जनगण के महाकवि थे गुरु रविंद्र नाथ टैगोर (Rabindra Nath Tagore) - Mukhyadhara

जनगण के महाकवि थे गुरु रविंद्र नाथ टैगोर (Rabindra Nath Tagore)

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जनगण के महाकवि थे गुरु रविंद्र नाथ टैगोर (Rabindra Nath Tagore)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

रवीन्द्र नाथ टैगोर का जन्म 07 मई, सन् 1861 ईस्वी को कलकत्ता (कोलकाता), पश्चिम बंगाल में हुआ था। इन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। टैगोर एक प्रतिष्ठित बंगाली ब्राह्मण परिवार से थे। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर था जो एक दार्शनिक और धार्मिक सुधारक थे। तथा इनकी माता का नाम शारदा देवी था जो एक ग्रहणी थी। टैगोर जी अपने माता-पिता की 14 संतानों में सबसे छोटे थे। कम उम्र से ही इन्होंने साहित्य और कला में गहरी रुचि दिखाई।

रवींद्रनाथ टैगोर की प्रारंभिक शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। 11 वर्ष तक की उम्र में उपनयन संस्कार के बाद ये अपने पिता देवेन्द्रनाथ के साथ हिमालय यात्रा पर निकले थे। सितम्बर, सन् 1877 ई. में ये अपने भाई के साथ इंग्लैंड चले गए। वहां इन्होंने अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करते हुए पश्चिमी संगीत सीखा। इंग्लैंड से वापस लौटकर इन्होंने साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया।सन् 1914 ई. में कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें डॉक्टर की मानद उपाधि प्रदान की गई। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा भी इन्हें डी०-लिट्० की उपाधि दी गई। सन् 1913 ई. में इनकी कविता गीतांजलि के लिए इन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

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रविन्द्र नाथ टैगोर भारतीय हिंदी साहित्य में एक प्रसिद्ध कवि, देशभक्त तथा दार्शनिक थे। ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक तथा कविताओं की रचना की। इन्होंने अपनी स्वयं की कविताओं के लिए अत्यंत कर्णप्रिय संगीत का सृजन किया। ये हमारे देश के एक महान चित्रकार तथा शिक्षाविद् थे। सन् 1901 ई. में इन्होंने शान्ति-निकेतन में एक ललित कला स्कूल की स्थापना की, जिसने कालान्तर में विश्व भारती का रूप ग्रहण किया। यह एक ऐसा विश्वविद्यालय रहा जिसमें सारे विश्व की रुचियों तथा महान आदर्शों को स्थान मिला तथा भिन्न-भिन्न सभ्यताओं एवं परंपराओं के व्यक्तियों को एक साथ जीवन यापन करने की शिक्षा प्राप्त हो सकी।

रवींद्रनाथ टैगोर ने सर्वप्रथम अपनी मातृभाषा बंगला में अपनी कृतियों की रचना की। जब इन्होंने अपनी रचनाओं का अनुवाद अंग्रेजी में किया तो इन्हें सारे संसार में बहुत ख्याति प्राप्त हुई। सन् 1913 ई. में इन्हें नोबल पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया। जो कि इनकी अमर कृति गीतांजलि के लिए दिया गया था। गीतांजलि का अर्थ होता है गीतों की अंजली अथवा गीतों की भेंट। यह रचना इनकी कविताओं का मुक्त काव्य में अनुवाद है जो स्वयं टैगोर ने मौलिक बंगला से किया तथा यह प्रसिद्ध आयरिश कवि डब्ल्यू. बी. येट्स के प्राक्कथन के साथ प्रकाशित हुई। यह रचना भक्ति गीतों की है उन प्रार्थनाओं का संकलन है जो टैगोर ने परमपिता परमेश्वर के प्रति अर्पित की थी।

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ब्रिटिश सरकार द्वारा टैगोर  को ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया, परंतु इन्होंने सन् 1919 ई. में जलियांवाला नरसंहार के प्रतिकार स्वरूप इस सम्मान का परित्याग कर दिया। रवींद्रनाथ टैगोर की कविता गहन धार्मिक भावना, देशभक्ति और अपने देशवासियों के प्रति प्रेम से ओत-प्रोत है। टैगोर सारे संसार में अति प्रसिद्ध तथा सम्मानित भारतीयों में से एक हैं। हम इन्हें अत्यधिक सम्मान पूर्वक गुरुदेव कहकर संबोधित करते हैं। यह एक विचारक, अध्यापक तथा संगीतज्ञ रहे। इन्होंने अपने स्वयं के गीतों को संगीत दिया उनका गायन किया और अपने अनेक रंगकर्मी शिष्यों को शिक्षित करने के साथ ही अपने नाटकों में अभिनय भी किया।

आज के संगीत जगत् में इनके रवीन्द्र संगीत को अद्वितीय स्थान प्राप्त है। रवींद्रनाथ टैगोर एक समाजिक योद्धा के गहरे धार्मिक व्यक्ति थी लेकिन अपने धर्म को मानवताका धर्म नाम से वर्णित करना पसंद करते थे। यह पूर्ण रूप से एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्होंने अपने शिष्यों के मस्तिष्क में सच्चाई का भाव भरा। और प्रकृति, संगीत तथा कविता के निकट संपर्क के माध्यम से इन्होंने स्वयं समाज में अपनी तथा शिष्यों की कल्पना शक्ति को सौंदर्य, अच्छाई तथा विस्तृत सहानुभूति के प्रति जागृत किया। साहित्य, संगीत और सामाजिक सुधार के साथ-साथ कला के क्षेत्र में भी रवींद्रनाथ टैगोर के योगदान ने इन्हें भारत और विदेश दोनों में बहुत सम्मान और प्रशंसा दिलाई। इनके कार्यों को उनकी कलात्मक प्रतिभा और मानवीय स्थिति में गहन अंतर्दृष्टि के लिए मनाया जाता है।

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भारतीय संस्कृति पर टैगोर का प्रभाव और एक वैश्विक साहित्यकार के रूप में उनका प्रभाव आज भी महत्वपूर्ण है। 1901 में, टैगोर ने शांतिनिकेतन नामक एक प्रायोगिक स्कूल की स्थापना की, जो बाद में विश्व- भारती विश्वविद्यालय में विकसित हुआ। उनका लक्ष्य एक ऐसा शैक्षणिक संस्थान बनाना था, जो बौद्धिक और कलात्मक दोनों गतिविधियों के महत्व पर जोर देते हुए पश्चिमी और भारतीय परंपराओं का सर्वोत्तम संयोजन करे। टैगोर व्यक्तियों के समग्र विकास में विश्वास करते थे और रचनात्मकता, स्वतंत्रता और प्रकृति के साथ गहरे संबंध को प्रोत्साहित करते थे।

रवींद्रनाथ टैगोर का कलात्मक योगदान साहित्य से भी आगे तक फैला हुआ था। इन्होंने लगभग 2,000 से अधिक गीतों की रचना की, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘रवीन्द्र संगीत’ के नाम से जाना जाता है। ये गीत बंगाल में बेहद लोकप्रिय हैं और क्षेत्र के सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग बन गए हैं। इन्होंने कई नाटक भी लिखे, जिनमें प्रसिद्ध द पोस्ट आफिस और रेड ओलियंडर्स शामिल हैं और उनकी पेंटिंग्स और चित्रों को कला जगत में पहचान मिली। टैगोर के साहित्यिक योगदान के अलावा, ये एक सामाजिक सुधारक भी थे और इन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में नवीनीकरण के लिए कार्य किया। इन्होंने विश्वभर में अनेक विद्यालय और संस्थानों की स्थापना की, जिनमें शांतिनिकेतन (बांगलादेश के विश्वविद्यालय संगठन का एक भाग), विश्वभारती विद्यालय (भारत में) और ब्रत्त्य निकेतन (भारतीय महिला शिक्षा संस्थान) शामिल हैं।

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टैगोर ने महिला शिक्षा को प्रोत्साहित किया और उन्होंने स्त्रियों के उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों की स्थापना की। उनका उद्देश्य था कि महिलाएं स्वतंत्र रूप से अपनी शिक्षा और करियर में प्रगति कर सकें। उन्होंने विवाह के लिए बाल विवाह और सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाया और नारी सम्मान के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए कार्य किया। टैगोर ने सामाजिक अंधविश्वास, जातिवाद और उपेक्षा के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलंद की। इन्होंने अल्पसंख्यकों, दलितों और पिछड़ों के अधिकारों की रक्षा की और सामाजिक उचितता के लिए संघर्ष
किया।

टैगोर के बारे में यह भी महत्वपूर्ण है कि इन्होंने स्वदेशी आन्दोलन का समर्थन किया, जिसमें उनके बंगाली समुदाय का महत्वपूर्ण योगदान था। वह ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय साम्राज्यवाद के विरोध में सक्रिय रहे और देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर काम किया। साहित्य, कला और शिक्षा में रवींद्रनाथ टैगोर के योगदान ने इन्हें न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर
भी अपार सम्मान और पहचान दिलाई। इनके कार्यों का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है और वे दुनिया भर के लोगों को प्रेरित करते रहे हैं। आज, इन्हें भारत में एक राष्ट्रीय कवि और सांस्कृतिक प्रतीक माना जाता है, और इनके जन्मदिन को रवीन्द्र जयंती के रूप में मनाया जाता है, जो बंगाल में एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रम है। इन्हें बंगाली साहित्य का सबसे महान कवि और लेखक माना जाता है।

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कवि रवींद्रनाथ नाथ टैगोर ने सन् 1912 ई. में अपनी काव्य रचना गीतांजलि का अंग्रेजी में अनुवाद किया, तो इन्हें सारे संसार में बहुत ख्याति प्राप्त हुई। सन् 1913 ई. में इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।रविंद्र नाथ टैगोर ने भारत के साथ-साथ कई और देशों का राष्ट्रगान लिखा था। जिसमें भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका है। सिर्फ टैगोर ही ऐसे कवि हैं जिनके द्वारा लिखें राष्ट्रगान को इतना ज्यादा पसंद किया गया कि वहां के देशों ने इसे अपना राष्ट्रगान बना लिया। भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ और बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला’ टैगोर ने लिखी हैं। वहीं बात श्रीलंका की करें तो वहां के राष्ट्रगान का एक हिस्सा भी टैगोर की कविता से लिया गया है।

रविंद्रनाथ टैगोर ऐसा व्यक्तित्व जिसे शब्दों मे, बया करना बहुत ही कठिन है। रविंद्र नाथ टैगोर जिनके बारे मे, कुछ भी लिखना या बताने के लिये, शब्द कम पड़ जायेंगे। ऐसे अद्भुत प्रतिभा के धनी थे, जिनके सम्पूर्ण जीवन से, एक प्रेरणा या सीख ली जा सकती है। वे एक ऐसे विरल साहित्यकारों मे से एक है जो, हर कहीं आसानी से नही मिलते। कई युगों के बाद धरती पर जन्म लेते है और, इस धरती को धन्य कर जाते है। वे एक ऐसी छवि है जो, अपने जन्म से लेकर मत्यु तक, कुछ ना कुछ सीख देकर जाते है। यह ही नही बल्कि, ऐसे व्यक्तित्व के धनी लोग म्रत्यु के बाद भी, एक अमर छाप छोड़ कर जाते है। जिसकी सीख व्यक्ति आज तक ले सकता है। टैगोर रामगढ़ में विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे। किसी कारण से बाद में शांति निकेतन कोलकाता में विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।

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रामगढ़ में विवि की स्थापना हुई होती तो कुमाऊं शिक्षा के हब के रूप में दुनिया के सामने होता। शांति निकेतन ट्रस्ट फॉर हिमालय रामगढ़ के टैगोर टॉप को संग्रहालय व शैक्षणिक संस्थान के रूप में विकसित करने के लिए प्रयासरत है। मंत्री भी टैगोर टाॅप को विकसित करने की मंशा जता चुके हैं। टैगोर प्रकृतिप्रेमी थे। 1927 में वह अल्मोड़ा आए और दास पंडित ठुलघरिया का आतिथ्य स्वीकारा। वह तीन से चार बार अल्मोड़ा आए। गुरुदेव की प्रेरणा से प्रसिद्ध लेखिका गौरा पंत शिवानी को अध्ययन के लिए शांति निकेतन जाने का अवसर प्राप्त हुआ। अल्मोड़ा में टैगोर जिस भवन में रुके, उसे कालांतर में टैगोर भवन नाम से जाना गया। 1901 में पहली बार रामगढ़ पहुंचे। यहां की मनोरम छटा से अभिभूत हुए तो 40 एकड़़ जमीन खरीद ली। जगह को नाम दिया हिमंती गार्डन। बाद में जिसे टैगोर टॉप नाम से जाना गया।

1903 में पत्नी मृणालिनी के देहावसान के बाद टैगोर 12 वर्षीय बेटी रेनुका के साथ रामगढ़ आए। रेनुका टीबी से ग्रस्त थी। हालांकि बाद में बेटी के निधन से वह दुखी हुए। इस दौरान उन्होंने शिशु नामक कविता रची। गीतांजलि की रचना के लिए 1913 में टैगोर को साहित्य का नोबल दिया गया। गीतांजलि के कुछ अंश को उन्होंने रामगढ़ में रचा। उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य है कि गुरुदेव की इन यात्राओं से जुड़ी जगहों और
वस्तुओं को सहेजा नहीं जा सका। आज भी रामगढ़ के टैगोर टॉप में वह बंगला खस्ताहाल हालत में मौजूद है जहाँ टैगोर रहे थे। जहाँ उन्होंने गीतांजलि का कुछ हिस्सा लिखा था। रामगढ़ को फल पट्टी के रूप में देश-दुनिया जानती है। रामगढ़ महादेवी वर्मा और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कर्मभूमि भी है इसे विरले ही लोग जानते हैं।

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सरकारों ने इस विषय में कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली. व्यक्तियों, समूहों के प्रयासों से पहले रामगढ़ को महादेवी वर्मा की कर्मभूमि के तौर पर स्थापित करने के सफल प्रयास हुए और अब इसे गुरुदेव टैगोर की कर्मभूमि के तौर पर सामने लाने के प्रयास रंग लाने लगे हैं। इस मौके पर मुख्यमंत्री ने रामगढ़ विश्व भारती केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रथम परिसर का भी भूमि पूजन किया। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड सरकार द्वारा 45
एकड़ भूमि में विश्व भारती केंद्रीय विश्वविद्यालय के परिसर की स्थापना की औपचारिकता पूरी कर ली गई है। विश्व भारती की स्थापना के लिए प्रथम चरण में 150 करोड़ रूपये की डीपीआर केन्द्र सरकार में स्वीकृति की प्रक्रिया में है। ऐसे में विश्व भारती केंद्रीय विश्वविद्यालय के परिसर की स्थापना होने के बाद उम्मीद है कि गुरुदेव की कर्मभूमि से जुड़ी यादों को संजोने और देश-दुनिया तक पहुंचाने में मदद मिलेगी। विश्व भारती केंद्रीय विश्वविद्यालय उत्तराखंड को भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में स्थापित होने का अवसर मिलेगा वहीं स्थानीय युवाओं के लिए स्वरोजगार के नये अवसर उपलब्ध होंगे। इसके साथ ही यह परिसर राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों एवं शोधार्थियों को भी राह दिखाएगा।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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