गोपाल बाबू (Gopal Babu) के गीत आज भी उनकी उपस्थिति का अहसास कराते हैं - Mukhyadhara

गोपाल बाबू (Gopal Babu) के गीत आज भी उनकी उपस्थिति का अहसास कराते हैं

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गोपाल बाबू (Gopal Babu) के गीत आज भी उनकी उपस्थिति का अहसास कराते हैं

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

बेड़ू पाको बारमासा, घुघुती न बासा, कैलै बजै मुरूली, हाये तेरी रुमाला, हिमाला को ऊंचा डाना, भुर भुरु उज्याव हैगो जैसे गीतों से प्राकृतिक सौंदर्य, लोक सौंदर्य, शृंगार रस, उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को सजाने वाले लोक गायक गोपाल बाबू गोस्वामी की आवाज में एक अजीब सी खनक थी। वे गाते थे तो पहाड़ के कण कण को अपनी जादुई आवाज के मोह में बांध लेते थे। गोपाल बाबू गोस्वामी उत्तराखंड के कुमाऊंनी लोक गीतों के प्रसिद्ध गीतकार और गायक थे। हिमालय सुर सम्राट स्व. गोपाल बाबू गोस्वामी का जन्म संयुक्त प्रांत के अल्मोड़ा जनपद के पाली पछांऊ क्षेत्र में मल्ला गेवाड़ के चौखुटिया तहसील स्थित चांदीखेत नामक गॉव में 2 फरवरी 1941 को मोहन गिरी एवम् चनुली देवी के घर हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा चौखुटिया के सरकारी स्कूल में हुई थी।

आठवीं पास करने से पहले ही, उनके पिता की मृत्यु हो गई। घर चलने की जिम्मेदारी अब उनके कन्धों पर आ गई। इसी जिम्मेदारी का निर्वाहन करने के लिए वे दिल्ली नौकरी करने गए। कई वर्ष दिल्ली में प्राइवेट नौकरी की किन्तु स्थाई नहीं हो सके। स्थाई नौकरी की आस में दिल्ली हिमांचल पंजाब कई जगह गए। अंत में स्थाई नौकरी नहीं मिलने के कारण वापस अपने घर चांदीखेत चखुटिया आ गए। घर आकर उन्होंने खेती का काम शुरू किया और खेती के काम में उनका मन लग गया।

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गोपाल बाबु ने प्राइमरी शिक्षा चौखुटिया के सरकारी स्कूल से प्राप्त की। 5 वीं पास करने के बाद मिडिल स्कूल में उन्होंने नाम तो लिखवाया, परन्तु 8 वीं उत्तीर्ण करने से पूर्व ही उनके पिता का देहावसान हो गया। इसके बाद गोस्वामी  नौकरी करने पहाड़ के बेरोजगार युवाओं की परम्परानुसार दिल्ली चले गये। वहां वह कई वर्षों तक नौकरी की तलाश में रहे, पहले एक प्राइवेट नौकरी की, कुछ वर्ष डीजीआर. में आकस्मिक कर्मचारी के रूप में कार्यरत भी रहे परन्तु स्थाई नहीं हो सके। इस दौरान वे दिल्ली, पंजाब तथा हिमांचल में रहे। पक्की नौकरी न मिल सकने के कारण बाद में उन्हें गाँव वापस आना पड़ा, जहां वह खेती के कार्यों में लग गये।

1970 में उत्तर प्रदेश राज्य के गीत और नाटक प्रभाग का एक दल किसी कार्यक्रम के लिये चौखुटिया आया था, जहाँँ उनका परिचय गोपाल बाबू गोस्वामी से हुआ। तत्पश्चात् नाटक प्रभाग से आये हुए एक व्यक्ति ने उन्हें नैनीताल केन्द्र का पता दिया और नाटक प्रभाग में भर्ती होने का आग्रह किया। 1971 में उन्हें गीत और नाटक प्रभाग में नियुक्ति मिल गई। प्रभाग के मंच पर कुमाऊनी गीत गाने से उन्हें दिन-प्रतिदिन सफलता मिलती रही और धीरे धीरे वे चर्चित होने लगे। इसी दौरान उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ में अपनी स्वर परीक्षा करा ली। वे आकाशवाणी के गायक भी हो गये। लखनऊ में ही उन्होंने अपना पहला गीत कैलै बजै मुरूली ओ बैणा गया था।

आकाशवाणी नजीबाबाद व अल्मोड़ा से प्रसारित होने पर उनके इस गीत के लोकप्रियता बढ़ने लगी। 1976 में उनका पहला कैसेट एचएमवी ने बनाया था। उनके कुमाऊँनी गीतों के कैसेट काफी प्रचलित हुए। पौलिडोर कैसेट कंपनी के साथ उनके गीतों का एक लम्बा दौर चला। उनके मुख्य कुमाऊँनी गीतों के कैसेटों में थे हिमाला को ऊँचो डाना प्यारो मेरो गाँव, छोड़ दे मेरो हाथा में ब्रह्मचारी छों, भुर भुरु उज्याव हैगो, यो पेटा खातिर, घुगुती न बासा, आंखी तेरी काई-काई, तथा जा चेली जा स्वरास। उन्होंने कुछ युगल कुमाऊंनी गीतों के कैसेट भी बनवाए। गीत और नाटक प्रभाग की गायिका चंद्रा बिष्ट के साथ उन्होंने लगभग 15 कैसेट बनवाए।

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नाटक प्रभाग में नियुक्ति से पहले गोपाल बाबू पहाड़ के मेलों, विभिन्न समाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा आम जनता के बीच में अपनी उपस्थिति दर्ज कर एक निस्वार्थ लोकप्रिय कलाकार के रूप में समाज की चेतना को जागृत करने के लिये मनमोहक लोकगीत गाते थे। स्वयं के द्वारा रचे हुये लोकगीतों को अपने मधुर कंठ के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन कर उत्कृष्ट समाजसेवा का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले गोपाल बाबू सदी के बेहद ही दुर्लभतम कलाकार थे। गोस्वामी जी के मधुर कंठ को लोगों ने भी बहुत पसंद किया था। उनमें यह विशेषता भी थी की वे उच्च पिच के गीतों को भी बड़े सहज ढंग से गाते थे। उनके गाये अधिकांश कुमाऊँनी गाने स्वरचित थे।

प्रसिद्ध कुमाऊंनी लोकगाथाओं, जैसे मालूशाही तथा हरूहीत के भी उन्होंने कैसेट बनवाए थे। गोस्वामी ने कुछ कुमाऊंनी तथा हिंदी पुस्तकें भी लिखी थी। जिसमें से गीत माला (कुमाऊंनी) दर्पण राष्ट्रज्योति (हिंदी) तथा उत्तराखण्ड आदि प्रमुख थी। एक पुस्तक उज्याव प्रकाशित नहीं हो पाई। 55 बर्ष की आयु में उन्होंने अनेक उतार-चढ़ाव देखे। 90 के दशक की शुरुआत में उन्हें ब्रेन ट्यूमर हो गया था। उन्होंने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में आपरेशन भी करवाया परन्तु वे स्वस्थ नहीं हो सके। 26 नवम्बर 1996 को उनका असामयिक निधन हो गया। गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत आज भी हर युवा ने सुने और कहीं ना कहीं से जुबान पर निकल आते हैं। भले ही गोपाल बाबू आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन पहाड़ की लोकसंस्कृति में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। समाज और प्रदेश की लोकसंस्कृति के इस अनमोल रत्न की सदाएं पहाड़ की वादियों में सदा गूंजती रहेंगी।

आज गोपाल बाबू गोस्वामी के पुत्र अमित गोस्वामी अपने पिता के गाए प्रचलित गीत जै मय्या दुर्गा भावानी, कैले बाजे मुरुली, रुपसा रमौती घुघुर न बाजा छ़ुम आदि गीतों को गाकर गोपाल बाबू की याद में मंचों पर दर्शकों को झूमने से मजबूर कर देते है। अमित की गायकी में पूरी तरह से गोपाल बाबू गोस्वामी के सुर व अंदाज देखकर लोग झूम उठते हैं। जिन्होंने 80 के दशक में ही अपने लोकगीतों के माध्यम से ग्रामीण
भारत से हो रहे भीषण पलायन, हिमालयन पहाड़ी राज्यों की पीड़ा, जनसंख्या, बेरोजगारी, जल, जंगल, पर्यावरण प्रदूषण, पाश्चात्य सभ्यता और भारतीय समाज में आ रहे खौफनाक विकृतियों, नारी पीढ़ा आदि सभी ज्वलंत मुद्दों से देश को सावधान रहने की चेतावनी जारी कर दी थी, जिन समस्याओं से आज देश अब बूरी तरह जूझ रहा है।

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बेहद दुख और अफसोस के साथ कहना पढ़ रहा है कि हिमालय सुर सम्राट के नाम से विख्यात भारत के महानतम लोकगायक, गीतकार, कवि, लेखक, उद्घोषक तथा समाज सुधारक स्व. गोपालबाबू गोस्वामी के लिये आम जनता द्वारा बार-बार गुहार लगाये जाने के बाबजूद आज तक किसी भी सरकार ने ना तो जीते जी और ना ही उन्हें मरणोपरांत किसी भी राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया है।उन्होंने समाज और पहाड़ को काफी कुछ दिया लेकिन उन्हें वो सम्मान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे। गोपाल बाबू गोस्वामी आज हमारे बीच नही हैं, लेकिन उनके गीत हमेशा हमारे दिलों में जगह बना चुके हैं। आज यानि 26 नवम्बर को उनकी पुण्यतिथि है। आइए याद करते है उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के एक अनमोल रत्न को, जो हमें पहाड़ की लोकसंस्कृति को अपनी मखमली आवाज से कई बार साक्षात्कार कराता गया।

गोपाल बाबू के गाए सभी गाने तब बहुत लोकप्रिय होने लगे। 1976 में गोपाल बाबू ने अपना पहला कैसेट एच.एम.वी. कंपनी से निकाला जो बहुत चला। जनवरी के महीने में हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले में निकलने वाले जुलूस में हज़ारों की भीड़ उनके पीछे पीछे उनके सुर में सुर मिला कर चला करती थी। “कैले बाजै मुरूली”, “भुरु भुरु उज्याव है गो”, “घुघूती ना बासा” और “रुपसा रमोती” जैसे गाने तब खूब चाव से सुने जाते थे और आज भी ये गाने इतने लोकप्रिय हैं कि इनके अब रीमिक्स भी निकलने लगे हैं। जीवन के 54सालों में उन्होंने साढे़ पांच सौ से भी अधिक गीत लिखे हैं तथा उनके द्वारा गाये गये सदाबहार गीतों ने लोक संस्कृति को गौरवान्वित करने के साथ साथ एक कलात्मक सांस्कृतिक पहचान भी दी है।

यह लेखक के निजी विचार हैं। दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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