भारत को वनों के संरक्षण (conserve forests) के लिए इसकी फिर से जरूरत है?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आज भी जंगलों का दोहन किसी न किसी रूप में जारी है। जहाँ चिपको आंदोलन ने जंगलों पर स्थानीय लोगों के हक़ को लेकर बहस छेड़ी तो वहीं सरकार की नीतियों व जंगलों के दोहन के खिलाफ भी संघर्ष किया। इसके परिणाम स्वरूप सरकार 1981 में एक कानून लाती है “जिसमें 36 वस्तुओं को वन की उपज” बताया गया था और वन की उपज को “बिना अधिकार” कोई भी नहीं ले सकता था। चिपको आंदोलन एक पर्यावरण-रक्षा का आंदोलन था। किसानों ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए इसे शुरू किया था। इस आंदोलन की सबसे बड़ी बात यह थी कि उस समय पुरुषों के मुकाबले इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में प्रारंभ हुआ। एक दशक के अंदर यह पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में फैल गया। उत्तराखंड पहले यूपी का ही हिस्सा था।
चिपको आंदोलन के नाम से ही स्पष्ट है कि तब जब भी कोई पेड़ों को काटने आता था तो आंदोलनकारी पेड़ों से चिपक जाते थे। इस आंदोलन की मुख्य उपलब्धि ये रही कि इसने केंद्रीय राजनीति के एजेंडे में पर्यावरण को एक सघन मुद्दा बना दिया था। उत्तर प्रदेश (वर्तमान उत्तराखण्ड) में इस आंदोलन ने 1980 में तब एक बड़ी जीत हासिल की, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रदेश के हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी। बाद के वर्षों में यह आंदोलन पूर्व में बिहार, पश्चिम में राजस्थान, उत्तर में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में कर्नाटक और मध्य भारत में विंध्य तक फैला गया था। उत्तर प्रदेश में प्रतिबंध के अलावा यह आंदोलन पश्चिमी घाट और विंध्य पर्वतमाला में वृक्षों की कटाई को रोकने में सफल रहा। साथ ही यह लोगों की आवश्यकताओं और पर्यावरण के प्रति अधिक सचेत प्राकृतिक संसाधन नीति के लिए दबाब बनाने में भी सफल रहा। चिपको आंदोलन के बारे में आपने सुना ही होगा।
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चिपको आंदोलन उत्तराखंड के चमोली जिले में साल 1973 में जंगलों को बचाने के लिए किया गया था। इस आंदोलन में अपने जंगलों को कटने से बचाने के लिए गांव के लोग पेड़ों से चिपक गए थे। इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था। इस आंदोलन में महिलाओं का भी खासा योगदान रहा। लेकिन क्या आप चिपको आंदोलन की सफलता के पीछे उस महिला को जानते हैं जिसकी वजह से यह आंदोलन संभव हो पाया था। वह महिला थीं गौरा देवी। गौरा देवी को “चिपको आंदोलन की जननी” और “चिपको वुमन” भी कहा जाता है। उत्तराखंड में इनके नाम पर च्गौरा देवी कन्या धन योजना” नामक योजना चलाई जाती है। गौरा देवी का जन्म साल 1925 में उत्तराखंड के
लाता गांव में हुआ था। मात्र 12 साल की उम्र में उनकी शादी रैंणी गांव के मेहरबान सिंह के साथ कर दी गई थी। जब गौरा देवी मात्र 22 साल की थीं जब उनके पति का निधन हो गया जिसके बाद गौरा देवी पर उनके ढाई साल के बेटे और बूढ़े सास-ससुर की ज़िम्मेदारी आ गई।
गौरा देवी ने अपने दम पर अपने बेटे चन्द्र सिंह गौरा का पालन-पोषण किया। इसी के साथ-साथ वह गांव के कामों में अपना सहयोग देती रहीं। गौरा देवी अपने गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष भी थींं। तब गौरा देवी इस आंदोलन का नेतृत्व करते हुए 27 महिलाओं को अपने साथ लेकर जंगल की ओर चल पड़ी। गौरा सहित अन्य 27 महिलाएं भी जंगलों की कटाई को रोकने के लिए पेड़ों से चिपक गई। उन्होंने सरकारी
कर्मचारियों से पेड़ों को काटने से पहले आरी खुद के शरीर पर चलाने को कहा। गौरा देवी और महिलाओं के इस हिम्मती साहस के आगे सरकार को झुकना ही पड़ा और इस प्रकार यह आंदोलन 2400 पेड़ों की कटाई को रोकने में कामयाब हो गया। भले आज गौरा देवी हमारे बीच ना हो लेकिन पर्यावरण को बचाने में उनका योगदान अतुल्य है।
इंडियाटाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक एक इंटरव्यू में गौरा देवी ने जंगल के प्रति अपने लगाव को दर्शाते हुए कहा था कि यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल और लकड़ी मिलती हैं। अगर जंगल कटोगे तो बाढ़ आएगी, हमारे घर बह जाएंगे। इतिहास के पन्नों ने कई महिला क्रांतिकारियों को वह जगह नहीं दी है, जिसकी वह हकदार है। ठीक उसी प्रकार गौरा देवी को भी वह स्थान नहीं मिला है, जो उन्हें मिलना चाहिए। चिपको आंदोलन के अथक प्रयास और पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ियों को प्रेरित करती रहती है। शांतिपूर्ण विरोध और सामुदायिक सशक्तिकरण की इसकी विरासत ने इसे भारत के पर्यावरण संरक्षण प्रयासों में एक ऐतिहासिक घटना बना दिया है।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)