'गिर्दा(Girda)' थे जनान्दोलन के महारथी - Mukhyadhara

‘गिर्दा(Girda)’ थे जनान्दोलन के महारथी

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‘गिर्दा(Girda)’ थे जनान्दोलन के महारथी

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

जनकवि, संस्कृति कर्मी और स्वभाव से ही आंदोलनकारी गिरीशचंद्र तिवारी गिर्दा का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के हवालबाग विकासखंड में ज्योली नामक गांव में हुआ था। गिर्दा की जन्म तिथि 10 सितंबर 1945 बताई जाती है। इनके पिता का नाम हंसा दत्त तिवारी और माता का नाम जीवंती देवी था। बचपन से ही अलमस्त स्वभाव के मालिक गिर्दा पर अपने आसपास के लोकजीवन का बड़ा असर पड़ा। प्रारंभिक शिक्षा इन्होंने अल्मोड़ा से ही पूरी की और उसके बाद यह नैनीताल आए ।नैनीताल में गिर्दा ने 12वीं की परीक्षा पास की। उस समय के प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती और संस्कृति कर्मी बृजेंद्र लाल शाह जैसे लोग इनकी प्रेरणा के स्रोत बने और गिर्दा ने शायद उसी समय ठान लिया होगा कि मुझे लोक जीवन की समस्याओं का गायक बनना है। इसके बाद कुछ समय तक गिर्दा ने पीलीभीत और बरेली में काम किया। जीविकोपार्जन के लिए इन्होंने अलीगढ़ में रिक्शा तक चलाया।

कुछ वामपंथी मजदूर संगठनों के संपर्क में आकर गिर्दा को गरीबों और वंचितों की पीड़ा को जानने का और बेहतर अवसर मिला वहीं से गिर्दा ने स्क्रिप्ट राइटिंग और अन्य विधाओं में अपने लेखन की भी शुरुआत की। उनमें जनता के प्रति कुछ करने की भावना और ललक बचपन से ही थी। वह एक सच्चे जन सेवक थे जो समय-समय पर पहाड़ी क्षेत्र में हो रहे शोषण के विरुद्ध सरकारी तंत्र से भिड़ने को लेकर हमेशा ही तैयार रहते थे। वह हर कार्य ईमानदारी से करते थे एवं जनता के लिए मर मिटने को भी तैयार रहते थे।

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शुरुआती काल में कई सरकारी विभागों में काम करने के बाद वह अपने उत्तराखंड और समाज की संस्कृति के लिए कार्य करने लगे और धीरे-धीरे वह कविताएं लिखने लगे। अपनी कविताओं के जरिए उन्होंने लोगों की पीड़ा को समाज के सामने व्यक्त किया और इन्हीं गीतों के जरिए उत्तराखंड में जगह जगह पर होने वाले आंदोलन में क्रांति की जान भी झोंकी। इनके कविताओं में न केवल जनमानस की पीड़ा बल्कि बार-बार किए गए सामाजिक संस्कृतिक परिवर्तन के लिए आंदोलनों जैसे कि चिपको आंदोलन, उत्तराखंड आंदोलन आदि आंदोलनों के लिए पीड़ा भी झलकती है ।इन्होंने अपने गीतों और गायकी के द्वारा इन जन आंदोलनों में लोगों का ध्यान आकर्षित किया जिससे लोगों के अंदर इन आंदोलनों के प्रति ज्वलंत जवालाये उठी थी।

गिर्दा का शुरुआती जीवन बड़ा कठिन रहा है। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने अलीगढ़ में रिक्शा तक चलाया। वह शुरुआत में पीडब्ल्यूडी विभाग में कार्यरत थे जिसके लिए वह उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों जैसे लखीमपुर खीरी, पीलीभीत इत्यादि जगहों भी रहे उस समय वह मात्र 22 वर्ष के थे। इसी समय इनकी मुलाकात कुछ ऐसे आंदोलनकारियों से हुई जिनके साथ रह कर वह जन आंदोलनों के प्रति इतने प्रभावित हुए कि 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना जीवन समाज के लिए समर्पित करने की ठान ली थी और वह रंगमंच कलाकार के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी बन गए। जिसके बाद उन्होंने लोगों के विरुद्ध होने वाले शोषण के खिलाफ अपने गानों के माध्यम से आवाज उठानी शुरू कर दी।

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कुछ समय तक जीविका के लिए काम करने के बाद 1967 में इन्होंने सरकार की गीत और नाटक प्रभाग में स्थाई नौकरी की शुरुआत की और लखनऊ में रहने के दौरान सुमित्रानंदन पंत ,निराला, ग़ालिब जैसे लेखकों और कवियों के गायकी और रचनाओं के अध्ययन करने के बाद 1968 में कुमाऊं की गलियों में अपना पहला संग्रह शिखरों के स्वर प्रकाशित किया। बाद में उन्होंने अंधेरी नगरी चौपट राजा ,अंधा युग, धनुष यज्ञ, जैसे कई नाटक भी लिखें। जनकवि और आंदोलनकारी गिर्दा बचपन से ही अपने माटी के प्रति संवेदनशील और कुमाऊं क्षेत्र के पर्वतीय आंचल के समस्याओं से रूबरू थे। जब उत्तराखंड में 80 के दशक में जगह-जगह आंदोलन होने लगे तो गिर्दा के हृदय से इन आंदोलनों के लिए संवेदनशील रचनाएं फूटने लगी।

चिपको आंदोलन हो या वनों के नीलामी के विषय में आंदोलन हो या नशा मुक्ति आंदोलन हो सब में इन्होंने अपनी संवेदनशील रचनाओं से लोगों के अंदर ज्वाला और उग्र कर दी। इन्हीं आंदोलनों के बाद गिर्दा एक जनकवि के रूप में उभरने लगे। जन आंदोलनों में अपनी गायकी से लोगों को उत्साह करने और प्रेरित करने के लिए गिर्दा कई बार जेल भी गए। हमेशा से ही कठिनाइयों एवं संघर्ष भरी जीवन जीने वाले गिर्दा के कई गीत एवं रचनाएं थी जैसे धरती माता तुम्हारा ध्यान जागों, जैंता इक दिन तो आलो आदि कई काव्य संग्रह एवं रचनाएं हैं, जो ना केवल उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में प्रसिद्ध हुए।

इन रचनायों के माध्यम से गिर्दा ने जनमानस को हमेशा से ही जगाने का काम किया और हिमालय के तलहटी में बसा पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के हर प्राकृतिक चीज का महत्व लोगों को अपने गीतों के माध्यम से समझाया। तो यह थे उत्तराखंड के एक ऐसे जनकवि जिन्होंने समय- समय पर अपने माटी के लोगों के लिए आवाज उठाई और इन के विरुद्ध होने वाले शोषण के खिलाफ अपनी कलम और गायकी द्वारा लोगों के मन में साहस और उत्साह और जुनून भरा। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन को अपने गीतों के माध्यम से अलग धार देने वाले जनकवि गिरीश तिवारी “गिर्दा” के बिना उत्तराखण्ड ने ग्यारह साल का सफर तय कर लिया है। ग्यारह सालों के इस सफर के दौरान गिर्दा का एक भी वह सपना राज्य के नीति नियंता पूरा नहीं कर पाए, जिन सपनों को आंखों में लिए हर उत्तराखंडी के दिलों पर राज करने वाले जनकवि गिरीश तिवारी “गिर्दा” ने 22 अगस्त 2010 को हमेशा के लिए आंखें मूंदकर अपने चाहने वालों से विदा ली थी।

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राज्य बनने के बाद गिर्दा की मौत से महज दो साल पहले २००८ में नदी बचाओ आंदोलन के दौरान निकाली गई यात्रा में शामिल हर आंदोलनकारी के साथ यात्रा में खुद भी शामिल गिर्दा ने जब इन शब्दों के साथ नदी के दर्द को उकेरा तो लगा राज्य की नदियां भी अपनी धारा की कल-कल की आवाज से इस गीत के सुर में सुर मिला रही हों। अजी वाह! क्या बात तुम्हारी? तुम तो पानी के व्योपारी, खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी, बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी। सारा पानी चूस रहे हो, नदी-समन्दर लूट रहे हो। गंगा-यमुना की छाती पर, कंकड़- पत्थर कूट रहे हो। उफ! तुम्हारी ये खुदगर्जी, चलेगी कब तक ये मनमर्जी।

जिस दिन डोलगी ये धरती, सर से निकलेगी सब मस्ती। महल-चौबारे बह जायेंगे, खाली रौखड़ रह जायेंगे। बूँद-बूँद को तरसोगे जब, बोल व्योपारी-तब क्या होगा ? नगद-उधारी-तब क्या होगा ? आज भले ही मौज उड़ा लो, नदियों को प्यासा तड़पा लो। गंगा को कीचड़ कर डालो, लेकिन डोलेगी जब धरती। बोल व्योपारी-तब क्या होगा? वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी-तब क्या होगा? योजनकारी-तब क्या होगा ? नगद-उधारी-तब क्या होगा ? एक तरफ हैं सूखी नदियाँ, एक तरफ हो तुम। एक तरफ है प्यासी दुनियाँ, एक तरफ हो तुम।

ज़िंदगी के अनुभवों की भट्टी में तपकर गिरीश चंद्र तिवारी से ” गिर्दा” तक का सफर तय करने वाले गिर्दा ने तात्कालिक मुददों के साथ ही जिस
शिद्दत से भविष्य के गर्भ में छिपी तमाम दुश्वारियों को पहचाना था, वह दुश्वारियां आज भी राज्य में बनी हुई हैं। दरअसल गिर्दा सिर्फ कवि नहीं थे, वे जनकवि थे। उनके पास सिर्फ पाठक नहीं थे, स्रोता भी थे जो उन्हें उनकी आवाज में ही सुनते समझते थे। वह राजनीति की बारीकियों को जितनी सहजता से खुद समझते थे, उतनी सहजता से वह दूसरों को भी बातों-बातों में कब समझा जाते थे, यह समझने वाले के लिए भी हैरानी
भारी बात थी। गिर्दा को उनके गीतों-कविताओं के जरिए अपने आस-पास महसूस करते रहने की कोशिशों के बाद भी उनका अब न होना बेहद खलता है। उनके गीत, उनकी कवितायें उनके पूरे-पूरे अहसास के लिए ना काफी हैं।

जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा को उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड गौरव सम्मान देने की घोषणा की है। राज्य स्थापना दिवस पर उनके निधन के 11  साल बाद गिर्दा को यह सम्मान प्रदान किया। 2022 में सरकार के इस निर्णय की साहित्य, कला प्रेमियों के साथ ही वैचारिक विरोधियों ने सराहना की है। राज्य की युवा पीढ़ी से अगर कोई पूछ ले कि गिरीश तिवारी गिर्दा को जानते हो कुछ विरले ही होंगे जो गिर्दा और उनके जनगीतों सेवाकिफ होंगे। भू-कानून को लेकर जिस तरह कुछ युवा सामने आए हैं उससे एक उम्मीद जरूर बंधती है लेकिन अपने राज्य व राज्य आंदोलनकारियों के सपने के उलट चल रहे उत्तराखंड को वास्तव में अगर पहाड़ोन्मुख, जनसरोकारी, पलायनविहीन, रोजगारयुक्त, शिक्षा-स्वास्थ्य युक्त बनाना है तो हमें गिर्दा जैसे आंदोलनकारियों को हर दिन पढ़ना व समझना होगा और उसी हिसाब से अपनी सरकारों से माँग करनी होगी। तब जाकर कहीं हमारे सपनों का उत्तराखंड धरातल पर नजर आएगा।

जीवन भर हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने सारे विश्व को दिखा दिया कि मानवता के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाला कवि किसी जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त या देश तक सीमित नहीं होता। उनकी अन्तिम यात्रा में “गिर्दा” को जिस प्रकार अपार जन-समूह ने अपनी भावभीनी अन्तिम विदाई दी उससे भी पता चलता है कि यह जनकवि किसी एक वर्ग विशेष का नही बल्कि वह सबका हित चिंतक होता है। गिर्दा के देहावसान के बाद जिस तरह नैनीताल के मन्दिरों की प्रार्थनाओं,गुरुद्वारों के सबद कीर्तन और मस्जिदों में नमाज के बाद उनका प्रसिद्ध गीत “आज हिमालय तुमन कँ धत्यूँछ, जागो, जागो हो मेरा लाल”  के स्वर बुलन्द हुए, उन्हें सुन कर एक बार फिर यह अहसास होने लगता है कि धार्मिक कर्मकांड की विविधता के बावजूद हम मनुष्यों की जल,जंगल और जमीन से जुड़ी समस्याएं तो समान हैं। उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाला कोई “गिर्दा”  जैसा फक्कड़  जनकवि जब विदा लेता है तो पीड़ा होती ही है। बस केवल रह जाती हैं तो उसके गीतों की ऊर्जा प्रदान करने वाली भावभीनी यादें-
“ततुक नी लगा उदेखग् घुनन मुनई न टेक.
जैंता एक दिन त आलो वो दिन यू दुनीं में..”

जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ को पुण्य तिथि पर शत शत नमन!!

आज हिमालै तुमुकै धत्यूं छौ, जागो-जागो ओ मेरा लाल…।’गिर्दा’ की स्मृति को सलाम! उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

 ( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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