हॉकी के स्वर्णिम युग के साक्षी मेजर ध्यानचंद (Major Dhyanchand) हॉकी के जादूगर
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
1905 में जन्मे मेजर ध्यानचंद का असली नाम ध्यान सिंह था और उन्हें ध्यानचंद बैस के नाम से भी जाना जाता था। हॉकी के दिग्गज को उनके साथी लोग ‘चांद’ कहते थे क्योंकि वह अक्सर रात में चांदनी के नीचे, अपनी ड्यूटी के बाद हॉकी की प्रैक्टिस करते थे। फिर वह 16 साल की उम्र में भारतीय सेना में शामिल हो गए। मेजर ध्यानचंद ने अपने पूरे करियर में 1926-1949 तक 185 मैचों में 570 गोल किए हैं। 40 साल की उम्र पार करने के बाद भी, चंद 22 मैचों में 68 गोल करने में सफल रहे।लोगों की भावनाओं को देखते हुए, इसका नाम अब मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार किया जा रहा है। इससे पहले देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नाम पर ‘राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार’ कहा जाता था।
मेजर ध्यानचंद एक भारतीय हॉकी खिलाड़ी थे जिन्हें हॉकी का जादूगर भी कहा जाता है। वे हॉकी में सर्वकालीन महान खिलाड़ियों में से एक हैं। उन्होंने 1928, 1932 और 1936 में तीन ओलंपिक स्वर्ण पदक अर्जित किया था।ध्यानचंद को उनके असाधारण गोल-स्कोरिंग कारनामों के लिए जाना जाता है। मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन को भारत के राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन हर साल खेलों में उत्कृष्टता के लिए सर्वोच्च खेल सम्मान खेल रत्न, अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कारों की घोषणा की जाती है।
1956 में, ध्यानचंद को पद्म भूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। बर्लिन ओलिंपिक में ध्यानचंद के शानदार प्रदर्शन से प्रभावित होकर हिटलर ने उन्हें डिनर के लिए आमंत्रित किया था। जर्मन तानाशाह ने उन्हें जर्मनी की फौज में बड़े पद का लालच दिया और जर्मनी की ओर से हॉकी खेलने को कहा। लेकिन ध्यानचंद ने उसे ठुकराते हुए हिटलर को दो टूक अंदाज में जवाब दिया, ‘हिंदुस्तान ही मेरा वतन है और मैं उसी के लिए आजीवन हॉकी खेलता रहूंगा।’ ध्यानचंद की महानता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वह दूसरे खिलाड़ियों की अपेक्षा इतने गोल कैसे कर लेते हैं। इसके लिए उनकी हॉकी स्टिक को ही तोड़ कर जांचा गया। नीदरलैंड्स में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक तोड़कर यह चेक किया गया था कि कहीं इसमें चुंबक तो नहीं लगी। वह अगस्त 1956 में, एक लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना से रिटायर हुए और उन्हें भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
आपको बता दें कि एक खिलाड़ी, कोच और चयनकर्ता के रूप में मेजर ध्यानचंद ने 1928-1964 तक भारत को 8 में से सात ओलंपिक जीतने में मदद की थी।जब भारतीय टीम का 1932 के ओलंपिक के लिए चयन किया गया तो ध्यानचंद को किसी ट्रायल की भी जरूरत नहीं पड़ी और इस बार उनके भाई रूप सिंह भी टीम में शामिल हुए। भारतीय हॉकी खिलाड़ी ने लॉस एंजिल्स खेलों में केवल दो मैचों में 12 गोल किए और उनके भाई ने उन्हें भी पीछे छोड़ दिया, जिनके 13 गोल थे। ओलंपिक समिति ने लंदन में एक मेट्रो स्टेशन को 2012 के लंदन ओलंपिक के लिए ध्यानचंद स्टेशन के रूप में नामित करके मेजर ध्यानचंद को सम्मानित किया था।
भारतीय डाक विभाग ने भी 3 दिसंबर 1980 को मेजर ध्यानचंद की याद में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया था। उनके जन्मदिन को भारत का राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया है। इसी दिन खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ ने ध्यानचंद को शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया था। देश में ऐसे बहुत से लोग हुए हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में इतनी महारत हासिल की कि उनका नाम इतिहास के पन्नों में सदा के लिए दर्ज हो गया। भारत में हॉकी के स्वर्णिम युग के साक्षी मेजर ध्यानचंद का नाम भी ऐसे ही लोगों में शुमार है। उन्होंने अपने खेल से भारत को ओलंपिक खेलों की हॉकी स्पर्धा में स्वर्णिम सफलता दिलाने के साथ ही परंपरागत एशियाई हॉकी का दबदबा कायम किया। विपक्षी खिलाड़ियों के कब्जे से गेंद छीनकर बिजली की तेजी से दौड़ने वाले ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को हुआ था। उनके जन्मदिन को देश में राष्ट्रीय खेल दिवस के तौर पर मनाया जाता है। ध्यानचंद ने अपने
करियर में 400 से अधिक गोल किए।
भारत सरकार ने ध्यानचंद को 1956 में देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया. इसलिए उनके जन्मदिन यानी 29 अगस्त को भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसलिए जब खिलाड़ियों को भारत रत्न देने का रास्ता खुला तो ध्यानचंद का
दावा किसी भी दृष्टि में सचिन से कम नहीं था। लेकिन कई नाटकीय घटनाक्रम के बाद 2013 में सचिन को तो भारत रत्न से सम्मानित कर दिया गया लेकिन ध्यानचंद का इंतज़ार अब भी जारी है। उनकी याद में हर साल उनके जन्मदिवस (29 अगस्त) को राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है। इस दिन खिलाड़ियों को खेल पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है। उनके नाम पर खेल में आजीवन उपलब्धि के लिए खेल मंत्रालय द्वारा मेजर ध्यानचंद पुरस्कार दिया जाता है। विडंबना देखिए कि उनके नाम पर पुरस्कार बांटे जा रहे हैं लेकिन जिस पुरस्कार और सम्मान के वे हक़दार हैं, उन्हें वह नहीं दिया जा रहा है। 2011 से हर वर्ष खेल दिवस या ध्यानचंद के जन्मदिवस के समय हॉकी जगत और खेल जगत उनके लिए भारत रत्न की मांग उठाता है।
ध्यानचंद के बेटे और स्वयं 1975 की विश्वविजेता भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा रहे अशोक ध्यानचंद 2012 से ही खेल मंत्रालय और सरकार से
अपने पिता को भारत रत्न दिए जाने की मांग कर रहे हैं। लेकिन खेल मंत्रालय और सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। वे ध्यानचंद को महान तो बताते हैं पर शायद भारत रत्न देना नहीं चाहते हैं। मेजर ध्यानचंद को ब्रिटिश सरकार और एडोल्फ हिटलर ने भी सम्मानित किया, लेकिन इसी देश में उन्हें सही सम्मान नहीं मिल पा रहा। उन्होंने भारतीय हॉकी की दुनिया भर में अलग पहचान बनाई थी। ’ ब्रिटिश संसद में मेजर ध्यानचंद को ‘भारत गौरव सम्मान’ से नवाज़ा जाना था। तब वे मीडिया से मुखातिब होते हुए बोले, ‘उन्हें ब्रिटिश संसद में सम्मानित किया जा रहा है. दुनिया उनके फन का लोहा मान रही है, लेकिन उन्हें अपने ही देश में उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। ’ विश्व भर में भारत का नाम रोशन करने वाले हॉकी के उस जादूगर, मेजर ध्यानचंद को कोटि- कोटि नमन
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं,