जैविक खेती (organic farming) की नहीं मिल पा रही है किसानों को जानकारी - Mukhyadhara

जैविक खेती (organic farming) की नहीं मिल पा रही है किसानों को जानकारी

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जैविक खेती (organic farming) की नहीं मिल पा रही है किसानों को जानकारी

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

समृद्ध समाज का हर पैमाना अपनाने की होड़ है उसके भीतर खेती-किसानी में प्रतिमान बनाने वाले पंजाब ने कई उड़ते पंजाब बना दिये।किसानों के बीच से उभर कर कई बाहुबली नेता उभरे, सत्ता के गलियारों में पहुंचे। उसी रफ़्तार से किसानों के जबरदस्त आंदोलन भी उभरे। कितने धरने कितने अनशन हज़ार-हज़ार किलोमीटर पैदल चल जंतर मंतर तक पकड़ी गयी राह। जो धरती बंजर पड़ गयी, जहां आज भी पानी के लिए इंद्रदेव की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता है। जहां अब जमीन ने पैदावार देनी ही मंद कर दी। किसानों पर भरी कर्ज का बोझ डाल दिया। उसका फौरी इलाज ऋण मुक्ति का वायदा और फौरी मदद के रूप में सामने आया। असली समस्या तो वही हैं की खेतिहर को अपने उत्पादन का वाजिब  दाम चाहिए जिसे कोई और ही हड़प रहा है।

अब हिमालय के इलाके को देखें जहां कई तरह की समस्याओं से घिरा है हमारा कृषि -बागवानी-वन क्षेत्र. पहली बात तो यह कि भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी होती गयी। पहाड़ों की हर बारिश यहाँ की भूमि के कवक पर्त व जीवांश को समेटते हुए आगे बढ़ती है कुरी, लेंटाना, गाजर घास जैसी एक्सोटिक झाड़ियां लगातार फैलती जा रहीं हैं, खरपतवार बढ़ती गयी, फिर कृषि विश्वविद्यालयों के पंडितों ने भी स्थानिक विशेषताओं को जाने बगैर नयी शोध और प्राविधि पर जोर दिया। रासायनिक खादों के इस्तेमाल और कीटनाशकों के प्रयोग को बढ़ावा दिया। जिन्हें अधिक पानी भी चाहिए। फलतः मिट्टी में हानिकारक रसायन बढ़ते गए। फसल अवशेषों को खपाने की जरुरत भी महसूस हुई जिसका जलाया जाना आज कई शहरों में गंभीर चिंता का कारण बना  है।

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नये तौर तरीकों से पैदावार भले ही मात्रात्मक रूप से बढ़ी दिखी हो पर उपज का स्वाद, देसीपन और गुणवत्ता गायब हो गयी।खेती के मित्र जीव सुरक्षित ना रहे और इनकी संख्या लगातार कम होती गई। इनके मूल में जैविक उत्पादों की लगातार घटती उत्पादकता रही। कार्बनिक खादों व जीवाणु खादों का प्रचलन व जैविक तरीकों से कीट व रोग नियंत्रण व मृदा संरक्षण क्रियाएं अपनाने का रिवाज हतोत्साहित हुआ। फसल चक्र में दलहनी फसलों को अपनाने की परंपरा ख़तम होती रही। अधिकाधिक उत्पादन मिलने के फेर में फार्म सेक्टर की उन विधियों को अपनाने पर किसान को मजबूर होना पड़ा जो यह ध्यान नहीं रखती थीं कि गोबर खाद, कम्पोस्ट हरी खाद, जीवाणु कल्चर, जैव नाशियों, व क्राइसोपा जैसे बायो एजेंट से भूमि की उर्वरा शक्ति लम्बे समय तक बनीं रहती है। कृषि की लागत घटती है, उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ती है।

वैश्विक स्तर पर जैविक उत्पादों की मांग बढ़ती जा रही है, लेकिन पहाड़ी अंचलों में किसान जैविक खेती कैसे करें, इसके लिए किसानों तक जरूरी जानकारियां नहीं पहुंच पा रही हैं जैविक खेती के लिए प्रशिक्षण से लेकर जैविक खाद तैयार करने,जैविक खेती के लिए आर्थिक सहयोग और जैविक दवाइयां उपलब्ध कराने की वकालत किसान कर रहे हैं।उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से उत्तराखंड को जैविक प्रदेश बनाने की बयानबाजी शुरू हो गई थी। वर्ष 2003 में जैविक उत्पाद परिषद का गठन किया गया। वर्ष 2015 में हर जिले में जैविक ब्लाक चुने गए। इसी में उत्तरकाशी जनपद का डुंडा ब्लाक को शासन स्तर पर चुना गया। 2015 में केंद्र सरकार से करीब 10 करोड़ की धनराशि भी आई। लेकिन डुंडा ब्लाक के सात हजार किसानों में से केवल चार हजार किसानों ने पंजीकरण किया।

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जैविक खाद तैयार करने के लिए हर किसान के पास जैविक खाद पिट तैयार करवाए जाने थे। पर अभी तक पूरे ब्लाक में कुछ किसानों के पास ही जैविक खाद पिट हैं। प्रगतिशील काश्तकार कहते हैं कि किसानों को जैविक खेती के लिए जागरूक करने का जिम्मा जैविक उत्पाद परिषद के पास है। लेकिन परिषद की हालत ऐसी है कि जिलों में तैनात कर्मचारियों के बैठने के लिए एक कार्यालय नहीं है। कर्मचारियों की संख्या भी सीमित है। जिस कारण न तो किसानों के तैयार उत्पादों के सैंपल भरे जा रहे हैं। मिट्टी की जांच भी नहीं हो रही है और किसानों को जैविक खाद व जैविक दवाइयां नहीं मिल पा रही है। किसानों कहते हैं कि इस बार केंद्र सरकार ने जैविक व प्राकृतिक खेती के लिए बजट में खास व्यवस्था की है। जिससे जैविक खेती को बढ़ावा मिल सकता है।

बदलता तापमान, अनियमित बारिश और जंगलों में आग लगने की बढ़ती घटनाएं उत्तराखंड को प्रभावित कर रही हैं। इन सबके बीच, महिला और दलित किसान, जलवायु परिवर्तन से लड़ने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। ऑर्गेनिक खेती शुरुआती दिनों में सब्र का सौदा है जैविक खाद ऐसा भी हो सकता है कि ऑर्गेनिक फॉर्मिंग के लिए आपने को पूंजी लगाई है, वह डूब जाए। कृषि विशेषज्ञों भी सलाह देते हैं कि किसानों को छोटे स्तर पर पहले फॉर्मिंग की शुरुआत करनी चाहिए, जिससे दूसरी फसलों से उनका घाटा पूरा होता रहे। ऑर्गेनिक खेती में लागत ज्यादा लगती है लेकिन मुनाफा कम होता है।वजह यह है कि शुरुआती दिनों में किसानों को सही बाजार नहीं मिल पाता। किसानों के लिए ऐसे ग्राहकों को ढूंढ पाना बेहद मुश्किल होता है जो ऑर्गेनिक खाद्य उत्पादों को प्रमुखता से खरीद लेते हों। क्योंकि अगर एक सब्जी बाजार में 30 रुपये किलो है, वही सब्जी अगर ऑर्गेनिक है तो 60 रुपये में मिलेगी। दोगुने दाम पर सब्जी खरीदने वाले ग्राहकों का दायरा शहरों तक सीमित है।ग्रामीण आबादी के लिए यह फर्क कम पड़ता है कि सब्जी उगाने की विधि क्या है। ऐसे में जहा ऐसी फसलें उगाई जाती हैं, वहां किसानों को बाजार मिल जाए, यह मुश्किल ही है।

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जैविक खेती के लिए रसायन और उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं होता है। कुछ फसलों को नर्सरी में तैयार किया जाता है, कुछ फसलों की सीधी बुवाई होती है। किसान अपनी फसलों के पोषण के लिए गो-मूत्र, गोबर, नीम उत्पाद, कंपोस्ट, इपोमिया की पत्ती का घोल, मट्ठा, मिर्च, लहसुन, राख,  केंचुआ और सनई-ढैंचा जैसे प्राकृतिक रूप से मिलने वाले तत्वों का इस्तेमाल करते हैं। सामान्यतौर पर किसानों की जमीनों पर उर्वरकों का अंधाधुंध इस्तेमाल होता है। ऐसे में सिर्फ प्राकृतिक तत्वों से पोषण मिलने के बाद जमीनों उतनी उपजाऊ नहीं रह जाती हैं। फसलों का उत्पादन 30 से 50 फीसदी तक घट जाता है। शुरुआती दौर में फसलों के उत्पादन में आई इस कमी को किसान समझ नहीं पाते हैं सही बाजार और ग्राहक न मिलने की वजह से उन्हें घाटा होता है। उन्हें देखकर दूसरे किसान भी यह साहस नहीं कर पाते हैं।

ऑर्गेनिक खेती करने वाले किसान 3 से 4 साल बाद फायदे का सौदा करने लगते हैं। ऐसा नहीं है कि यह बोझिल और घाटे की प्रक्रिया है। जिन जमीनों पर इनऑर्गेनिक फसल या पारंपरिक खेती की जाती है, वहां की उर्वरता काफी हद तक यूरिया, फास्फोरस और दूसरे कृषि उवर्रकों पर निर्भर रहती है। जैविक खेती या ऑर्गेनिक खेती के लिए जमीनें पूरी तरह 3 से 4 साल में तैयार होती हैं। एक बार जमीन तैयार हो जाए तो ऐसी जमीनों पर खेती करना फायदे का सौदा होता है। जैविक जगत व उसके पर्यावरण को ले कर मुख्यतः तीन विचारधाराएं सामने हैं। विकास आचार नीति, संरक्षण आचार नीति और संवर्धन आचारनीति। हिमालय की संस्कृति संरक्षण और संवर्धन आचार नीति का अद्भुत संयोग रही है जहां जैविक जगत से जुड़ निवासी अपने  को पर्यावरण का एक घटक मानते रहे। पर जब विकास की नीतियों को स्थानीय समुदायों पर जबरन थोपा गया  तब उसमें पर्यावरण मात्र उपभोग की वस्तु बना कर रह गया।

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परंपरागत जिंस, बीज, खाद और पूरी लोक वनस्पति पिछड़ेपन की प्रतीक मान ली गयी। बड़े पैमाने पर किये जा रहे उत्पादन से छोटे पैमाने पर
किये काम टिक नहीं पाए । भूमंडलीकरण व उदारीकरण से भले ही सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि दिखाई दी हो पर विषमताओं की खाई बहुत गहरी हो गयी।आत्मनिर्भर होने की पूरी गुंजाइश वाला देश खेती के लिए विदेशी आदाओं और विदेशी तकनीक पर निर्भर हो गया अरण्य संस्कृति के साथ जैविक खेती की  परम्पराएं भी लगातार अवमूल्यित हुईं पर्यावरण से मैत्री दुर्बल पड़ गयी, लम्बे समय से चली आ रहीं परम्पराएं ,मान्यताएं, रीतिरिवाज विकास और नियोजन के अति सामान्यीकरण लक्ष्यों में कहीं ठहर गए, लुप्तप्राय हुए। विकास ने जैव विविधता पर संकट खड़े कर दिये. स्थानीय उत्पाद तेजी  से  विनिष्ट हो गए। पर्वत प्रदेश अपनी अनाज, दाल, मसाले, सब्जी व फल, दूध की जरूरतों के लिए मैदानी भागों और बड़ी मंडियों के मोहताज हो गए।

अभी परंपरागत कृषि में दो लाख एकड़ भूमि में उत्तराखंड में जैविक कृषि की जा रही है अब उत्तराखंड में जैविक खेती के लिए अलग से एक्ट पारित हो चुका है। इससे किसानों को उनके जैविक उत्पादों वाजिब कीमत भी मिलेगी तो साथ ही उत्तराखंड के जैविक उत्पादों को ब्रांड नाम भी मिलेगा। अभी उत्तराखंड में करीब 500 क्लस्टर हैं जिनमें पचास हज़ार किसान जैविक खेती से जुड़े हैं जो एक लाख अस्सी हज़ार क्विंटल  जैविक कृषि उत्पादों का उत्पादन कर्ता है। इनमें गहत, मंडुआ, मक्का, सरसों,  भट्ट, राजमा, गेहूं, चावल, मसाले व सब्जी मुख्य हैं। जैविक उत्पादन परिषद के समूहों के साथ अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत, नैनीताल, पौड़ी, चमोली टेहरी, उत्तरकाशी व देहरादून  में जैविक खेती की जा रही है। ऐसे प्रावधान भी संभव हैं की बंजर व अनुपयुक्त पड़ी कृषि भूमि को भूमि-स्वामी लीज पर दे सके। इस विधेयक के द्वारा उत्तराखंड में जैविक खेती के न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी तय किया जाना है।

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दूसरी ओर मंडी परिषद जैविक उत्पादों को खरीदने के लिए रिवाल विंग फण्ड भी स्थापित करेंगी। इस विधेयक से जैविक पदार्थो का क्रय-विक्रय तो होगा ही साथ में प्रोसेसिंग करने वाली एजेंसी पर भी निगरानी रखी जानी संभव होगी। इनमें एनजीओ  भी शामिल किये जायेंगे। यह संकेत भी दिये गए हैं कि जैविक उत्पाद के उत्पादक किसानों व संग्रहकर्ताओं से लागत व कीमत के पक्षों में की जा रही किसी भी प्रकार की बेईमानी व धोखाधड़ी पर कार्यवाही कर सजा और जुर्माने का भी प्रावधान होगा। जैविक खेती को सबल आधार देने के लिए उत्तराखंड में अधिसूचित क्षेत्र के दस विकास खण्डों में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकोंको प्रतिबंधित व पशु चिकित्सा में प्रयुक्त दवाओं के साथ पशु चारे की बिक्री को विनियमित किया जाएगा। पशु आधारित खेती से ही जैविक कृषि संभव है।

पहाड़ के किसान दूध-दन्याली के लिए पशुपालन करते रहे हैं। जैविक कृषि विधेयक के पहले क्रम में चिन्हित ब्लॉकों में रासायनिक खाद व खेती में प्रयोग होने वाले अन्य रासायनिक पदार्थ भी प्रयोग में नहीं लाये जायेंगे। अगर अधिसूचित क्षेत्र में प्रतिबंधित पदार्थों की बिक्री होती है तो कानूनी कार्यवाही होगी। जिसमें एक लाख का जुर्माना व साल भर की कैद भी हो सकती है। जैविक खेती खेतिहरों को बीज, प्रशिक्षण, बिक्री की साथ प्रमापीकरण की सुविधा भी प्रदान करेंगी। अभी जो भी किसान जैविक खेती कर रहे हैं, उन्हें इन पदार्थों की वाजिब कीमत नहीं मिलती। बाजार में मार्केटिंग का मायाजाल है जो शुद्ध व जैविक के नाम पर मोटा मुनाफा वसूल करते रहे हैं। साथ ही नकली व मिलावट वाले पदार्थ बेच उपभोक्ता के साथ भी ठगी करते हैं।

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बागवानी को सुरक्षित रखने के लिए भी प्राविधान हैं। अब सरकारी नर्सरी को नर्सरी एक्ट में रख दिया गया है। यदि यह गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरती तब पचास हज़ार रुपये का जुर्माना नर्सरी को देना होगा। अभी अधिकांश पौंध राज्य से बाहर से आती है अब इनकी गुणवत्ता की बिक्री के लिए कड़े नियम बनेंगे।नयी पौध नरसरी खोलने के प्राविधान भी होंगे। पौध गुणवत्ता के लिए संचालक जिम्मेदार होगा।नये फलदार पौंधों को पेटेंट भी कराया जाएगा। ऐसे में उत्तराखंड के दस विकास खण्डों से की जा रही यह पहल उन वनवासियों व अनुसूचित जनजातियों के समग्र लोकज्ञान व लोक वनस्पति पर गहरी समझ को पुनर्जीवित करने में उत्प्रेरक का काम करेंगी जो मध्यवर्ती तकनीक से बेहतर औरकारगर उत्पादन का हुनर जानते थे।

यह सचाई भुला दी गयी की किसान ही अपने खेत खलिहान का वैज्ञानिक है। वह जानता है कि उसे अपने खेत में क्या इस्तेमाल करना है और अपने अनुभवों से वह यह भी सीख गया है कि कुछ अधिक उगा लेने के फेर में उसकी कैसी दुर्गति हुई  है। किसान को वाजिब कीमत मिलने वाला बाजार मिल जाये तो जैविक उत्पाद व जंगलों में पायी जाने वाली वनौषधियों, भेषजों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सबल आधार मिल सकता है।

(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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