गंदरायण (Gandarayan) पहाड़ी का एक बेहतरीन मसाला है
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
गंदरायण व हिमालयन एन्जेलिका इसका अंग्रेजी नाम एन्जेलिका है गंदरायण व हिमालयन एन्जेलिका इसके वाणिज्यिक नाम हैं। खुशबूदार एपिएसी परिवार का यह पौधा एन्जेलिका ग्लोका) के वानस्पतिक नाम से जाना जाता है। एपिएसी परिवार में कई और खुशबूदार पौधे भी शामिल हैं, उत्तराखण्ड में ट्री लाइन के इर्द-गिर्द बसे गाँवों में दवा के रूप में भी गंदरायण का इस्तेमाल किया जाता है। यह पूर्वी एशिया और हिमालय के पश्चिमी भागों में 2000 से 3600 मीटर की ऊंचाई में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। अपने प्राकृतिक वास में यह बलुआ मिट्टी वाली नम तथा छायादार पहाड़ी ढलानों में पैदा होता है। पहाड़ी खाने का जायका इसमें पड़ने वाली हिमालयी जड़ी-बूटी के बिना अधूरा ही है। समय के साथ अब पहाड़ी व्यंजन प्राय: लुप्त सा हो गया है। फिर भी पहाड़ के गांवों में यह स्वाद आज भी जिंदा है। गंदरायण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ठसक के साथ बिकता है। इसके पौधे से बनने वाले उत्पादों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसके उत्पादों की कीमत भी बहुत ऊँची है। उत्तराखण्ड के अलावा यह हिमाचल, कश्मीर, उत्तरपूर्व, नेपाल, भूटान,चीन, तिब्बत, पाकिस्तान व अफगानिस्तान में भी पाया और इस्तेमाल किया जाता है। इसके अंधाधुंध व अनियंत्रित दोहन की वजह से यह पौधा विलुप्त होने की कगार पर पहुँच सकता है। अब सरकार ने इसके संरक्षण के लिए कदम भी उठाने शुरू कर दिए हैं। ग्रामीणों ने भी इसके महत्त्व और व्यावसायिक मांग को देखते हुए इसकी खेती शुरू करने की पहल की है। संरक्षण के अभाव में औषधीय हिमालयी जड़ी-बूटियां भी लुप्त होती ही दिख रही हैं। व्यवसायियों का कहना है महक से भरा होने की वजह से इसका इस्तेमाल धूप, अगरबत्ती में तथा अन्य तरीकों से घरों को सुवासित करने में भी किया जाता है। कि अनियंत्रित दोहन के कारण जड़ी-बूटिया का प्राकृतिक उत्पादन कम होने से उपलब्धता प्रभावित हुई है। इसकी जड़ों में 15% तक तेल की मात्र होती है। इस तेल में एन्जेलिक एसिड, वेलेटिक एसिड और एजेलिसीन नाम का रेजीन पाया जाता है। अगर आप इन्टरनेट में सर्च करेंगे तो एन्जेलिका रूट ऑयल व एन्जेलिका सीड ऑयल नाम से नामी कंपनियों को गंदरायण का तेल बेचते हुए पाएंगे।
अंतरष्ट्रीय बाजार में गंदरायण की जड़ों और बीजों के तेल की कीमत 5000 से 16000 रुपये प्रति किलो तक है। वह खेतों में उत्पादन करके बेचते हैं। अन्तराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग के बावजूद गंदरायण राज्य के नीति-नियंताओं की प्राथमिकता में यह कहीं भी नहीं है। इस तथ्य से अनभिज्ञ सीमान्त ग्रामीण भी गंदरायण को बेचने के लिए मेलों-ठेलों में धक्के खाते दिख जाते हैं। गंदरायण के व्यावसायिक महत्त्व की जानकारी न होने की वजह से ही अब तक इसका ठीक तरह से दोहन भी नहीं किया जाता है, जिसकी वजह से अपने प्राकृतिक वास में इसकी कमी होती जा रही है। उत्तराखण्ड में आज भी हिमालयी क्षेत्रों में पायी जाने वाली जड़ी- बूटियों की खेती, दोहन, विपणन की कोई ठोस नीति नहीं बन पायी है। जो लचर नीति है भी उसमें ग्रामीणों को इनका उचित बाजार मूल्य नहीं मिलता। इस मामले में नेपाल और भूटान हमारे देश-प्रदेश से बहुत आगे है। इसके बावजूद इन्हें लाने ले जाने में पुलिस और वन महकमा परेशान करता है।
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सरकार का बहुत बड़ा रणनीतिक सपना है कि हमारा किसान अंतरराष्ट्रीय कृषि बाज़ार में जाकर प्रतिस्पर्धा करे और देश का विकास करे। न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकार के संरक्षण पर निर्भर न हो। लेकिन इस सपने के पीछे का सिद्धांत यह है कि सब्सिडी तो दी जाएगी, सरकार के खजाने से रियायत दी जाएगी, लेकिन उसे कुटिलता के साथ परिभाषित किया जाता है। पिछले 30 साल के अनुभव यह बताते हैं कि भारत और दुनिया में खेती को अपने अधीन कर लेने के उद्देश्य से दुनिया की बड़ी निजी कृषि कंपनियां (एग्रो कार्पोरेशंस) यह माहौल बना रही हैं कि सीधे किसानों को लाभ पहुंचाने वाले सब्सिडी ‘खराब और अशुद्ध सब्सिडी’ होती है और एग्री-कार्पोरेशंस को लाभ पहुंचाने वाली सब्सिडी ‘अच्छी और शुद्ध सब्सिडी’ होती है।
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भारत के अनुभव बताते हैं कि भारत में किसानों को बहुत कम सब्सिडी मिलती है, इसीलिए उनकी उत्पादन लागत दुनिया के उन अमीर देशों से ज्यादा आती है, जो कृषि उपज के अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपना आधिपत्य जमा रखे हैं। भारत का अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में हिस्सा अभी बहुत कम है और आने वाले समय में इसे बढाने के लिए भारत के बड़े कार्पोरेट्स धमकी या अधिकार के साथ सरकार से सब्सिडी और रियायत मांगेंगे और सरकार खुले मन से देगी भी। वास्तव में बस तय यह होना है कि सरकार का ममतामयी संरक्षण किसानों को मिलेगा या फिर कार्पोरेट्स को जैवविविधता के धनी उत्तराखंड में जड़ी-बूटियों का भंडार मौजूद है। हिमालयी इलाकों में पाई जाने वाली बेशकीमती जड़ी-बूटियां अब खेतों में भी उगने लगी हैं।तमाम बीमारियों में काम आने वाली संजीवनी सरीखी इन जड़ी-बूटियों की खेती से अच्छा मुनाफा मिलने के कारण परंपरागत खेती करने के बजाय किसान इस ओर आकर्षित हो रहे हैं।
गंदरायण या चोरु उत्तराखंड की एक आम पर थोड़ा महंगी जड़ी-बूटी है। सदियों से उत्तराखंड के खाद्य व्यंजनों में इसका उपयोग होता रहा हैं। ऐसा कहा जाता है कि गंदरायण के उपयोग से भोजन की तासीर (प्रभाव) बदल जाती है। यह आयुर्वेद में वर्णित एक पौधा है और इसका उपयोग विभिन्न त्वचा रोगों, कीड़ों के काटने, पाचन में मदद करने, भूख को बढ़ाने, बुखार और मानसिक विकार को ठीक करने में किया जाता है। राज्य के चमोली, पिथौरागढ़, बागेश्वर, रूद्रप्रयाग, उत्तरकाशी जैसे पहाडी जनपदों में किसान हर्बल खेती कर रहें हैं। अतीश, कुठ, कुटकी, करंजा, कपिकाचु और शंखपुष्पी जैसे हर्बल पौधों की खेती से किसानों का एक छोटा समूह भी तीन लाख रुपये प्रति एकड़ तक की कमाई कर रहा है। राज्य के हिमालयी क्षेत्र से सटे गांवों में छह हजार से अधिक परिवार जड़ी- बूटी की खेती कर रहे हैं। सालमपंजा, जटामासी सहित कुछ अन्य जड़ी-बूटियों के दोहन व बिक्री को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। इनका दोहन केवल नाप भूमि में खेती करने के बाद ही किया जा सकता है।
लेखक का शोध वैज्ञानिक शोंध पत्र वर्ष, 2015 में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी भारत जर्नल ऑफ़ विज्ञान पत्रिका मे प्रकशित हुआ है
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )