उत्तराखंड में सौर ऊर्जा उत्पादन (solar energy production) की संभावना
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत को जितने कच्चे तेल की जरूरत है, उसके 86 फीसदी से ज्यादा का वह आयात करता है। दरअसल, भारत की कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता का तकरीबन आधा हिस्सा कोयला-आधारित है। ऐसे में, अर्थव्यवस्था की गति बनाए रखने के लिए जरूरी है कि भारत ज्यादा से ज्यादा कोयले का उत्पादन करे, ताकि कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों को ईंधन मिलता रहे। लेकिन इससे होने वाले वायु प्रदूषण का क्या, जो खासकर शहरों के निवासियों के लिए प्राणघातक बना हुआ है। उल्लेखनीय है कि वैश्विक ऊर्जा की कुल मांग का 25फीसदी हिस्सा अगले दो दशकों में भारत से होने की उम्मीद है।जाहिर है कि ये आंकड़े सौर ऊर्जा के क्षेत्र में क्रांति के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं।
भारत के ज्यादातर हिस्सों में साल के तीन सौ दिनों तक धूप रहती है। यही वजह है कि सौर ऊर्जा उत्पादन को 70 गीगावॉट से ज्यादा बढ़ाते हुए भारत सौर ऊर्जा के मामले में दुनिया में चौथे पायदान पर है और 2030 तक इसका 280 गीगावॉट बिजली पैदा करने लक्ष्य भी है। इसमें कतई संदेह नहीं कि वर्तमान क्षमता और इस लक्ष्य के बीच अंतराल बड़ा है। लेकिन यह भी गौर करने लायक है कि राष्ट्रीय सौर ऊर्जा संस्थान द्वारा मूल्यांकित 748 गीगावॉट क्षमता का फकत दसवां हिस्सा ही फिलहाल उपयोग में लाया जा रहा है। बदलाव की क्रांति के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास करने होते हैं।भारत में सौर ऊर्जा की कहानी महज मेगावॉट की महत्वाकांक्षाओं में सिमट गई है, जिनमें रूफटॉप सोलर क्रांति खो-सी गई है।
ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद का अनुमान है कि भारत में आवासीय छतों पर सोलर रूफटॉप के जरिये करीब 637 गीगावॉट बिजली पैदा की जा सकती है। जाहिर है कि हम महत्वपूर्ण लक्ष्यों से चूक रहे हैं। 2015 में सरकार ने रूफटॉप सोलर के लिए 2022 तक 40 गीगावॉट का लक्ष्य रखा था। लेकिन 2023 के अंत में कुल ऊर्जा उत्पादन में रूफटॉप सोलर की हिस्सेदारी 11 गीगावॉट से कुछ ही ज्यादा रही और इसका ज्यादातर हिस्सा चार राज्यों तक सीमित रहा।हाल ही में प्रधानमंत्री ने सूर्योदय योजना (पीएमएसवाई) की घोषणा की, जिसके तहत एक करोड़ घरों की छत पर सौर प्रणाली स्थापित की जाएगी। इस घोषणा के बाद उम्मीद है कि इनकी लागत में भी कुछ कमी आएगी। महत्वपूर्ण यह भी है कि इससे एक करोड़ घरों के अनुभव के आधार पर आगे के विस्तार के लिए नीति को संशोधित करने का भी अवसर मिलेगा।
उल्लेखनीय है कि भारत की जनसंख्या करीब 1.4 अरब है। अगर हम हर परिवार में पांच लोगों का औसत लेकर चलें, तो इसका अर्थ होगा कि देश में करीब 28 करोड़ परिवार हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत में परिवार सवा तीन लाख गीगावॉट से ज्यादा बिजली खर्च करते हैं। यानी प्रति व्यक्ति औसत खपत 1.255 किलोवॉट/ घंटे होगी। स्वाभाविक है कि शहरी परिवारों में बिजली की खपत ज्यादा भी होगी। शहरीकरण की गति, कंप्यूटर/मोबाइल इत्यादि उपकरणों का बढ़ता उपयोग, डिजिटलीकरण इत्यादि को देखते हुए इसमें संदेह नहीं कि बिजली की खपत और मांग, दोनोंबढ़ेंगी।भारत की एक-तिहाई आबादी शहरों में रहती है और इनमें 53 शहर ऐसे हैं, जहां दस लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। कस्बों की संख्या चार हजार है।
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ऊर्जा सुरक्षा की कोई भी पहल मौजूदा और नई इमारतों की छत पर सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना की मांग करती है। गौरतलब है कि यूरोप के देशों ने 2028 तक नई और मौजूदा इमारतों के लिए नवीकरणीय ऊर्जा के घटक को अनिवार्य कर दिया है। रियल एस्टेट (विनिमयन और विकास) अधिनियम और नगरपालिका के नियमों के तहत सरकार सभी नए आवासीय और वाणिज्यिक परिसरों की छतों पर रूफटॉप सोलर संयंत्रों की स्थापना को अनिवार्य कर सकती है। हालांकि रूफटॉप सोलर का विस्तार इस संबंध में बनने वाली नई नीति के स्वरूप पर भी निर्भर करता है। यह न मानने का कोई आधार नहीं है कि लागत व व्यवधान कम करने और प्रदूषण फैलाने वाले जेनरेटर से छुटकारा पाने के लिए लोग प्रभावी व स्वच्छ ऊर्जा का विकल्प चुनना पसंद करेंगे। रूफटॉप सोलर पर दिए जा रहे जोर के पीछे के अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है। निजी स्तर पर देखें तो घरों में, छोटे व्यवसायों को इससे सस्ती बिजली मिलेगी और ब्लैक आउट से मुक्ति मिलेगी। राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो इससे आयातित ईंधन पर निर्भरता कम होगी और अर्थव्यवस्था की गति को बरकरार रखने में भी मदद मिलेगी।
उल्लेखनीय है कि तीन किलोवॉट के रूफटॉप संयंत्र का इंस्टालेशन सहित कुल खर्चा करीब तीन लाख रुपये है, जिसमें 40 फीसदी सब्सिडी का भी प्रावधान है। हालांकि ज्यादा क्षमता का संयंत्र चाहने वाली हाउसिंग सोसाइटीज के लिए यह खर्च जरूर बढ़ जाएगा और उन्हें सब्सिडी भी कम मिलती है। नेट मीटरिंग फॉर्मूले को लेकर, जिसके तहत सौर ऊर्जा से प्राप्त अधिशेष बिजली को ग्रिड को लौटा कर, उससे क्रेडिट
पाया जा सकता है, विद्युत वितरण कंपनियां पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। शायद इसीलिए, महाराष्ट्र विद्युत नियामक आयोग के समक्ष एक सुनवाई में राज्य की बिजली वितरण कंपनी ने तर्क दिया कि छत पर सोलर संयंत्र उपभोक्ताओं द्वारा खुद के उपयोग के लिए लगाया जाता है, इसलिए अधिशेष बिजली के निर्यात को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। इससे भी बुरी बात यह है कि रूफटॉप सोलर के लिए कर्ज पर ब्याज दर दस फीसदी से ज्यादा है। इसके विपरीत यूरोपीय संघ और अमेरिका के निवासियों को इसे लेकर ब्याज दरों में भारी छूट मिलती है।
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इस संदर्भ में प्रगति के लिए जरूरी है कि प्रक्रिया को सरल बनाया जाए। रूफटॉप सोलर लगाने के इच्छुक लोग भी हैरान होते हैं कि इसकी प्रक्रिया घर में इन्वर्टर लगाने जितनी आसान क्यों नहीं है? दरअसल, इसे लगवाने की अनुमोदन प्रक्रिया विलंब और भ्रष्टाचार से ग्रस्त है, जिसमें करीब तीन महीने तक का समय लग सकता है। दरअसल, रूफटॉप सोलर संबंधी किसी भी योजना की कामयाबी के लिए जरूरी है कि उसके लिए माहौल तैयार किया जाए। जैसे एलईडी बल्बों का उपयोग बढ़ाने के लिए सब्सिडी का सहारा लिया गया, यूपीआई का विस्तार उद्यमियों द्वारा बनाए गए समाधानों से हुआ इत्यादि। ऊर्जा क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के एकीकरण की जरूरत है, लेकिन इसके लिए अनुदानों की व्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ पूरी प्रक्रिया को दोष रहित करना और मानसिकता को बदलना भी जरूरी है।
उत्तराखंड के जल स्रोत अपनी क्षमता का प्रदर्शन किए बिना आगे बढ़ गए। अब हालात यह हैं कि उत्तराखंड की प्रस्तावित 30 से अधिक बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। छोटी-बड़ी लगाकर विवाद में उलझी सभी परियोजनाओं की संख्या सौ से अधिक है। सरकारी सर्वेक्षण में उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं से 30 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता आंकी गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इस क्षमता को हासिल कर लिया जाता तो उत्तराखंड के लिए किसी और संसाधन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हालात यह है कि उत्तराखंड वर्तमान में पांच हजार मेगावाट जल विद्युत उत्पादन के आसपास मडरा रहा है। आगे की संभावनाएं लगभग क्षीण हो चुकी हैं। इस स्थिति में सौर ऊर्जा उत्पादन उत्तराखंड के लिए बरदान साबित हो सकती है।
केंद्र और राज्य दोनों में एक ही पार्टी की सरकार होने की वजह से दो साल पहले माना जा रहा था कि सौर ऊर्जा उत्पादन उत्तराखंड में नई ऊंचाइयों को छू जाएगा। इससे उलट पिछले दो सालों में सौर ऊर्जा उत्पादन की संभावनाओं को बहुत बड़ा आघात लगा है। इस संबंध में कुछ आंकड़ों पर नजर डाली जा सकती है। भारत में दिसंबर 2018 तक 26000 मेगावाट क्षमता के सोलर प्लांट की स्थापना की जा चुकी है,
उत्तराखंड में अभी तक 235 मेगावाट सौर ऊर्जा प्लांटों की स्थापना हुई है, जिसमें अधिकांश मैदानी क्षेत्रों में है। उत्तराखंड में लगभग 20000 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता बताई जा रही है, यदि इसका बेहतर उपयोग किया जा सका तो जल विद्युत उत्पादन में हुए नुकसान की भरपाई सौर ऊर्जा उत्पादन से की जा सकती है। उत्तराखंड में सौर ऊर्जा उत्पादन की संभावनाओं के साथ केंद्र सरकार रूफ टाॅप और स्माल सोलर प्लांट के लिए 70 प्रतिशत अनुदान देती है। यूपीसीएल को हर साल 400-450 मेगावाट बिजली सोलर प्लांट से खरीदना अनिवार्य किया गया है। इन हालात में पिछले दो सालों में उत्तराखंड में एक भी नया भी नया प्रोजेक्ट नहीं लगा।
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पिछली राज्य सरकार द्वारा आवंटित किए गए सोलर प्लांट पर भी केंद्र सरकार ने रोक लगा रखी है।केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने की वजह से माना जा रहा था कि ये सभी बाधाएं दूर हो सकेंगी। खासकर पर्वतीय क्षेत्र जो उद्योग विहीन हैं, वहां सोलर प्लांट लगाकर उद्योगों की स्थापना की जा सकेगी। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि सरकार की प्राथमिकता में यह क्षेत्र है ही नहीं। सरकार पर्वतीय क्षेत्र में वहां के मूल निवासियों के लिए पांच मेगावाट तक की क्षमता के सोलर पावर प्लांट लगाने की योजना लेकर आई थी, योजना बनाने वालों को जमीनी ज्ञान न होने की वजह से कई तरह की खामियां उस योजना में हैं, इसके बाद भी न तो उन्हें दूर करने की पहल की गई और न योजना को आगे बढ़ाया गया।मानकों पर ठीक से सोच विचार करना चाहिए। लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )