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चुनाव (Elections) से गायब हैं स्थानीय मुद्दे

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चुनाव (Elections) से गायब हैं स्थानीय मुद्दे

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

चुनाव में स्थानीय मुद्दे पूरी तरह से गुम हो गए हैं। ऐसे में प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए क्या कुछ स्थानीय मुद्दे होने चाहिए? उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव 2024 के मतदान का काउंटडाउन शुरू होने में कुछ समय बाकी है। चुनाव आयोग की गाइडलाइन के तहत 17 अप्रैल की शाम 5 बजे के बाद चुनावी शोरगुल में प्रतिबंध लग जाएगा। ऐसे में अब मतदान तक प्रत्याशी केवल डोर-टू-डोर ही चुनाव प्रसार कर सकेंगे। उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर पहले चरण यानी 19 अप्रैल को ही मतदान होना है। जनता ने भी स्थानीय मुद्दों और विकास की योजनाओं के आधार पर किस प्रत्याशी को वोट देना है, ये भी प्रत्याशी तय कर ही लिया होगा।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य अभी भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। हालांकि, हर सरकार इस बात पर जोर देती रही है कि प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किया जाए।लेकिन धरातल पर नहीं उतर पाता। यही वजह है कि प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों से लोग शहरी क्षेत्र में आना चाहते हैं, ताकि उनको स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर मिल सके और रोजगार उपलब्ध हो सके। प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों पर काफी सुकून और शांति का माहौल है। बावजूद, इसके स्वास्थ्य और रोजगार के चलते ग्रामीणों को शहरी क्षेत्र में आना पड़ता है। ऐसे में राज्य सरकार को इस दिशा में काम करने की जरूरत है। स्थानीय स्तर पर ही उनको स्वास्थ्य सुविधा और रोजगार उपलब्ध कराना चाहिए, ताकि उन्हें शहरी क्षेत्र में आने की जरूरत ना पड़े।

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उत्तर प्रदेश से अलग उत्तराखंड राज्य बनाने की मुख्य वजह यही थी कि प्रदेश में विकास के साथ-साथ पर्वतीय क्षेत्रों को संजोया जा सके। लेकिन मौजूदा समय में पलायन एक गंभीर समस्या बनी हुई है, जिसकी मुख्य वजह यही है कि पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों को रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। लेकिन बावजूद इसके बाहर से भी तमाम लोग पहाड़ों की तरफ आए हैं। जमीन खरीदी है और फार्म हाउस और रिसॉर्ट बनाए हैं। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिल रहा है। लेकिन जिस अवधारणा को लेकर अलग उत्तराखंड राज्य की मांग उठी थी, उसका हल नहीं निकल पाया है। दूसरी समस्या है कि जब बाहर के लोग उत्तराखंड में निवेश करते हैं तो उससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है। भू-
कानून का मुद्दा बाहरी लोगों को जमीन खरीदने के लिए रोकता है।तो ऐसे में बाहरी लोग निवेश नहीं कर पाएंगेऔर स्थानीय लोगों को रोजगार भी नहीं मिल पाएगा। लिहाजा, इस विरोधाभास का भी सरकार को ही हल निकालने की जरूरत है।

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केंद्र सरकार किस तरह से काम कर रही है और किन योजनाओं पर काम कर रही है, इसकी जानकारी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मिल जाती है।लेकिन केंद्रीय मंत्री का काम धरातल पर देखने को मिलता है। चुनाव से पहले तमाम मुद्दे और तमाम खामियां भी सरकारों की निकाली जाती हैं। लेकिन जनता समझदार है, ऐसे में जनता जो भी फैसला लेगी, बहुत सोच समझ कर लेगी। मौजूदा राज्य सरकार को और अधिक काम करने की जरूरत है। हालांकि, उत्तराखंड सरकार को अभी 2 साल का ही वक्त बिता है। लिहाजा आने वाले 3  सालों में और अधिक मेहनत करने की जरूरत है। उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर 19 अप्रैल को मतदान होना है। ऐसे में प्रदेश की जनता घरों से बाहर निकले और अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए मतदान करें। कौन सा ऐसा प्रत्याशी है जो आपके क्षेत्र के लिए बेहतर है और बेहतर काम करवा सकता है? उस प्रत्याशी को सबसे पहले आप दिमाग में रखिए।

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इसके अलावा स्थानीय मुद्दे जो भी हैं, वो भी हल होने बहुत जरूरी हैं।अगर हम अपने-अपने क्षेत्र के बारे में सोचेंगे तो इसे प्रदेश और देश में विकास की गति तेज हो पाएगी। इस बात पर भी ध्यान दें कि जिस भी प्रत्याशी को आप संसद भेजेंगे, वह प्रत्याशी सदन में आपकी आवाज उठाने वाला हो। बावजूद केंद्रीय मुद्दों और प्रभावी नारों के अभाव में चुनाव प्रचार में उफान नहीं दिख रहा। शांत मतदाता न तो गारंटी की ओर भरोसे से देख रहे हैं और न ही भरोसे पर गारंटी देने का संकेत दे रहे हैं। न तो किसी मुद्दा विशेष पर देश में बहस छिड़ी है और न ही कोई ऐसा नारा है, जो लोगों की जुबान पर चढ़ा हो। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव मुद्दाविहीन रहा, तो हार-जीत तय करने में स्थानीय मुद्दे अहम भूमिका निभाएंगे। जो दल स्थानीय समीकरण साधेगा, चुनाव प्रबंधन बेहतर होगा, वह बाजी मार लेगा। विश्लेषक इसके लिए पांच राज्यों
के हालिया विधानसभा चुनाव का उदाहरण देते हैं। कर्नाटक और तेलंगाना में भ्रष्टाचार मुद्दा था, जबकि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान करीब-करीब मुद्दाविहीन था। अनेक चिंतित दरअसल भागे हुए लोग हैं।

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पहाड़ से पलायन वहां कायम नए रास्तों का अन्वेषी युवा, महिला या प्रौढ़ वर्ग ही रोक सकता है। संसाधनों की कमी नहीं है, पर लूट और बर्बादी के बदले नियोजित और क्रमबद्ध इस्तेमाल की जरूरत है। इसे 20 लाख के आसपास बेरोजगार युवा कर सकते हैं। उनका आदर्श रेता-बजरी-लकड़ी तथा नशे के कारोबार में फंसे युवा नहीं होने चाहिए। उत्तराखंड के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय दलों का कोई स्थानीय या क्षेत्रीय दर्शन नहीं है। वे उत्तर प्रदेश से भी निर्मम तरीके से पहाड़ों को रौंद रहे हैं। क्षेत्रीय शक्तियां या तो पथभ्रष्ट होती गईं और या अभी उन्हें विकसित होना है। अन्तर्विरोधों के बावजूद सामाजिक आंदोलन अभी मुखर नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे कठिन समय में गहन सामाजिक आंदोलन की जरूरत है, जो समाज और राजनीति, दोनों को बदल सके।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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