पहाड़ का सब्र चुनौतियां बरकरार, सामूहिक सहभागिता की है दरकार
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देश को पानी हवा व मिट्टी की आपूर्ति करने में हिमालय की महत्वपूर्ण भूमिका है तो जैव विविधता का भी यह अमूल्य भंडार है। जोशी के अनुसार, हिमालय केवल बर्फ के पहाड़ की शृंखलाभर नहीं, बल्कि यह स्वयं में एक सभ्यता को समेटे हुए है। ऐसी एक नहीं,अनेक विशिष्टताओं के बावजूद हिमालय और यहां के निवासियों को वह अहमियत अभी तक नहीं मिल पाई, जिसकी अपेक्षा की जाती है।हिमालय केवल बर्फ के पहाड़ की श्रृंखलाभर नहीं, बल्कि यह स्वयं में एक सभ्यता को समेटे हुए है। देश को पानी, हवा व मिट्टी की आपूर्ति करने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है तो जैव विविधता का भी यह अमूल्य भंडार है। ऐसी एक नहीं, अनेक विशिष्टताओं के बावजूद हिमालय और वहां के निवासियों को वह अहमियत अभी तक नहीं मिल पाई, जिसकी अपेक्षा की जाती है।
उत्तराखंड समेत हिमालयी राज्यों की यही प्रमुख चिंता है। इसलिए वे विषम परिस्थितियों वाले हिमालयी क्षेत्र को अलग दृष्टिकोण से देखने की पैरवी करते आ रहे हैं। यानी, यहां के विकास का माडल देश के अन्य क्षेत्रों से अलग होना चाहिए। यह तभी संभव है, जब हिमालय के लिए पृथक से व्यापक नीति बने।हिमालयी क्षेत्र देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत क्षेत्र में विस्तार लिए हुए है।इसके अंतर्गत सिक्किम, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा व मिजोरम और केंद्र शासित राज्य लद्दाख व जम्मू-कश्मीर हैं। यह हिमालयी क्षेत्र पारिस्थितिकी व पर्यावरण के साथ ही सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बदली परिस्थितियों में हिमालयी क्षेत्र और यहां के निवासी तमाम समस्याओं से जूझते आ रहे हैं। प्रत्येक हिमालयी राज्य की अलग-अलग कठिनाइयां हैं, जो अभी तक हल नहीं हो पाई हैं। इसके पीछे कुछ सरकारी उपेक्षा जिम्मेदार है तो कुछ विकास का पैमाना अलग होना इसका कारण माना जा सकता है।हिमालय सबकी आवश्यकता है। यह ठीक रहेगा तो सभी के हित सुरक्षित रहेंगे।
इसी दृष्टिकोण के आधार पर हिमालय क्षेत्रों के लिए व्यापक नीति बनाने पर जोर दिया जा रहा है।वर्ष 2019 में हिमालयी राज्य उत्तराखंड की पहल पर हुए मसूरी में हुए हिमालयी राज्यों के कान्क्लेव में इस बात की आवश्यकता बताई गई थी कि देश के लिए नीतियां बनाते समय हिमालय की परिस्थितियों को अलग से ध्यान में रखा जाए। सभी हिमालयी राज्य समय-समय पर यह विषय केंद्र के समक्ष रखते आए हैं। ऐसे में अब सभी की नजरें केंद्र सरकार पर टिकी हैं कि वह हिमालयी राज्यों के लिए क्या कदम उठाती है। हिमालयी राज्य उत्तराखंड भी अनेक चुनौतियों से दो-चार हो रहा है। इस कड़ी में वहजलशक्ति, आपदा प्रबंधन, पर्यावरणीय सेवाएं, विकास कार्यों की अधिक लागत, आजीविका व
रोजगार के विषयों को निरंतर उठाता आ रहा है। असल में यह चुनौतियां ऐसी हैं, जिनसे पार पाने को उसे केंद्र की मदद की आवश्यकता है।
हिमालय को सभी वर्गों के सहयोग की आवश्यकता है। हिमालयी राज्यों के सामने भी एक बड़ी चुनौती है कि वे किस तरह वैश्विक पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करें। कारण ये कि उनके बिना, हवा, मिट्टी, जंगल, पानी के प्रश्न अधूरे रह जाएंगे। लेखक मानना है कि विकास का आदर्श ढांचा पारिस्थितिकी, हिमालय की संवेदनशीलता के दृष्टिगत सुदृढ़ विकास की नीतियोंं पर केंद्रित होना चाहिए। हिमालय के हालात बेहतर नहीं कहे जा सकते। पिछले कुछ दशक से कई तरह की आपदाओं ने हिमालय को घेरा है। इसके वैश्विक कारण तो हैं ही, स्थानीय स्तर पर भी हमने हिमालय को समझने की चूक की है। हमने उन्हीं नीतियों पर दमखम रखा, जो मैदानी क्षेत्रों के अनुकूल थीं। हमने हिमालय की संवेदनशीलता को दरकिनार कर दिया। राज्यों में हिमालय को बांटने के बाद भी हिमालय के लिए हम बेहतर नीति नहीं ला पाए। उद्देश्य यही था कि हिमालय की गंभीर समस्याओं पर समाज को साथ लेकर यहां के ज्वलंत मुद्दों की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित करेंगे।
इससे पहले वर्ष 2009 में हिमालय नीति संवाद का आयोजन भी देहरादून में किया गया था। जिसमें सुझाव के रूप में हिमालय लोक नीति का एक दस्तावेज तैयार किया गया। इसको वर्ष 2014-15 में आयोजित गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा के दौरान आमजन के बीच साझा किया गया। इस पर लगभग 50 हजार लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। इसको प्रधानमंत्री को भी भेजा गया था, लेकिन इस पर बात आगे नहीं बढ़ पाई। दुनिया का कोई कोना ऐसा नहीं है, जहां आपदाओं ने पैर नहीं पसारे हों। इसी का एक नमूना इस साल हिमाचल प्रदेश में देखने को मिला। हिमाचल की तबाही एक बड़ा सबक है। हमें हिमालय के अनुरूप विकास की योजनाएं बनानी होंगी। खासतौर से ढांचागत विकास, क्योंकि यह सेक्टर इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। इस पर लगातार बात होनी चाहिए कि, विकास की योजना को बनाते हुए कैसे प्रकृति का ध्यान रखा जाए। कैसे संभावित आपदाओं से बचा जाए।
मानव सभ्यता को पूर्वजों से सीख लेते हुए प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर आगे बढ़ना होगा। उत्तराखंड ने हिमालय लोक नीति का दस्तावेज तैयार किया था। केंद्र सरकार ने जिसकी अनदेखी कर दी। उत्तराखंड में बारिश पहाड़ के लिए खुशियों के बजाय साल दर साल दर्द देकर जा रही है। साल 2013 में केदारनाथ में आई त्रासदी के बाद भी पहाड़ में अनियंत्रित तरीके से विकास थम नहीं रहा है, जिसके चलते प्रदेश में प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला जारी है। इस साल भी 90 से अधिक लोगों की आपदा के चलते मौत हो गई, जबकि पिछले एक दशक में 5,300 से अधिक लोग असमय काल के गाल में समा चुके हैं। क्या आने वाले समय में हम प्राकृतिक आपदा और विकास के बीच कोई संतुलन बना पाएंगे या हिमालय के सब्र का बांध टूट जाएगा उत्तराखंड में बारिश पहाड़ के लिए खुशियों के बजाय साल दर साल दर्द देकर जा रही है।
एनआरएससी की भूस्खलन पर आधारित मानचित्र रिपोर्ट में उत्तराखंड के सभी 13 जिलों में पहाड़ टूटने का खतरा बताया गया था। इसमें रुद्रप्रयाग जिले को देश में भूस्खलन से सबसे अधिक खतरा बताया गया। भूस्खलन से जोखिम के मामले में देश के 10 सबसे अधिक संवेदन शील जिलों में टिहरी दूसरे स्थान पर है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड का 72 प्रतिशत यानी 39 हजार वर्ग किमी क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित है। उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग ने वर्ल्ड बैंक की मदद से भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र का अध्ययन किया है।
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव ने बताया कि इस सर्वे में पांच नदियों की घाटियों पर रिस्क असेसमेंट किया गया था, जिसकी रिपोर्ट से पता चलता है कि उत्तराखंड में बढ़ते लैंडस्लाइड जोन किसी बड़े खतरे से कम नहीं हैं। इसके पीछे पहाड़ों पर असंतुलित विकास कार्य भी हैं, जिसमें जल विद्युत परियोजनाएं और सड़कें शामिल हैं। गढ़वाल में उत्तरकाशी जिले के हाईवे पर लैंडस्लाइड जोन तैयार हो चुके हैं, टिहरी जिले के अंतर्गत चार धाम मार्ग क्षेत्र पर भी बड़े लैंडस्लाइड जोन हैं। कुमाऊं में भी चंपावत और अल्मोड़ा में खतरनाक लैंडस्लाइड जोन सक्रिय हैं।
अब जरूरत है, रिपोर्ट के आधार पर कार्ययोजना तैयार करने की, ताकि लैंडस्लाइड जोन से खतरे को कम किया जा सके और इसके ट्रीटमेंट के जरिए प्रदेश के लिए विकल्प भी तलाशे जा सकें। इसके लिए सरकार को नियम बनाकर उसका क्रियान्वयन भी सुनिश्चित कराना चाहिए। साथ ही पर्वतीय जिलों में सड़कों के निर्माण की शैली भी बदलने जरूरत है। यहां भारी मशीनों से बनने वाली सड़क के बजाय नई तकनीकी पर विचार करना चाहिए जिससे पहाड़ कटान के दौरान हिमालय के भीतर होने वाली हलचल को कुछ हद तक रोका जा सके। ठेकेदारी प्रथा की वजह से ही पहाड़ों का सीना बेतरतीब तरीके से छलनी किया जा रहा है। इसे बंद करना चाहिए। ऊर्जा के लिए बड़े बांधों के बजाय छोटे बांध बनाने चािहए और प्रदेश सरकार इनका ग्रिड बना सकती है। पर्वतीय जिलों में वहां की भार क्षमता का आकलन करने के बाद ही इमारतें बननी चाहिए। हिमालय दिवस पर साल-दर-साल लिए गए संकल्प आज भी अधूरे हैं।
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विशेषज्ञों की मानें तो जब तक हिमालय के प्रति सामूहिक सहभागिता सामने नहीं आएगी, तब तक इन संकल्पों को पूरा नहीं किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों से उत्पन्न आपदाएं एक वैश्विक चिंता के रूप में उभरी हैं, जो जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रही हैं। इस बार हिमालय दिवस “हिमालय और आपदा” थीम पर मनाया जा रहा है। आपदाओं में दो महत्वपूर्ण हिस्से हैं, जिसमें से एक हिस्सा स्थानीय है, जिसके लिए हम विकास की योजनाओं को दोषी ठहरा सकते हैं। दूसरा हिस्सा धरती पर बढ़ते तापमान का है, जिसका सीधा असर हिमालय के जलवायु परिवर्तन पर पड़ता है। इस बार हिमाचल में आई आपदा और इससे पहले उत्तराखंड में आई आपदाएं इस ओर इशारा करती हैं कि बदलती जलवायु ने हिमालय के तामक्रम में बड़ी चोट की है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )