उत्तराखंड के लोग गटक रहे हैं देश में NO2 शराब - Mukhyadhara

उत्तराखंड के लोग गटक रहे हैं देश में NO2 शराब

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उत्तराखंड के लोग गटक रहे हैं देश में NO2 शराब

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

वन आंदोलन और नशा नहीं रोजगार दो आदि तमाम आंदोलनों में जाने और इसमें नये-नये छन्द जोड़ कर सड़कों पर गाये जाने से यह सम्पूर्ण हिमालयी समाज का आत्मनिवेदन बन गया। 1994 में जब राज्य आंदोलन के दौरान भी यह नारा अक्सर सुनने को मिल जाता था,मंडुवा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में देवी के रूप में हिमालय में नन्दा के अनेक नाम हैं जैसे देवी, काली, कालिंक्या, नन्दा,
शाकम्बरी और चन्द्रवदनी आदि। तदनुसार विभिन्न नामों से शक्ति पीठ बने हैं। इन्हीं नामों की परंपरा में पार्वती नंदा कहलाती है और हर वर्ष भाद्रपद में नन्दाष्टमी राधाष्टमी को नंदाजात, नन्दापाती, नन्दा देवी, आंठूँ इत्यादि नामों से उसके नाम से यात्रा, मेले, खेल, बलि, पूजा इत्यादि अनुष्ठान होते हैं।

हिमालय बचाओ से ऐसा लगता है कि हिमालय बचाओ कह दिया, तो हिमालय बच जाएगा। हिमालय बचाओ का नारा देने वाली उत्तराखण्ड की सरकार ने बच्चों को यह बताने की कोई कोशिश नहीं की आप अपने स्कूल, कालेज, शहर, गाँव, गांव के जंगल,जल स्रोत, खनिज सम्पदा तथा प्राकृतिक सम्पदा को बचा लेते हैं तो हिमालय खुद ब खुद बच जायेगा।मगर यह समझाने से हिमालय बचाओ की जो चेतना यदि विकसित होगी तो उसका कुठाराघात तो राजनीतिज्ञों, नेताओं, नौकरशाहों, माफियाओं, कम्पनियों व तकनीशियनों पर ही होना है, क्योंकि इन लोगों का तो अस्तित्व ही प्राकृतिक सम्पदा को लूट कर हिमालय को बर्बाद करना है। इसीलिए ऐसे लोग इस बात से बचते रहते हैं कि उत्तराखंड का वास्तविक अर्थ लोगों की समझ में आये और उत्तराखंड बचाओ की शपथ का ढकोसला कर उत्तराखंड के रहनुमा बन जाते हैं।

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उत्तराखंड राज्य शराब का आंकड़ों शराब के जाम में डूबा हैं। आंकड़ों के दुनिया में कुछ देश ऐसे भी हैं जहां शराब पीना प्रतिबंधित नहीं है।यहां सिर्फ त्यौहारों पर ही नहीं, बल्कि आम दिनों में भी खूब शराब पी जाती है। भारत में जहां प्रति व्यक्ति सालाना औसतन 4.3 लीटर शराब पी जाती है, वहीं इन शीर्ष दस देशों में एक व्यक्ति साल में औसतन 15 लीटर शराब पीता है। इनमें से ज्यादातर देश यूरोपीय हैं, जहां ठंड सालभर ठंड रहती है और उससे बचने के लिए लोग अल्कोहल का सेवन करते हैं। सबसे कम खपत कुवैत ऐसा देश है जहां शुद्ध अल्कोहल की खपत सबसे कम 0.005 लीटर है।

अल्कोहल प्रेम में भारत का दर्जा दुनिया के अन्य कई देशों से बहुत ऊपर है। विश्व में हमारा खुशहाली सूचकांक गिर रहा है तो शराब की खपत के मामले में तेजी से आगे बढ़ रहा है। 2005 से 2016 के बीच यह खपत दोगुनी हो चुकी है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बताता है कि आनंद प्रमोद के व्यसन का रूप ले लेने से व्यक्ति को मानसिक तनाव, असंतोष और हताशा होती है।हमें इसके कारणों की पड़ताल खुशहाली के विश्व सूचकांक में करनी चाहिए। दुनिया के 155 देशों में हम नीचे खिसककर133वें पायदान पर आ गए हैं, जबकि एक साल पहले हमारी जगह 122वीं थी। यदि आम आदमी बेचैन और परेशान है तो जाहिर है कि वह राहत की तलाश में शराब जैसे नशे का आसान सहारा तलाशता है। उसके लिए पैसा भी चाहिए। भारत जैसे देश में, जहां राज्य सरकारें शाही खर्च पूरे करने के लिए शराब पर भारी-भरकम टैक्स लगाती हों, ऐसे में सस्ती शराब गरीब के लिए वरदान बन जाती है। इसी कमजोरी का फायदा पैसे के लिए जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले उठाते हैं।

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केंद्र सरकार मानती है कि हर साल 2 से 3 हजार के बीच बेकसूर मासूम जहरीली शराब के कारण जीवन से हाथ धो बैठते हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में एक बार फिर वही दारुण त्रासदी दोहराई गई है। दोनों राज्यों में जहरीली सस्ती शराब ने 110 से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया है और लगभग इतने ही बीमार हैं, जिनका इलाज चल रहा है। यह कथित शराब उत्तराखंड के पवित्र क्षेत्र हरिद्वार में बनी थी और एक पारिवारिक उत्सव के मौके पर मेहमानों को परोसी गई थी। कहने की जरूरत नहीं कि हर थोड़े अंतराल पर लगातार होने वाली ऐसी घटनाएं निकम्मे प्रशासन, भ्रष्टाचार और जनविरोधी नीतियों की ओर ध्यान दिलाती हैं, लेकिन हमदर्दी और दिखावटी कानूनी कार्रवाई वाले खोखले उपायों से आगे हम कभी जा ही नहीं पाते। मौत का यह दुष्चक्र बदस्तूर यूं ही जारी रहता है।

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसा ही हादसा 2015 में मुंबई के मालवणी में हुआ था, जिसमें 106 मजदूर सस्ती शराब पीने से जान गंवा बैठे थे। यदि उसी इलाके में जाकर देखा जाए तो वहां उसी तरह सस्ती.नकली शराब अब भी बनते मिल जाएगी। निकम्मे प्रशासन और लचर कानून व्यवस्था की पोल खोलने वाले ऐसे हादसों के तत्काल बाद सरकारी मशीनरी छापे और तलाशी अभियान चलाती है। ज्यादा कोशिश किए बिना ही वह नकली जहरीली शराब बनाने वाले ठिकानों तक पहुंच जाती है और सैकड़ों-हजारों लीटर जानलेवा शराब नष्ट करने की तस्वीरें लेकर वाहवाही के लिए जनता के सामने आ खड़ी होती हैं। अंधाधुंध गिरफ्तारियों के साथ ही कुछ दिन के लिए जहर के ये सौदागर ओझल हो जाते हैं और जैसे ही जनता का रोष कम होने लगता है, वे फिर धंधा शुरू कर देते हैं। हमारे शासकों की कर्तव्यहीनता और गैरजिम्मेदाराना रवैये पर इससे ज्यादा शोचनीय टिप्पणी और क्या हो सकती है!

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इस प्रकरण में सबसे जरूरी सवाल यह है कि सरकारें विभागीय जवाबदेही क्यों तय नहीं करती। अवैध शराब के कारोबार पर निगरानी के लिए सभी प्रदेशों में अलग विभाग कार्यरत हैं। ऐसे हादसों के सामने आने पर इन विभागों से न केवल जवाब तलब किया जाना चाहिए, बल्कि इसके लिए उत्तरदायी अधिकारियों और कर्मचारियों पर दंडात्मक कार्रवाई भी की जानी जरूरी है। प्रशासन करने वाले शायद इन आंकड़ों से खुश हो
सकते हैं कि दुनिया में शराब का सबसे बड़ा उपभोक्ता और तीसरा आयातकर्ता भारत है। हालांकि, देश में बहुत बड़े पैमाने पर कारखानों में शराब का उत्पादन होता है। ऐसे बड़े कारखानों की संख्या 10 है। इनमें तैयार की जाने वाली शराब का 70 प्रतिशत देश में ही सुरा प्रेमियों द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाता है। फिर भी, ज्यादा सस्ता और आसान नशा मुहैया कराने के लिए शराब के नाम पर जहरीली वस्तुओं से तैयार ऐसे पेय बेचे जाना आम बात है। ये ही जानलेवा बन जाते हैं।

देश के 8 राज्य ऐसे हैं, जिनमें ऐसे 70 प्रतिशत हादसों से दो-चार होना पड़ता है। इनमें उत्तर प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना शामिल हैं। ऐसी घटनाएं शराबबंदी वाले गुजरात में भी सामने आ चुकी हैं, हालांकि व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते
हुए इन पर कोई बहुत कारगर कार्रवाई नहीं की गई। राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान अकादमी एम्स की ऋषिकेश शाखा में हो गई। पहले दिन शराब के दुष्प्रभाव तथा प्रमाण पर आधारित राष्ट्रीय नीति की आवश्यकताष् विषय पर चर्चा हुई। इस दौरान देश के बड़े डॉक्टरों ने उत्तराखंड में शराब की खपत के बारे में बताया।

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देश के जाने माने स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने शराब से स्वास्थ्य, समाज और देश पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर व्याख्यान दिए। बताया गया कि कांफ्रेंस में चिकित्सा विशेषज्ञों के सुझावों के आधार पर शराब के बढ़ते प्रचलन को कम करने के लिए राष्ट्रीय नीति का ड्राफ्ट तैयार किया जाएगा, जिसे एनएएमएस केंद्र सरकार को सौंपेगी। तीन दिवसीय कंटीन्यू मेडिकल एजूकेशन सीएमई का अकादमी के अध्यक्ष सीएस भास्करानंद ने औपचारिक शुभारंभ किया। उन्होंने बताया कि शराब पीने से लीवर, आंत, मांसपेशियों, ब्रेन आदि को नुकसान के साथ व्यक्ति डिप्रेशन में पहुंच जाता है।पूरे भारत में प्रति व्यक्ति शराब की खपत के मामले में उत्तराखंड का स्थान दूसरा है। प्रति व्यक्ति शराब की खपत के मामले में उत्तराखंड से आगे केवल दिल्ली है। इस लिहाज से देखा जाये तो भारत में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति शराब की खपत वाल राज्य उत्तराखंड है।

उत्तराखंड के पहाड़ी ज़िलों में शराब के विरोध के बीच आबकारी विभाग की सारी उम्मीदें पहाड़ से ही टिकीं हैं। आंकड़े बताते है कि प्रदेश के
पांच पहाड़ी ज़िलों में की खपत उम्मीद से ज्यादा है, जबकि मैदानी ज़िलों में विदेशी शराब के दिवाने थोड़े कम हैं। इस वित्त वर्ष के ख़त्म होने में तीन महीने बचे हैं और आबकारी विभाग अपने रेवेन्यू टारगेट 2650 करोड़ का करीब 70 प्रतिशत ही तय कर पाया है। सरकार के लिए शराब, कमाई का बड़ा जरिया है। लिहाज़ा तमाम विरोध के बीच भी सारा फोकस शराब पर रहता है। आंकड़े बताते हैं कि पांच ज़िले टिहरी, चम्पावत,
रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा शामिल शराब पीने के मामले में अव्वल हैं। अल्मोड़ा में नवंबर तक, पिछले साल के मुकाबले 58 फीसदी ज्यादा शराब गटक ली गई। वहीं अन्य चार ज़िलों में अंग्रेजी शराब के शौकीनों की तादाद 28 से 38 फीसदी के बीच बढ़ी है।

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मैदानी ज़िलों में ऊधमसिंह नगर ज़िले में पिछले साल के मुकाबले 2 फीसदी ही अंग्रेजी शराब की खपत बढ़ी है, जबकि देहरादून में ये 17 फीसदी के आसपास है। दरअसल उत्तराखंड में शराब का विरोध हमेशा स्पॉटलाइट में रहा है। अप्रैल में जब सरकार नई आबकारी पॉलिसी को लेकर आई तो विरोध इस कदर बढ़ गया कि कई जगह दुकानें नहीं खुल पाईं। लेकिन पैसा कमाने को बेताब विभाग ने कुछ गाड़ियों को चलती फिरती दुकान में तब्दील कर लिया जो पहाड़ में अभी भी दिख जाती हैं। देश में सबसे पहला नाम आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का है। वहां एक साल में औसत प्रति व्यक्ति 34.5 लीटर या हर सप्ताह 665 मिली लीटर शराब इस्तेमाल की जाती है। कीमती या सस्ती शराब का सीधा ताल्लुक पीने वाले की  कमाई और उसके रहन-सहन से रहता है। शहर में कुछ बेहतर किस्म की और गांव में देशी शराब को प्रमुखता से
इस्तेमाल किया जाताहै।

देश में सबसे पहला नाम आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का है। वहां एक साल में औसत प्रति व्यक्ति 34.5 लीटर या हर सप्ताह 665 मिली लीटर शराब इस्तेमाल की जाती है। कीमती या सस्ती शराब का सीधा ताल्लुक पीने वाले की कमाई और उसके रहन-सहन से रहता है। प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। जाने-माने गजल गायक पंकज उधास ने कोई दो दशक पहले गाया था कि हुई महंगी बहुत ही शराब के थोड़ी-थोड़ी पिया करोण् लेकिन भारत में हो रहा है ठीक इसका उल्टा। शराब की वजह से भारत में हर साल 2.60 लाख लोगों की मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2005 से 2016 के बीच देश में प्रति व्यक्ति शराब की खपत दोगुनी से भी ज्यादा हो गई। वर्ष 2005 में देश में जहां प्रति व्यक्ति अल्कोहल की खपत 2.4 लीटर थी, वहीं 2016 में यह बढ़ कर 5.7 लीटर तक पहुंच
गई।

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संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अल्कोहल के कुप्रभाव की वजह से जहां हिंसा, मानसिक बीमारियों और चोट लगने जैसी समस्याएं बढ़ी हैं, वहीं कैंसर व ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारियों की चपेट में आने वाले लोगों की तादाद भी बढ़ी है। संगठन ने एक स्वस्थ समाज के विकसित होने की राह में सबसे गंभीर खतरा बनती इस समस्या पर अंकुश लगाने की दिशा में ठोस पहल करने की सिफारिश की है। शराब के ज्यादा सेवन से कम से कम दो सौ तरह की बीमारियां हो सकती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, ज्यादा शराब पीने वाले लोगों में टीबी, एचआईवी और निमोनिया जैसी बीमारियों के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेडरोस आधानोम गेब्रेयेसुस का कहना है, शराब के सेवन की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने और वर्ष 2010 से 2025 के बीच इसकी वैश्विक खपत में 10 फीसदी की कटौती का लक्ष्य हासिल करने के लिए अब इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। वह कहते हैं कि सदस्य देशों को लोगों का जीवन बचाने के लिए अल्कोहल पर टैक्स लगाने और इसके विज्ञापन पर पाबंदी लगाने जैसे रचनात्मक तरीकों पर विचार करना चाहिए। भारत दुनिया में शराब का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। यहां अल्कोहल यानी शराब उद्योग सबसे तेजी से फलने-फूलने वाले उद्योगों में शामिल है। लेकिन आखिर इस तेज रफ्तार विकास की वजह क्या है।

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इस उद्योग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि युवा तबके में शराब के सेवन की बढ़ती लत ही इसके लिए मुख्यरूप से जिम्मेदार है। सूचना तकनीक समेत कई क्षेत्रों में युवाओं को शुरुआती नौकरियों में मिलने वाले भारी पैसों और तेजी से विकसित होती पब संस्कृति ने इसे बढ़ावा दिया है। यह उद्योग काफी लचीला है।शराब के विभिन्न ब्रांडों की कीमतें बढ़ने के बावजूद न तो उनकी मांग कम होती है और न ही लोग पीना कम करते हैं। उल्टे लोग कम कीमत वाले दूसरे ब्रांडों का सेवन करने लगते हैं। एक गैरसरकारी संगठन के प्रमुख दिलीप मोहंती कहते हैं। बंगलुरू,पुणे
हैदराबाद और गुरुग्राम जैसे शहरों में आईटी उद्योग में आने वाली क्रांति और बेहतर वेतन भत्तों की वजह से अब युवाओं के एक बड़े तबके के पास काफी पैसा है। सप्ताह में पांच दिनों की हाड़.तोड़ मेहनत के बाद सप्ताहांत के दो दिन वे अपने मित्रों के साथ इन पैसों को पबों या बार में उड़ाते हैं।

देश में हाल के वर्षों में अल्कोहल निर्माता कंपनियों की भी बाढ़ सी आ गई है। हर महीने बाजार में कोई न कोई नया ब्रांड आ जाता है। मोहंती कहते हैं। ष्देश में शराब की खपत बढ़ने की मुख्यतः दो वजहें हैं, जागरूकता की कमी और उपलब्धता। पढ़ाई, नौकरी या छुट्टियां मनाने के लिए अब हर साल लाखों भारतीय विदेश जा रहे हैं। वहां उनको आसानी से शराब की नई.नई किस्मों की जानकारी मिलती है। इसके अलावा अब हर गली मोहल्ले में ऐसी दर्जनों दुकानें खुलती जा रही हैं। आसानी से उपलब्ध होने और कीमतों के लिहाज से एक बड़ी रेंज के बाजार में आने की वजह से खासकर युवकों के लिए अल्कोहल के ब्रांड का चयन करना आसान है। समाजशास्त्रियों का कहना है कि रहन-सहन के स्तर में सुधार, वैश्वीकरण, आभिजत्य जीवनशैली और समाज में शराब के सेवन को अब पहले की तरह बुरी नजर से नहीं देखा जाना, देश में शराब की बढ़ती खपत की प्रमुख वजहें हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भारत में कुल आबादी के लगभग 30 फीसदी लोग शराब का सेवन करते हैं। उनमें से चार से 13 फीसदी लोग रोजाना शराब पीते हैं।

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सामाजिक संगठनों का कहना है कि युवाओं में पीने के खतरों के प्रति जागरूकता का भारी अभाव है। उनका कहना है कि शराब की बढ़ती खपत आगे चल कर गंभीर समस्याएं पैदा कर सकती हैं। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठनों को मिल कर तेजी से जड़ें जमाती इस सामाजिक बुराई के खतरों के प्रति, खासकर युवा तबके को आगाह करने के लिए जागरूकता अभियान चलाना होगा। इसके साथ ही नाबालिगों को शराब नहीं बेचने के कानूनी प्रावधानों को गंभीरता से लागू करना होगा। ऐसा नहीं हुआ तो आगे चल कर देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी का अपना भविष्य व जीवन हमेशा के लिए शराब के जाम में डूब जाएगा।

उत्तराखंड के पहाड़ी ग्राम्य जीवन का एक खुरदुरा, ठोस और स्थिर व्यक्तित्व। जल, जंगल और ज़मीन को किसी नारे या मुहावरे की तरह नहीं बल्कि एक प्रखर सच्चाई की तरह जीता हुआ। उत्तराखंड में अवैध शराब तस्करी का ग्राफ तेजी से बढ़ता जा रहा है। जिस कारण हर साल सरकार को करोड़ों के राजस्व का नुकसान हो रहा है। प्रदेश में पिछले 8 महीनों में डेढ़लाख से अधिक शराब की बोतलें पकड़ी गई हैं, जिसकी अनुमानित कीमत 4 करोड़ से अधिक आंकी गई है। वहीं, बीते 8 महीनों में कुल 3481 मुकदमे दर्ज कर पुलिस ने 3502 अवैध शराब तस्करों को गिरफ्तार किया है।

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यह लेखक के निजी विचार हैं

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