आजादी के आंदोलनों का प्रमुख केंद्र हुआ करते थे गांधी आश्रम (Gandhi Ashram)
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहन दास करमचंद गांधी है। उनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गांधी व माता का नाम पुतलीबाई था। महात्मा गांधी का विवाह मात्र तेरह वर्ष की आयु में ही कस्तूरबा के साथ हो गया था। उनके चार बेटे हरीलाल, मनीलाल, रामदास व देवदास थे। मई 1893 मे वह वकील के तौर पर काम करने दक्षिण अफ्रीका गये। वंहा उन्होंने नस्लीय भेदभाव का पहली बार अनुभव किया।जब उन्हे टिकट होने के बाद भी ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर धकेल दिया गया क्योंकि यह केवल गोरे लोगों के लिए आरक्षित था। किसी भी भारतीय व अश्वेत का प्रथम श्रेणी मे यात्रा करना प्रतिबंधित था। इस घटना ने गांधी पर बहुत गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने नस्लीय भेदभाव के विरूध संघर्ष करने की ठान ली। उन्होंने देखा कि भारतीयों के साथ यहां अफ्रीका में इस तरह की घटनाएं आम हैं।
22 मई 1894 को गांधी ने नाटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए कठिन परिश्रम किया। बहुत ही कम समय में गांधी जी अफ्रीका में भारतीय समुदाय के नेता बन गये।यूं तो आजादी की लड़ाई के दौरान सत्याग्रह के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चरण पूरे देश में जगह-जगह पड़े थे, लेकिन इनमें से कुछ जगह हमेशा के लिए खास बनकर रह गई। ऐसी ही एक जगह गुजरात के साबरमती आश्रम से सैकड़ों मील दूर उत्तराखंड के कौसानी शहर में भी मौजूद है, जो ‘बापू’ का दूसरा घर कही जाती थी। एक ऐसी जगह, जहां पूरी दुनिया को शांति का उपदेश देने वाले महात्मा गांधी को खुद ऐसी आत्मिक शांति का अहसास हुआ था कि उन्होंने महज 14 दिन में अनासक्ति योग जैसी किताब लिख डाली थी। गांधी कौसानी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसे भारत का स्विटजरलैंड नाम दे
दिया।
बागेश्वर जिले में मौजूद कौसानी में वैसे तो पर्यटक विश्व प्रसिद्ध स्नो व्यू देखने आते हैं, लेकिन यहीं पर अनासक्ति आश्रम में प्रवेश करने मात्र से उन्हों आज भी राष्ट्रपिता की मौजूदगी का अहसास हो जाता है। नैनीताल-बागेश्वर मार्ग पर मौजूद कौसानी में महात्मा गांधी के चरण पहली बार 1929 में तब पड़े थे, जब वे अपने खराब स्वास्थ्य के कारण उत्तराखंड (तब नॉर्दर्न प्रॉविंस का हिस्सा) की वादियों में स्वच्छ जलवायु की खोज में पहुंचे थे। यहां मशहूर स्नो व्यू पॉइंट पर बने डाक बंगले में महात्मा गांधी का प्रवास महज 2 दिन का था, लेकिन पहली ही सुबह सबकुछ बदल गया। योग करने के लिए डाक बंगले से बाहर आए बापू को शांतिपूर्ण माहौल में सुदूर सामने सजी नंदा देवी समेत 7 बर्फीली चोटियों पर पड़ती सूरज की किरणों ने मंत्रमुग्ध कर दिया।
हिंदुस्तान की आजादी को लेकर अंदर से बेचैन बापू को कौसानी में आकर आत्मिक शांति मिली और उनका उस अनासक्ति योग से मिलन करा दिया, जो आगे आखिरी सांस तक उनकी दिनचर्या का हिस्सा रहा। यहां 14 दिन के प्रवास के दौरान बापू ने भगवद् गीता के श्लोकों का हिंदी अनुवाद कर एक किताब भी लिख दी, जिसे नाम दिया गया अनासक्ति योग। इसके बाद जब भी बापू को आत्मिक शांति की तलाश हुई तो उनके कदम खुद ब खुद कौसानी की तरफ बढ़ चले और वे कई बार इस शहर में आकर डाक बंगले में रहे। इस कारण ही वे इसे अपना दूसरा घर भी कहते थे। बापू के स्वाधीनता आंदोलन को असली धार डांडी के नमक सत्याग्रह आंदोलन से मिली थी, जहां उन्होंने अंग्रेजों का कानून तोड़कर नमक बनाया था।
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क्या आप जानते हैं कि डांडी आंदोलन की प्रेरणा बापू को कौसानी में रहते हुए ही मिली थी। दरअसल कुमाऊं में अंग्रेजों ने कुली बेगार प्रथा लागू की हुई थी, जिसके चलते यहां की जनता से जबरन सामान की ढुलाई कराई जाती थी और उन्हें बदले में कुछ नहीं मिलता था। इसके खिलाफ बद्रीदत्त पांडे, लाला चिरंजीलाल और पंडित हरगोविंद पंत की अगुआई में 14 जनवरी,1921 को सरयू बगड़ के उत्तरायणी पर्व के मेले में आंदोलन शुरू हुआ करीब 40 हजार लोगों की भीड़ ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह किया और कुली बेगार प्रथा के लिए गांवों में बने रजिस्टर फाड़कर सारा रिकॉर्ड सरयू में बहा दिया। इस आंदोलन के चलते अंग्रेज सरकार को सदन में सदन में विधेयक लाकर यह प्रथा खत्म करनी पड़ी। इस सत्याग्रह के बारे में सुन चुके गांधी जी ने कौसानी प्रवास के दौरान विस्तार से यहां के लोगों से मिलकर इस अवज्ञा आंदोलन की पूरी जानकारी ली। इस दौरान उन्होंने चनौंदा में गांधी आश्रम भी स्थापित किया।
उन्होंने यंग इंडिया अखबार में इस आंदोलन के बारे में लिखा, यह संपूर्ण प्रभाव वाली रक्तहीन क्रांति थी। इस दौरान उन्होंने कुमाऊं में कुल 22 दिन का प्रवास किया था, जिसमें 26 जगह भाषण देकर लोगों को स्वतंत्रता के लिए खड़ा होने को प्रेरित किया था। बाद में उन्होंने कुली बेगार आंदोलन से प्रेरित होकर खुद भी अंग्रेजों के बनाए गलत कानूनों को तोड़कर उनका विरोध करने का निर्णय लिया, जिसकी शुरुआत डांडी आंदोलन में नमक कानून से की गई। कौसानी में बापू की यादों को संजोने के लिए यहां के डाक बंगले को अनासक्ति आश्रम में बदल दिया गया। यह काम साल 1966 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री ने किया। उन्होंने यह डाक बंगला उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि को सौंप दिया, जो आज भी इसकी देखरेख करती है।
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उत्तर प्रदेश गांधी स्मारक निधि की तरफ से कौसानी में अनासक्ति आश्रम की देखरेख से जुड़े सदानंद के मुताबिक, यहां बापू के बचपन से लेकर आखिरी पल तक की यादों को तस्वीरों में सं आश्रम के अंदर प्रार्थनास्थल भी बना हुआ है, जहां सुबह-शाम ‘रघुपति राघव राजा राम’ की धुनों पर गांधीवादी जुटते हैं और राष्ट्रपिता को याद करते हैं। यहां महात्मा गांधी पर रिसर्च के लिए पूरी दुनिया से लोग आते हैं, जिनके ठहरने के लिए आश्रम में ही व्यवस्था की गई है। आश्रम परिसर में एक छोटे से पत्थर पर यहां के बारे में जानकारी दी गई है। पहले एक बोर्ड पर बापू के परदादा से लेकर पोतों तक पूरे परिवार की जानकारी भी मौजूद थी, लेकिन अब उसे हटा दिया गया है।बापू की पद यात्राओं की झलकदिखाती उनकी विशाल मूर्ति के पास उनके तीन बंदरों की भी मूर्तियां लगी हुई हैं। जोया गया है इसके अलावा यहां उनके जीवन से जुड़ी चीजें और किताबें आदि भी संरक्षित हैं। गांधी आश्रम का कामकाज इन दिनों मुश्किल दौर से गुजर रहा है।
एक तरफ सरकार से तीन साल से सब्सिडी नहीं मिली है वहीं कच्चे माल की कमी से यहां के उत्पादों की डिमांड भी काफी कम हो गई है। स्थिति यह है कि कोरोना काल से अब तक करीब 800 कातिन व बुनकर काम छोड़ चुके हैं। वहीं बीते एक साल में चरखे वापस करने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। नैनीताल और ऊधमसिंह नगर क्षेत्र में गांधी आश्रम के दो क्षेत्रीय कार्यालय है। इनके अंतर्गत 27 आश्रम (दुकानें) आती हैं। दोनों क्षेत्रों में कोरोना से पहले तक करीब 1400 कातिन-बुनकर काम करते थे। लेकिन काम नहीं मिलने से पिछले तीन साल में करीब 800 कातिन-बुनकर काम छोड़ चुके हैं। हाल ही में 12 बुनकरों ने अपने चरखे भी हल्द्वानी क्षेत्रीय कार्यालय में वापस कर दिए हैं। इस कारण खादी वस्त्रों का उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। खादी वस्त्रों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार 15 प्रतिशत और राज्य सरकार 10 प्रतिशत सब्सिडी देती है।
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राज्य सरकार से पिछले तीन साल से सब्सिडी के करीब 1.20 करोड़ रुपये नहीं मिले हैं। इस वजह से कच्चा माल मंगाने के साथ उत्पाद तैयार करने में दिक्कत हो रही है। ऐसे में कातिन-बुनकरों को काम नहीं मिल पा रहा है। गांधी आश्रम पिछले कुछ साल से लगातार घाटे में चल रहे हैं। इस कारण कई कातिन-बुनकरों ने काम छोड़ दिया है। पहले बुनकर धागा बनाकर लाते हैं और इसके बदले उन्हें 150 रुपये के हिसाब से मजदूरी दी जाती है। इतने पैसों में परिवार चलाना भी मुश्किल हो रहा है। इस वजह से भी बुनकर लगातार काम छोड़ रहे हैं। कुमाऊं में आजादी के जितने भी केंद्र थे उन सब की धुरी था हल्द्वानी का स्वराज आश्रम। हल्द्वानी में कांग्रेस की स्थापना इसी स्वराज आश्रम में हुई थी। गोविंद बल्लभ पंत, बाबूराम कप्तान और रामशरण सारस्वत ने यहां कांग्रेस की अलख जगाई। कभी स्वराजराज आश्रम में रामचंद्र पहलवान का अखाड़ा भी हुआ करता था।
स्वराज आश्रम में गांधी जयंती पर चरखा दंगल का आयोजन भी हुआ करता था कुमाऊं में ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों के खिलाफ आंदोलन 1915 के बाद से शुरू हो गए थे। लेकिन आजादी के लिए राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना का प्रसार महात्मा गांधी के कुमाऊं प्रवास के बाद हुआ। उनकी यात्रा के बाद कुमाऊं में 26 से अधिक अलग-अलग जगहों पर गांधी आश्रम, कुटीर बनाए गए। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गांधी आश्रम आंदोलन का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। खुद अंग्रेज अधिकारियों ने माना कि जब तक यह गांधी आश्रम चल रहे हैं, उनका हुकूमत करना मुश्किल है। गोरों ने जुर्माना लगाया, प्रतिबंध किया लेकिन फिर भी गांधी आश्रम चलते रहे। आजादी के बाद भी महात्मा गांधी की स्मृति में बने आश्रम राष्ट्र प्रेम, देश की एकता, अखंडता की प्रेरणा दे रहे हैं। रक्तहीन क्रांति कुली बेगार आंदोलन से महात्मा गांधी काफी प्रभावित हुए थे। यही कारण था कि सन् 1929 में कुमाऊं दौरा किया।
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कुमाऊं में महात्मा गांधी का प्रवास 14 जून 1929 से चार जुलाई 1929 तक रहा।22 दिनों के प्रवास के दौरान उन्होंने 26 स्थानों पर जनसभाओं को संबोधित किया। जिन जगहों पर उन्होंने रात्रि विश्राम किया और जनसभाएं की, उनके जाने के बाद वह जगह गांधी आश्रम, कुटीर, गांधी स्मृति स्थल, गांधी चबूतरा, गांधी मार्ग के रूप में प्रसिद्ध हो गए। अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल, हल्द्वानी सभी जगहों पर यह आज भी बने हुए हैं। राष्ट्रीय चेतना ऐसी की आश्रम बनाने के लिए लोगों ने अपनी जमीनें तक दान में दे दी। दूसरा कुमाऊं प्रवास मई 1931 में हुआ। लेकिन वह नैनीताल तक ही आए। महात्मा गांधी ने अपने प्रवास के दौरान स्वतंत्रता आंदोलन की जो अलख जगाई, जो बाद में वह ज्वालामुखी बनकर फूटने लगी। यही गांधी स्मारक आंदोलन के प्रमुख केंद्र हुआ करते थे।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इन्हीं स्थानों पर जनसभाएं व आंदोलन की रणनीति बनती थी। लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एकजुट होने का आह्वान किया जाता था। गोरे सैनिकों की नजर भी इन्हीं जगहों पर अधिक रहती थी। यहां पर कोई भी सभा आदि करता तो उसे तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाता था। बोरारौ घाटी में गांधी आश्रम चनौदा में आंदोलनकारियों की सबसे अधिक सक्रियता थी। इसकी स्थापना 1937 में शांति लाल त्रिवेदी ने की। एक बार तो अल्मोड़ा के डिप्टी कमिश्नर ने कुमाऊं कमिश्नर को पत्र लिखा था कि जब तक यह आश्रम चालू है, इस क्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत चलना मुश्किल है। आज भी महात्मा गांधी की स्मृति में बनी यह धरोहर हमें प्रेरित करती है। जो भी इन जगहों पर जाता है वह राष्ट्रीय चेतना लेकर लौटता है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )