गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र की एक प्रसिद्ध स्वीट डिश अरसा (Arsa)
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड की संस्कृति एवं परंपराओं ही नहीं, यहां के खान-पान में भी विविधता का समावेश हैउत्तराखंड का गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र सुंदर वादियों के साथ अपने प आदतों में भी देखने को मिल जाती है अरसा… यह नाम सुनकर आप भ्रमित न हों। हम किसी समय की बात नहीं कर रहे हैं, यह तो उत्तराखंड कवानों के लिए भी जाना जाता है। यहां पर इंडो – आर्यन और इंडो –ईरानी सभ्यता का मेल देखने को मिलता है, जो यहां के संस्कृति और खानपान कीकी बेहद खास मिठाई है। स्वाद ऐसा कि एक बार खा लें तो इसकी मिठास भूल नहीं पाएंगे। स्वाद और सेहत से भरपूर इस पकवान की खासियत यह है कि इसे गरमा गरम खाएं या एक महीने बाद, स्वाद में कोई फर्क नहीं मिलेगा। अरसा आपके मुंह में कुछ ऐसी मिठास घोल देगा।
अस्सालु बन गया अस्सा,अरसा को पहले अरसालु कहते थे, वो कैसे दरअसल इसके पीछे भी दिलचस्प कहानी है।जगदगुरु शंकराचार्य ने बद्रीनाथ और केदारनाथ मंदिरों का निर्माण करवाया था। इसके अलावा गढ़वाल में कई ऐसे मंदिर हैं, जिनका निर्माण शंकराचार्य ने ही करवाया था। इन मंदिरों में पूजा करने के लिए दक्षिण भारत के ब्राह्मणों को रखा जाता है। कुछ जानकार कहते हैं कि नौवीं सदी में दक्षिण भारत से ये ब्राह्मण जब गढ़वाल आएं तो अपने साथ एक मिठाई अरसालु लेकर आए थे। क्योंकि लंबे समय तक रखने के बाद भी खराब नहीं होती थी, इसलिए वो पोटली भर-भरकर अरसालु लाया करते थे।धीरे-धीरे इन ब्राह्मणों ने स्थानीय लोगों को भी इसे बनाने की कला सिखाई और इस तरह गढ़वाल पहुंचकर अरसालू बन गया अरसा। इसे बनाने के लिए गढ़वाल में गुड़ इस्तेमाल होता है, जबकि कर्नाटक में खजूर गुड़ का प्रयोग किया जाता है।
धीरे-धीरे ये गढ़वाल की लोकप्रिय मिठाई बन गईस्वाद और सेहत से भरपूर इसे बनाना है बहुत ही आसान। जिसमें चावल को साफकर उसे अच्छी तरह धोने के बाद तीन दिनों के लिए पानी में भिगोकर छोड़ दिया जाता है।भिगोने के बाद इस बात काभी ध्यान रखा जाता है कि 24 घंटे बाद उसका पानी बदलना है। तीन दिन बाद चावल को पानी से निकालकर सूती कपड़े के ऊपर सुखा लेंगे। पानी सूख जाने के बाद उसे मिक्सर में दरदरा पीसते हैं। चावल के उस दरदरे आटे में गुड़, दही और घी को मिलाकर अच्छी तरह गूंथ लिया जाता है।
अरसा उत्तराखंड का प्रसिद्ध पकवान है। यह शादी व्याह और अन्य खुशी के मौके पर बनाया जाता है। कहा जाता है कि यह पकवान केरल से आया, जब आदि शंकराचार्य यहां आए थे। कुछ लोग मानते हैं कि यह पकवान उडीसा से आया। जिसे मुख्य रूप से पारिवारिक सभाओं, शादियों और त्योहारों जैसे विशेष अवसरों पर तैयार है। इसे शादियों में बनाना शुभ माना जाता है। शादी के या किसी शुभ अवसर पर दूर-दूर तक नाते-रिश्तेदारी में अरसे का “बीड़ा” यानी यादगारी का गिफ्ट पैक जरूर भेजा जाता है 9वीं सदी से अरसालु लगातार चलता आ रहा है, यानी इतिहासकारों की मानें तो बीते 1100 साल से गढ़वाल में अरसा एक मुख्य मिष्ठान और परंपरा का सबूत था काफी युवा ऐसे जो अरसे की जगह फास्ट फूड को तरजीह देंगे।
अरसा केवल हमारी संस्कृति ही नहीं बल्कि शरीर के लिए बेहद की पौष्टिक आहार है। शरीर में शक्ति और ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल होता था। ये मेरे पहाड़ की असली मिठाई है। न कोई मिलावट न दिखावा, विशुद्ध पहाडी समौण। बरसों से मेरे पहाड़ के गांव में रहने वाले लोग अपनी बेटियों को ससुराल जाते समय मिठाई के रूप मे अरसे को समौण देते हैं।ये अरसे न केवल एक मिठाई होती है अपितु ये अपनत्व, स्नेह, प्यार का प्रतीक भी होती है देने वाले व्यक्ति की। चावल, भेली और तेल से तैयार अरसे लंबे समय तक खराब भी नहीं होते हैं। खानें में इनका स्वाद आज भी बेजोड़ है।
अरसे को बांटना पहाड़ के लोक में शुभ शगुन माना जाता है। शादी ब्याह सहित अन्य खुशी के मौके पर भी ये परम्परागत मिठाई बरसों से मेरे पहाड़ में बनाई जाती है। पहले इस मिठाई को ले जाने के लिए रिंगाल का बना हथकंडी बनाया जाता था, जिसमें मालू/तिमला के पत्ते को भिमल /सेब की रस्सी से बांधकर रिश्तेदारों को भेजा जाता था। बदलते दौर में जो अब महज यादों में ही सिमट कर रह गया है। भले ही आज लोग मंहगी से मंहगी बंद डिब्बे में पैक्ड मिठाई को एक दूसरे को दे रहे हो। लेकिन जो स्वाद, मिठास और अपनत्व मेरे पहाड़ के इन अरसों में है वो और कहां. उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र में प्रसिद्ध एक स्वीट डिश, अर्सा “कालेओ” का एक अभिन्न अंग है अब राज्य के मैदानी इलाकों में भी अरसा व रोट को बढ़ावा देने का प्रयास हो रहा है।
रेस्टोरेंट में शेफ इन्हें तैयार कर रहे हैं। साथ ही डिमांड के अनुसार इन्हें एक्सपोर्ट भी किया जा रहा है। शादी-ब्याह के मौके पर तो इनकी अच्छी -खासी डिमांड रहती है। दून में स्थित रेस्टोरेंट के बताते हैं कि दो वर्ष से रेस्टोरेंट में रोट व अरसा तैयार किए जा रहे हैं।जो कि सौ रुपये से लेकर 300 रुपये तक के पैक में उपलब्ध है। इन्हें मेरठ, लखनऊ, चंडीगढ़, लुधियाना, दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों में भी भेजा जाता है यह भी महीनों तक खराब नहीं होते। ताउम्र इनका जायका नहीं भूलने वाले है। पहाड़ के लोगों को जड़ों की ओर लौटना ही होगा। यहां की परंपराएं, मान्यताओं का संरक्षण नहीं होगा तो इसका समाज पर नकारात्मक असर पडऩा तय है।
उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं।
( वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )