तबादलों (Transfers) के राजनीतिकरण ने शिक्षकों की जवाबदेही!
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
तीन दशकों से अधिक के इंतजार के बाद आयी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की कार्य- योजना तैयार की गई है। इसमें कई उत्कृष्ट प्रस्तावों को शामिल किया गया है जो वर्तमान परिदृश्य के हिसाब से बेहद प्रासंगिक हैं। 3-6वर्ष की आयु वर्ग के नौनिहालों के लिए अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन, तीसरी कक्षा तक पहुंचने से पहले छात्रों को आधारभूत शिक्षा और संख्या ज्ञान सुनिश्चित करना, आर्ट्स, कॉमर्स और साइंस वर्ग के बीच की स्पष्ट विभाजन रेखा को अप्रासंगिक बनाना और नियमित स्कूली शिक्षा के साथ साथ रोजगार परक शिक्षा प्रदान करने की योजना आदि ऐसे ही कुछ उत्कृष्ट प्रावधान हैं जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को वर्तमान के हिसाब से बेहद प्रासंगिक बनाते हैं।हालांकि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के मुद्दे की अनदेखी इस शिक्षा नीति की सफलता की संभावनाओं को संदिग्ध बनाती है।
दरअसल, यही वह कड़ी है जिसने शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) के तहत किये गये सतत एवं समग्र मूल्यांकन के प्रावधान को असफल बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। कक्षा 8वीं तक छात्रों के प्रदर्शन का लगातार मूल्यांकन करने और उनकी कमजोरियों को दूर करने के प्रयास वाले प्रावधान को छात्रों को आवश्यक रूप से अगली कक्षा में प्रमोट करने के प्रावधान में तब्दील कर दिया गया। इस प्रकार जवाबदेही
शिक्षकों के कंधों से हटाकर छात्रों के कंधों पर डाल दिया गया। परिणाम वहीं हुआ जिसकी आशंका थी, नौवीं व 10वीं कक्षा में बड़ी तादात में छात्र फेल होने लगें और साथ ही फेल हो गई आरटीई भी। राज्य सरकारों को यूटर्न लेते हुए च्नो डिटेंशनज् के प्रावधान को समाप्त करना पड़ा या 5वीं कक्षा तक सीमित करना पड़ा। मजे की बात ये है कि वही प्रावधान प्राइवेट स्कूलों पर भी लागू था लेकिन वहां पढ़ने वाले छात्रों के लर्निंग आउटकम पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना कि सरकारी स्कूलों के छात्रों पर पड़ा।
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असर रिपोर्ट सहित तमाम सरकारी व गैरसरकारी संस्थानों द्वारा किये गए शोध इसकी पुष्टि करते हैं। ऐसा क्यों हुआ? यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन की प्रो. गीता गांधी किंगडन के मुताबिक सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की तुलना में कम योग्यता (डिग्री/प्रशिक्षण के आधार पर) वाले निजी स्कूलों के शिक्षक अपने कार्य को लेकर अधिक जवाबदेह होते हैं। ऐसा निजी स्कूलों के संचालकों की लगातार मॉनिटरिंग और वेतन व प्रोन्नति का छात्रों के प्रदर्शन पर आधारित होना है।निजी स्कूल प्रबंधन व अध्यापक जहां अभिभावकों व छात्रों के प्रति जवाबदेह होते हैं वहीं सरकारी स्कूलों के अध्यापक अधिकारियों व शिक्षा विभाग के प्रति अधिक जवाबदेह होते है। निजी स्कूलों के शिक्षकों का हित अपनी ड्यूटी (शिक्षण) से छात्रों व अभिभावकों खुश रखने में होता है वहीं सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के हितों की पूर्ति शिक्षा विभाग के अधिकारियों को खुश रखने में होता है।
कई शोधों में इस बात का पता चला है कि देश में औसतन प्रतिदिन लगभग 25% अध्यापक अनुपस्थित रहते हैं और उपस्थित अध्यापकों में से भी आधे कक्षा नहीं ले रहे होते हैं। जबकि उनकी प्रोन्नति और वेतन वृद्धि निश्चित समयांतराल पर होती रहती है।आश्चर्य नहीं कि इन्हीं कारणों से सीमित आय व संसाधनों वाले शिक्षा के प्रति थोड़ा बहुत भी जागरुक अभिभावक अपने बच्चे को निशुल्क सरकारी स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (डीआईएसई) के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2010 -11 से 2017-18 के बीच सरकारी स्कूलों के दाखिले में 2.38 करोड़ की कमी हुई जबकि इसी अवधि निजी गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में होने वाले दाखिलों में 2.11 करोड़ की वृद्धि हुई। इन आंकड़ों में गैरमान्यता प्राप्त स्कूलों में होने वाले दाखिलों की संख्या शामिल नहीं है क्योंकि डीआईएसई गैरमान्यता प्राप्त स्कूलों के आंकड़ें एकत्रित नहीं करता है।
छात्रों के द्वारा सरकारी स्कूलों को छोड़कर जाने का परिणाम यह हुआ कि वर्ष 2017-18 में 100 से कम नामांकन वाले स्कूलों की संख्या बढ़कर 68% हो गई जबकि प्रति स्कूल औसत छात्रों की संख्या 45 रह गई। प्रति कक्षा औसतन 5-7 छात्रों के कारण इन स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के केवल वेतन पर होने वाला खर्च प्रतिछात्र प्रतिवर्ष 40 हजार से अधिक हो गया। कई राज्यों में तो स्थिति और भी बदतर हो गई है। डीआईएसई के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2017-18 में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में क्रमशः प्रति स्कूल औसतन 34, 39, 40,63 और 90 छात्र ही बचे थे। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से पहली बार सरकार ने इसे बड़ी समस्या के तौर पर संज्ञान में तो लिया है लेकिन इसके समाधान के लिये उसी पुराने व घिसेपिटे तरीकों जैसे के स्कूलों काएकीकरण, स्कूल भवन का निर्माण, अध्यापकों को अतिरिक्त प्रशिक्षण आदि की बात कही गई है। समाधान के ये तरीके बीमारी के लक्षणों का इलाज करने सरीखा है न कि बीमारी के कारणों को जानकर उसका इलाज करना।
यदि गहराई से पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि शिक्षा के क्षेत्र में खराब परिणामों का सबसे बड़ा कारण सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की जवाबदेही तय न होना है। स्कूलों का एकीकरण और अध्यापकों को अतिरिक्त प्रशिक्षण देने का कोई भी फायदा नहीं होगा यदि वे उसका
इस्तेमाल नहीं करते हैं। राजनेताओं के साथ नेटवर्किंग और संबंध बनाना शिक्षकों के लिए जीवित रहने की एक आवश्यक रणनीति है और इसलिए एक वैध गतिविधि है, जो शिक्षण को पृष्ठभूमि में धकेल देती है। शिक्षकों ने, अपनी ओर से, सिस्टम से खिलवाड़ करने के लिए राज नेताओं तक अपनी पहुंच का इस्तेमाल किया है। तमिलनाडु की कहानी दिल को छू लेने वाली थी हाल ही में स्थानांतरित एक सरकारी स्कूल शिक्षक की तस्वीरें, जो रोते हुए छात्रों से घिरा हुआ था और अपना स्नेह व्यक्त कर रहा था, जिसकी बॉलीवुड सितारों और यहां तक कि शिक्षा सचिव ने भी सराहना में ट्वीट किया था। यह ठीक उसी तरह का छात्र-शिक्षक बंधन है जिसकी आकांक्षा हमारी स्कूल प्रणाली को करनी चाहिए। लेकिन इस हृदयस्पर्शी कहानी के पीछे एक महत्वपूर्ण असफलता छिपी है – स्कूलों का शिक्षकों के तबादलों पर कोई नियंत्रण नहीं है और वे अच्छे शिक्षकों को बनाए रखने के लिए बहुत कम प्रयास कर पाते हैं।उत्तराखंड और राजस्थान की घटनाएं शिक्षक स्थानांतरण प्रणाली के गहरे राजनीतिकरण को उजागर करती हैं।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को तबादले की मांग कर रहे एक सरकारी शिक्षक से विवाद का सामना करना पड़ा था। शिक्षक को गिरफ्तार करने और निलंबित करने के आदेश के साथ विवाद समाप्त हुआ। एक शिक्षक को एक सीएम से इस बारे में बात करने की जरूरत पड़ी कि यह एक नियमित प्रशासनिक मामला क्या होना चाहिए, यह खुद ही बता रहा है कि तबादलों में राजनेता कितने महत्वपूर्ण हैं। यह राजस्थान की हेडलाइन में और भी स्पष्ट था जिसमें हाल ही में शिक्षकों के तबादलों को लेकर दो मंत्रियों के बीच कथित तौर पर झड़प हो गई थी। घटना के बाद सार्वजनिक टिप्पणियों में, शिक्षा मंत्री ने तबादलों से संबंधित मामलों में सभी जन प्रतिनिधियों की मांगों को समायोजित करने की आवश्यकता का उल्लेख किया। भारत में राजनेता-शिक्षक गठजोड़ एक अच्छी तरह से प्रलेखित तथ्य है। अर्थशास्त्री तारा बेटेइल का काम इस
गठजोड़ की जटिल गतिशीलता का एक आकर्षक विवरण प्रस्तुत करता है। शिक्षकों के पास भारी चुनावी शक्ति होती है। वे नियमित आधार पर मतदाताओं से मिलते हैं और अनौपचारिक प्रचारक के रूप में काम कर सकते हैं।
अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मतदान केंद्रों को नियंत्रित करते हैं और इस प्रकार राजनेताओं के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी हैं। शिक्षकों को, अपनी ओर से, तबादलों और पोस्टिंग के लिए राजनेताओं की आवश्यकताहोती है, जो पारस्परिक निर्भरता का एक आदर्श कॉकटेल बनाते हैं। बेटेइले ने 2007 और 2008 के बीच तीन राज्यों (राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक) में 2,340 शिक्षकों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 50% से अधिक शिक्षकों का मानना था कि स्थानांतरण पाने के लिए राजनीतिक संबंध आवश्यक थे।स्थानांतरण बाज़ार के बारे में बेट्टी के दस्तावेज़ में, राजनेता और रिश्वत प्रमुख हैं।
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कर्नाटक में सर्वेक्षण में शामिल लगभग एक तिहाई शिक्षकों ने स्थानांतरण का अनुरोध किया लेकिन केवल आधे का ही स्थानांतरण किया गया। इसके अलावा, स्थानांतरण को अमल में आने में दो महीने से लेकर दो साल तक का समय लग सकता है।50,000 रुपये से लेकर 2,00,000 रुपये तक के कनेक्शन और रिश्वत ने त्वरित हस्तांतरण का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन यह बराबरी का रिश्ता नहीं है. बेटेइले के काम से पता चलता है कि आपसी निर्भरता के बावजूद, शिक्षकों को राजनेताओं द्वारा नियमित रूप से परेशान किया जाता है। इससे शिक्षकों में पीड़ित होने की संस्कृति पैदा हुई है। यह संस्कृति कक्षा में शिक्षकों के अनुभव से सुदृढ़ होती है। दिल्ली के स्कूलों में शिक्षकों पर विंसी डेविस और तान्या कपूर के साथ चल रहा मेरा अपना शोध इस बात पर प्रकाश डालता है कि किस हद तक पाठ्यक्रम पूरा करना, उत्तीर्ण प्रतिशत को अधिकतम करना और उनके मालिकों द्वारा थोपी गई कागजी कार्रवाई, उनके पेशेवर जीवन के शिक्षकों के खातों पर हावी है।
शिक्षकों का तर्क है कि वे उस व्यवस्था के शिकार हैं जिसने उनकी भूमिका को एक क्लर्क तक सीमित कर दिया है। इस चश्मे से देखने पर, कक्षाओं में सीखने का संकट एक टूटी हुई प्रणाली के कारण उत्पन्न संकट है जिसमें शिक्षकों के पास बहुत कम एजेंसी है। इस संस्कृति में शिक्षण के लिए शिक्षकों को जिम्मेदार ठहराना लगभग संभव है। पीड़ित होने की इस संस्कृति और कमजोर एजेंसी की कहानी को उदासीन कार्यबल की सोची-समझी रणनीति के रूप में खारिज करना आसान है। दरअसल, यह तथ्य कि सरकारी स्कूल के शिक्षकों को अक्सर अधिक वेतन मिलता है और वे लगातार अनुपस्थित रहते हैं, इस तथ्य का प्रमाण है। लेकिन इन दृष्टिकोणों को ख़ारिज करना केवल उन्हें सुदृढ़ करने का कार्य करता है। जैसा कि स्थानांतरण और पोस्टिंग का यह विवरण महत्वपूर्ण नीतिगत विफलताओं पर प्रकाश डालता है, जिसने पीड़ित होने की इस संस्कृति को वैध बना दिया है। शिक्षकों को शिक्षण के लिए तभी जवाबदेह ठहराया जा सकता है जब इन संस्थागत विफलताओं से सीधे निपटा जाए।
यदि अध्यापकों की जवाबदेही तय न किये जाने के पीछे राजनैतिक कारण हैं तो यह सही समय है कि हमें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम छात्रों के सीखने के खराब परिणामों पर सिर्फ चिंता ही व्यक्त करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकेंगे। आखिर सरकारी स्कूलों को संचालित करने का सरकार का तर्क बाकी ही क्या रह जाएगा यदि जिनके लिये ये स्कूल चलाए जा रहे हैं उन्हें अंततः शिक्षा हासिल करने के लिये पैसे खर्च करने ही पड़ रहे हैं। जबतक हम शिक्षा के क्षेत्र के खराब परिणामों के वास्तविक कारणों को स्वीकार नहीं करेंगे, उनका समाधान नहीं निकालेंगे, सरकारों और नीति निर्धारकों के द्वारा च्इस बार हम इस समस्या का समाधान ढूंढ लेंगेज् जैसे तर्क और आश्वासन खोखले ही साबित होते रहेंगे जैसे कि पिछले कई दशकों से होते रहे हैं।
आखिर सरकारी स्कूलों को बचाने वाली मानसिकता और विचारधारा का ख़ामियाज़ा और कितनी पीढ़ियों को भुगतना होगा? यह एक कटु सत्य है कि अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने वाले केंद्र व राज्य सरकार के नीति निर्धारकों, अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। इसकी बजाय ये स्कूल सिर्फ गरीब व निम्नआय वर्गों के लिये ही रह गये हैं। अब समय आ गया है कि करदाताओं की गाढ़ी कमाई के पैसों का सदुपयोग किया जाए और ऐसे परिवारों को सरकारी स्कूलों में खर्च होने वाली राशि के बराबर का वाऊचर दे दिया जाए ताकि वे भी अपने पसंद के स्कूलों में जा सकें। यदि सरकारी कर्मचारियों को बच्चों की शिक्षा के लिये २७ हजार रुपये प्रति वर्ष प्रदान किया जा सकते है तो इसका थोड़ा बहुत हिस्सा निम्नआय वर्ग वाले परिवारों को क्यों नहीं दिया जा सकता है?लेखक के अपने विचार हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )