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चिपको आंदोलन से हमने कोई सीख ली?

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चिपको आंदोलन से हमने कोई सीख ली?

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

जिस क्षेत्र ने भारत और दुनिया को चिपको दिया, उसी क्षेत्र में अब पेड काटो आंदोलन को बढ़ावा देने वाले कार्यकर्ता हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राज्य ने वन प्रबंधन को विकेंद्रीकृत करने के बजाय केंद्रीकृत करने के लिए उन पर्यावरणीय चिंताओं का हवाला दिया, जो चिपको द्वारा देश में पहली बार सामने आई थीं। अब पूरे उत्तराखंड में, अल्मोडा से लेकर उत्तरकाशी तक, शिकायत है “हमें चिपको से कुछ नहीं मिला।यहां तक ​​कि वन उपज पर हमारे हक-हकूक (पारंपरिक अधिकार और रीति-रिवाज) भी हमसे छीन लिए गए हैं।” डूंगरी-पैंतोली संघर्ष की नायिका कहती हैं, “पहले हम ठेकेदारों से लड़ सकते थे, लेकिन अब सरकार और वन निगम सबसे बड़े ठेकेदार हैं। हम उनसे कैसे लड़ सकते हैं?” पर्यावरण के सवाल के साथ जल, जंगल और ज़मीन का सवाल प्रमुख रूप से जुड़ा है। इन तीनों का संबंध जीवन और अस्तित्व से जुड़ता है

किसी अध्येता के लिए या पर्यावरण पर अध्ययन करने वाले व्यक्ति के लिए चिपको, टिहरी, अप्पिको, झंडूखाल, नर्मदा, नियमगिरी, पास्को आदि पर्यावरण के आंदोलन हो सकते हैं लेकिन वहाँ के लोगों के लिए वह अपने जीवन को बचाने का संघर्ष है। अपने संसाधनों को बचाने का संघर्ष है। इसलिए जल, जंगल, ज़मीन  के साथ जीवन का सवाल भी महत्वपूर्ण है। यह मसला दरअसल पर्यावरण पर अध्ययन की दृष्टि से भी जुड़ा है। पर्यावरण का अध्ययन हम किस दृष्टि से कर रहे हैं ? पूँजीवादी विकास के नज़रिए से या फिर स्थानीय/हाशिए के लोगों की नज़र से ? फिर यह इस नज़र या दृष्टि पर ही निर्भर करता है। यहाँ पर्यावरण को किसी पर्यावरणविद की नज़र से नहीं बल्कि उसके ‘लोकल’ या स्थानीय
स्वरूप के माध्यम से समझने की कोशिश है। जल, जंगल और ज़मीन का संकट हमारी सभ्यता के विकास के साथ गहराता गया। जिसका विकराल रूप आधुनिक समाज में देखा जा सकता है। आधुनिक सभ्यता के लोभ और विकास के नए ढांचों ने पर्यावरण को नज़रअंदाज़ कर अपना लक्ष्य पाने की कोशिश की।

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ब्रिटिश काल में बनी वननीति ने पहले ही स्थानीय लोगों से उनके वन अधिकार छीन लिए थे। धीरे- धीरे भूमि अधिग्रहण क़ानूनों के तहत ज़मीन पर से भी किसानों और गाँवों के लोगों का हक़ छिनता चला गया। बड़े-बड़े बाँधों और कोका-कोला जैसी कंपनियों ने नदियों को ही खरीद लिया या नष्ट कर दिया। स्थानीय जनता का अधिकार बिल्कुल ही ख़त्म कर दिया। इसका सीधा अर्थ था कि स्थानीय लोग या तो इस लूट और ‘विकास’ को चुपचाप देखते और धीरे-धीरे स्वयं ख़त्म हो जाते। हिमालय की तराई में पहली रेल लाइन 1886 में बिछी, लेकिन रेलवे विस्तार के शुरुआती वर्षों से ही रेलवे स्लीपरों की भारी माँग के कारण अंग्रेजों के हाथों भारतीय वनों का विनाश शुरू हो गया था। दरअसल भारत में रेलवे के विस्तार से ही वन व्यवस्था का जन्म हुआ। स्लीपरों की भारी माँग के कारण ही 1864 में जर्मन विशेषज्ञों की मदद से वन विभाग की स्थापना की गई।तब इस वन विभाग का मुख्य काम रेलवे स्लीपर बनाने के लिए मजबूत और टिकाऊ लकड़ी, जैसे टीक, साल, देवदार के जंगलों का पता लगाना था। 1815 से 1878 के बीच तराई भाभर के साल वनों का दोहन हुआ।तब तक ऊपर पहाड़ों के वन करीब-करीब सुरक्षित थे।

इसी बीच 1873 से 1875 में रानीखेत और अल्मोड़ा के वनों की निशान देही की जाने लगी। तब तक वनों पर लोगों के अधिकार सुरक्षित थे गाँव की पूरी अर्थव्यवस्था वन आधारित थी लोगों का जंगलों के साथ गहरा सामंजस्य था। एक ऐसी व्यवस्था बन चुकी थी जो वनों के उपयोग के साथ उनके संरक्षण को भी महत्व देती थी। अनेक पहाड़ी चोटियाँ स्थानीय देवताओं के लिए आरक्षित थी उन पहाड़ों को कोई नहीं छूता था। पेड़ों की पूजा से लेकर उनके प्रति एक आदर था। 1865 में बने वन अधिनियम ने जंगल और मनुष्य केरिश्तों के साथ वनों पर स्थानीय लोगों के अधिकारों में दख़ल देना शुरू किया। 1878 में इसमें संशोधन करके वन उत्पाद प्राप्त करने के ग्रामीणों के अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। 1893 में कुमाऊँ की सारी बेनामी भूमि को जिला संरक्षित वन घोषित कर दिया गया।वनों पर सरकार का जबरन कब्जा हो गया था 1894 में चीड़, देवदार, साल सहित आठ पेड़ों की किस्मों को आरक्षित कर दिया गया।

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आजाद भारत की सरकार ने भी नीतिगत स्तर पर वन और स्थानीय जीवन की पारस्परिकता के बारे में कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। उल्टा वनों के व्यापारिकरण की ब्रिटिश नीति को और कानूनी जामा पहनाकर लागू किया विकास के नाम पर सड़कों के जाल ने जंगलों को नष्ट करने में बड़ी भूमिका निभाई. बड़ी-बड़ी कंपनियों को विशाल वन क्षेत्र कई-कई सालों के लिए दे दिए गए । नीतिगत तौर पर आज भी सरकारों के लिए जंगल उपयोग के नहीं बल्कि उपभोग की वस्तु हैं। दुनिया के जंगलों का 10वां हिस्सा पिछले 20 वर्ष में खत्म हुआ है। इसी से पर्यावरण को लेकर सरकारी नीतियों का अंदाजा लगाया जा सकता है जबकि वनों को बचाने के लिए ही आज से लगभग 48 वर्ष पहले चिपको जैसा आंदोलन हुआ था। उस आंदोलन से हमने कोई सीख ली होती तो आज पूरी दुनिया घनघोर पर्यावरणीय संकट से नहीं जूझ रही होती।

वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ के अनुसार, दुनिया में हर वर्ष एक करोड़ 80 लाख एकड़ के बराबर जंगलों का सफाया हो जाता है। 2019 में ‘भारतीय वन सर्वेक्षण’  द्वारा जारी ‘भारतीय वन’  स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, अभी की स्थिति में देश में वनों एवं वृक्षों से आच्छादित कुल क्षेत्रफल लगभग 8,07,276 वर्ग किमी. है जोकि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.56 प्रतिशत है और बीते दो वर्षों में 2,145 वर्ग किमी. घने वन) गैर-वनों में परिवर्तित हो गए हैं। यह गैर-वनों में परिवर्तित होना हमारी नीतियों को ही दिखाता है।इससे पता चलता है कि हमने चिपको आंदोलन से कुछ सीखा नहीं।आज से तकरीबन 48 साल पहले चिपको आंदोलन ने वही सवाल उठाए थे जो आज पर्यावरणीय संकट के केंद्र में हैं।

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उत्तराखंड के चमोली जिले के अंगू के पेड़ों को जब सरकार ने स्थानीय लोगों को न देकर इलाहाबाद की खेल का सामान बनाने वाली कंपनी साइमन को दे दिया तो, यह सवाल खड़ा हुआ कि खेत जरूरी है की खेल स्थानीय लोग अंगू की लकड़ी से खेत जोतने के लिए हल, जुआ आदि खेती से संबंधित वस्तुएँ बनाते थे लेकिन सरकार ने उनको अंगू के पेड़ देने के बजाए पूरा जंगल खेल का सामान बेट, स्टम्प, आदि बनाने वाली साइमन कंपनी को दे दिया था। इसके बाद अपने जंगलों और खेती के साथ जीवन को बचाने के लिए शुरू हुआ चिपको आंदोलन पूरी दुनिया का ध्यान पर्यावरण की तरफ खींचने में सफल हुआ लेकिन सरकारों के नजरिए में कोई परिवर्तन नहीं आया। आज भी जंगलों का दोहन किसी न किसी रूप में जारी है। जहाँ चिपको आंदोलन ने जंगलों पर स्थानीय लोगों के हक़ को लेकर बहस छेड़ी तो वहीं सरकार की नीतियों व जंगलों के दोहन के खिलाफ भी संघर्ष किया। इसके परिणाम स्वरूप सरकार 1981 में एक कानून लाती है ‘जिसमे 36 वस्तुओं को वन की उपज’ बताया गया था और वन की उपज को ‘बिना अधिकार’ कोई भी नहीं ले सकता था। राज्यों को यह अधिकार दे दिया था कि वह किसी भी क्षेत्र को ‘आरक्षित वन’ करार दे सकते हैं।

इन आरक्षित वनों में 40 प्रकार के कामों को अपराध बताया गया था, जिनमें ‘जंगलो में बिना आज्ञा के प्रवेश’,’ मवेशी चराना’ और ‘घास काटना’ भी शामिल था। यह वनों को लेकर सरकार की नीतियों और समझ की बानगी भर है। जहाँ वह स्थानीय लोगों को तो वन संपदा से वंचित कर देती है और बड़ी-बड़ी कंपनियों को जंगल के जंगल दे रही है। ऐसे में पर्यावरण को लेकर कितना ही चिंतन और मंथन हो जाए लेकिन पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता है। पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा पर्यावरण दोहन और चिपको की मूल चिंताओं के बारे में लिखते हैं, चिपको मौजूदा मान्यताओं के खिलाफ, जो प्रकृति को एक वस्तु और समाज केवल मनुष्यों को मानती है, बगावत है। ये दो सबसे बड़े झूठ हैं। हम इसे चुनौती देते हैं।

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हमारी मान्यता है कि मानव भी दूसरे जीवधारियों की तरह प्रकृति के पुत्र हैं और समाज केवल मनुष्यों का ही नहीं बल्कि सबका है। गलत मान्यताओं के कारण मानव प्रकृति का कसाई बन गया है। आज विकास का अर्थ क्या है ? प्रकृति के खजाने को लूटने का हमें एकाधिकार है। जिस तरह कसाई पशु की हत्या कर सब कुछ एकदम ले लेता है, उसी तरह हम भी प्रकृति से सब कुछ एक झटके में अपने लोभ लालच की तृप्ति के लिए ले लेते हैं। आज भी यही स्थिति है सरकार की प्राथमिकताओं में अगर पर्यावरण होता तो नीतियाँ वन दोहन व स्थानीय लोगों के जीवन के खिलाफ नहीं बनती। जबकि जंगल स्थानीय लोगों के जीवन का हिस्सा होते हैं इसलिए स्थानीय लोगों को नजरअंदाज करके जो भी नीतियाँ बनेंगी वह पर्यावरण के खिलाफ ही होंगी।आज भी यदि हमारी नीतियां पर्यावरण के अनुरूप नहीं हुई तो सारा लेखन, चिंतन, दिवस सब ज़बानी खर्च ही साबित होगा। उत्तराखंड में  हरे पेड़ों के कटान के तीन मामले इस समय सुर्खियों में हैं।

सबसे पहला और बड़ा मामला तो कॉर्बेट में 6000 से ज़्यादा हरे पेड़ काटे जाने का है। इस मामले की जांच नैनीताल हाईकोर्ट ने सीबीआई को सौंप दी है।ज़ाहिर तौर पर सरकार कोर्ट को संतुष्ट नहीं कर पाई कि वह निष्पक्ष रूप से जांच कर रही है दूसरा मामला देहरादून के विकासनगर और उत्तरकाशी के पुरोला में अवैध रूप से पेड़ों के कटान और उनकी तस्करी से जुड़ा है. बताया जा रहा रहै कि करीब तीन साल से संरक्षित प्रजाति के देवदार और कैल जैसे हरे पेड़ काटे जा रहे थे। वन विभाग की जांच में अब तक 4000 से ज़्यादा शहतीरें और 550 से ज़्यादा फट्टे बरामद हो चुके हैं। काटी गई लकड़ी को हिमाचल और यूपी के रास्ते तस्करी किए जाने की बात भी कही जा रही है। तीसरा मामला विकास के नाम पर हरे पेड़ों की बलि देने का है देहरादून-दिल्ली एक्सप्रेसवे के लिए 11000 पेड़ काटे गए थे, देहरादून शहर के अंदर जोगीवाला सहस्रधारा सड़क के चौड़ीकरण के लिए 2000 से ज़्यादा पेड़ों की बलि दी गई और अब देहरादून-शिमला एक्सप्रेसवे के लिए 6000 से ज़़्यादा पेड़ काटे जा रहे हैं। ये तीन अलग-अलग तरह के मामले हैं लेकिन इनका परिणाम एक हैलालच और अंधे विकास के नाम पर हरे पेड़ों को काटना।

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दुनिया को चिपको आंदोलन के ज़़रिए पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाने वाले उत्तराखंड में अचानक हरे पेड़ों की ये कत्लगाहें क्यों खुल गई हैं?
याचिकाकर्ता, की ओर से पेश हुए वकील ने तर्क दिया कि उक्त जांच और रिपोर्टों के बाद भी, सरकार ने सरकार और वन विभाग के दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की है उन्होंने अदालतसे मांग की कि इस मामले की व्यापकता और इसमें शामिल गंभीरता को देखते हुए, यह अदालत एक स्वतंत्र केंद्रीय एजेंसी से स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच पर विचार कर सकती है। दूसरी ओर,राज्य की ओर से यह कहा गया कि राज्य ने इस मामले में कुछ अधिकारियों को निलंबित कर दिया है और उन्हें चार्जशीट किया है दो अधिकारियों, तत्कालीन डिवीजनल वन अधिकारी, कालागढ़ टाइगर रिजर्व डिवीजन और तत्कालीन रेंज अधिकारी सोनानदी रेंज और कालागढ़ टाइगर रिजर्व डिवीजन के पाखरू इकाई को गिरफ्तार किया गया है।

इसके अलावा, राज्य की ओर से यह भी कहा गया है कि हालांकि इस मामले की सुनवाई पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का कोई स्टे नहीं है, लेकिन इन याचिकाओं पर कोई आदेश पारित करने से पहले सतर्कता जांच रिपोर्ट का इंतजार करना उचित होगा। इस पर टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने कहा, राज्य के उच्च अधिकारियों के खिलाफ गंभीर आरोपों के मद्देनजर, कुछ अधिकारियों को केवल निलंबित करना और उन्हें चार्जशीट देकर मामले को लंबित रखना किसी भी तरह से ठोस कार्रवाई के दायरे में नहीं आता है। राज्य सरकार के पत्र के माध्यम से एक खुली सतर्कता जांच की है लेकिन, उक्त जांच अभी भी लंबित है।इन परिस्थितियों में, हम एक दर्शक या तमाशाई नहीं रह सकते।

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दरअसल उस सड़क पर दोनों ओर पेड़ हुआ करते थे और चौड़ीकरण के नाम पर उन्हें काट दिया गया था। सड़क किनारे, बिजली के खंभे खड़े थे, कई गुच्छों में बंधे और लटकते तारों के साथ.यही वह विकास है जिसके नाम पर देहरादून और उत्तराखंड की हरियाली को नष्ट किया जा रहा है। ताकि देहरादून दिल्ली के नज़दीक और नज़दीक पहुंच जाए।लेकिन इस विकास से सिर्फ़ दिल्ली तक की दूरी ही कम नहीं हो रही, देहरादून खुद दिल्ली बन रहा हैकंक्रीट का जंगल, प्रदूषित और तेज़ रफ़्तार वाला शहर देहरादून सिर्फ़ अपनी हरियाली नहीं खो रहा, पेड़ों की इन कत्लगाहों में वह दून भी मर रहा है जिसके लिए कभी लोग यहां आया करते थे हरियाली से भरी शांति और सुकून देने वाली घाटी कंक्रीट के कटोरे में बदल रही है।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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