नंदा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ
कुमाऊं के कत्यूरी राजवंश की इष्ट देवी के रूप में पूजी जाती थी। क्योंकि गढ़वाल और कुमाऊं के लोग मां नंदा को अपने इष्ट मानते हैं इसी- लिए नंदा देवी को राजराजेश्वरी कहकर भी संबोधित किया जाता है।
कुछ लोगों का कहना है कि मां नंदा पार्वती की बहन है जबकि वहीं कुछ लोग कहते हैं कि पार्वती ही नंदा देवी है। महानंदा कई नामों से प्रसिद्ध हैं जैसे शिवा, सुनंदा, शुभा नंदा,नंदिनी। मां नंदा के प्रति पूरे उत्तराखंड के लोगों में असीम श्रद्धा है। मां नंदा देवी राजजात यात्रा मां नंदा के मायके से उनको उनके ससुराल तक भेजने की यात्रा है। माना जाता है कि पट्टी चांदपुर और श्री गुरु शीतला मां नंदा का मायके है और बान्धाण क्षेत्र मां नंदा का ससुराल है। मां नंदा को उनकी ससुराल भेजने की यात्रा है राजजात। मां नंदा को भगवान शिव की पत्नी माना जाता है और कैलास (हिमालय) भगवान शिव का निवास।
किवदंती के अनुसार एक बार मां नंदा अपने मायके आई थी जिसके बाद किन्हीं कारणों से माता 12 वर्षों तक अपने ससुराल नहीं जा पाईं। इसलिए जब 12 वर्ष बाद मां नंदा को उनके ससुराल भेजा गया तो मायके वालों ने बड़े हर्षोल्लास के साथ माता को उनके ससुराल भेजा। तब से यह रीत चली आ रही है और हर 12 वर्ष बाद मां नंदा देवी राजजात का आयोजन किया जाता है। गढ़वाल राजा शाली पाल को इस यात्रा को शुरू करने और कनक पाल को इस यात्रा को एक भव्य रूप देने का श्रेय दिया जाता है। मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में भगवान आशुतोष एवं पार्वती कैलाश की ओर जा रहे थे। इसी दौरान मां नंदा को प्यास लगी और वह निकटवर्ती गांव बन्धाणि जा पहुंची। जबकि भगवान शंकर सीधे आगे की ओर निकल गए। बन्धाणि गांव में उस समय के चौकीदार एवं प्रधान जमन सिंह जादोडा ने मां पार्वती को पानी पिलाने के साथ-साथ उनका खूब आदर सत्कार करते हुए दही और भात खिलाया। विदा होते समय जमन सिंह ने मां पार्वती से कहा कि कैलाश जाते समय वे एक बार फिर उनके घर जरूर आएं।
इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए मां श्रीनंदा राजजात में कैलाश विदा होने से पूर्व इडा बंधानी में जादौड़ा वंशज गुसाईं लोगों के घर मां नंदा देवी की डोली रात्रि विश्राम करती है।कुछ लोग मां नंदा को पार्वती का रूप मानते हैं और मां नंदा की कहानी उस समय की बताते हैं जब पार्वती अपने पिता दक्ष के घर बिना बुलाए गई थी। साथ ही कुछ किवदंतियां इस तरह भी प्रचलित है कि एक बार एक लड़की के मायके में किसी धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन किया गया लेकिन मायके पक्ष ने अपनी बेटी को इस अनुष्ठान में नहीं बुलाया। लेकिन वह लड़की अपने ससुराल से लड़ झगड़ कर अपने मायके की ओर अनुष्ठान के लिए चल पड़ी। ससुराल पक्ष ने लड़की को बहुत समझाया कि तुम्हारी मायके वालों ने तुम्हें आमंत्रित नहीं किया है इस तरह जाना ठीक नहीं लेकिन लड़की नहीं मानी।
लड़की ससुराल से अपने मायके की ओर जा रही थी तभी उसके पीछे एक गुस्सैल भैंस पड़ गई। उससे जान बचाते हुए वह लड़की एक केले के पेड़ के पीछे जा छुपी। इतने में वहां एक बकरी आ गई और उसने उन पत्तों को खा लिया जिनके पीछे लड़की छुपी हुई थी गुस्सैल भैंस ने लड़की को देखा और उसे कुछ इस तरीके से मारा कि उसने अपने प्राण त्याग दिए। इसके बाद ससुराल पक्ष को यही लगता रहा कि लड़की अपने मायके में है। और मायके पक्ष को भी इस बात की कोई खबर नहीं थी कि लड़की अनुष्ठान के लिए अपनी ससुराल से निकल पड़ी थी। जब बहुत समय तक दोनों पक्षों ने लड़की की खोज नहीं की तो लड़की के मायके और ससुराल में कुछ अजीबोगरीब घटनाएं होने लगी। गाय के पेट से बकरी जन्म लेने लगी लोगों की सारी फसलें खराब हो गईं या फिर अलग फसल से अलग अनाज उत्पन्न होने लगा। दोनों पक्ष इस बात से परेशान हो गए कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है।तभी एक दिन वह लड़की किसी के सपने में आई और बताया कि मेरे साथ ऐसी ऐसी घटना हुई और तुम लोगों ने मेरी खोज नहीं की इसलिए तुम्हें मेरी याद दिलाने के लिए मैंने ऐसा किया।
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कहा जाता है तब से उस लड़की को मां नंदा के रूप में पूजा जाता है और देवी बनाया जाता है। आज मां नंदा संपूर्ण उत्तराखंड में कई जगह बेटी, बहन और कहीं बहू के रूप में पूजी जाती हैं। 12 साल में आयोजित होने वाली नंदा राजजात में मुख्य रूप से चौशींग्या खाडू (चार सिंह वाला बकरा) मां नंदा का सहायक माना जाता है। कहते हैं यह चार सिंह वाला बकरा हर 12 वर्ष बाद ही जन्म लेता है।उत्तराखंड में मां नंदा को अनेक रूपों में पूजा जाता है। उत्तराखंड में विवाहिता देखी या बहनों को दिशा ध्याणी कहा जाता है। इसलिए इस राजजात में बेटियों को खास महत्व दिया जाता है। दिशा के रूप में पूजने वाले लोग मां नंदा को अन्य धन्य एवं श्रृंगार सामग्री भेंट करते हैं। ससुराल पक्ष से प्राप्त होने वाली सामग्री को लोक देवी प्रसाद के रूप में आपस में बांटते हैं। घाट ब्लॉक के कुरूड , नॉटी से लेकर नारायणबगड के भगौती गांव तक को मां नंदा का मायका माना जाता है। यहां मां नंदा को बेटी या बहन के रूप में पूजा जाता है। भगौती के बाद मां नंदा का ससुराल शुरू हो जाता है।चमोली की नॉटी से शुरू होकर कुरूड के मंदिर से दसौली और बंधाण की डोलिया राजजात का आगाज करती है।
इस यात्रा में लगभग 240 किलोमीटर की दूरी नॉटी से हेमकुंड तक पैदल यात्रा करनी पड़ती है। इस बीच उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों से अनेक छतौलिया इस यात्रा में शामिल होते हैं। नौटियाल और कुंवर लोग चौसिंग्या खाडू और रिगाल की छतौलिया लेकर आते हैं। नौटियाल और कुंवर लोग मां नंदा के उपहार को इस बकरे की पीठ पर हेमकुंड तक ले जाते हैं। वहां से यह बकरा अकेला ही आगे बढ़ जाता है और कहते हैं यह ठीक कैलाश पर्वत तक जाता है। इस खाडू के जन्म के साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनाएं होने शुरू हो जाती है जिस भी जगह पर या जन्म लेता है उसी दिन से वहां शेर आना शुरू कर देता है जब तक इस खाडू का मालिक राजा को अर्पित करने की मनौती नहीं रखता तब तक वहां शेर लगातार आता ही रहता है। चौसिंगा खाडू (काले रंग का भेड़) श्रीनंदा राजजात की अगुवाई करता है। मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाडू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है।
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राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाडू के पीठ पर फंची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है। खाडू पूरी यात्रा की अगुवाई करता है। होमकुंड में इस खाडू को पोटली के साथ हिमालय के लिए विदा किया जाता है। यात्रा का शुभारंभ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छंतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाडू) की विशेष पूजा की जाती है। कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं। मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं। राजजात समिति के अभिलेखों के अनुसार हिमालयी महाकुंभ श्रीनंदा देवी राजजात वर्ष 1843,1863, 1886, 1905, 1925, 1941, 1968, 1987 तथा 2000 में आयोजित हो चुकी है।
वर्ष 1951 में मौसम खराब होने के कारण राजजात पूरी नहीं हो पाई थी। जबकि वर्ष 1962 में मनौती के छह वर्ष बाद वर्ष 1968 में राजजात हुई। भारत देश में कई सारी धार्मिक यात्राएं निकाली जाती हैं। इन्हीं में से एक है नंदा देवी राजजात यात्रा उत्तराखंड की ऐसी ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है, जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक महक को पूरे भारत में बिखेरे हुए है। ये यात्रा जनमानस को एक सूत्र में बांधने का काम करती है। ये लेखक के अपने विचार हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )