अतीत का स्वप्न बन कर न रह जाए शुद्ध पेयजल (Pure drinking water)! - Mukhyadhara

अतीत का स्वप्न बन कर न रह जाए शुद्ध पेयजल (Pure drinking water)!

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अतीत का स्वप्न बन कर न रह जाए शुद्ध पेयजल (Pure drinking water)!

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

दर्जनों नदियों का उदगम क्षेत्र होने के बावजूद उत्तराखंड धीरे-धीरे गंभीर पेयजल संकट की ओर बढ़ रहा है। उत्तराखंड के अर्बन एरिया के ही आंकडे अगर उठकर देखें तो मांग के अनुरूप प्रतिदिन 13 करोड़ लीटर से भी ज्यादा पानी की कमी बनी हुई है। पहाडों में अल्मोड़ा तो मैदान में ऊधमसिंह नगर सबसे अधिक जल संकट से जूझ रहे हैं। उत्तराखंड में 917 छोटे-बड़े ग्लेशियरों से दर्जनों बारहमासा बहने वाली नदियां निकलती हैं जो देश के कई राज्यों को भी पीने का पानी देती हैं , लेकिन खुद उत्तराखंड पानी के संकट से जूझ रहा है। उत्तराखंड के अर्बन एरिया के 92 छोटे-बडे़ शहरों को प्रतिदिन 701 मिलियन लीटरर्स पानी चाहिए होता है, लेकिन इन शहरों को कुल 567 मिलियन लीटर पानी ही मिल पाता है। यानि की प्रतिदिन के हिसाब से 133 मिलियन लीटर पानी की कमी बनी हुई है। एक मिलियन लीटर का मतलब होता है दस लाख लीटर पानी। मांग के अनुरूप करीब 13 करोड़ लीटर पानी और चाहिए , जिसकी आपूर्ति नहीं हो पा रही है। इसने गर्मियों के मददेनजर जल संस्थान की चिंता बढ़ा दी है।

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मैदान से ऊधमसिंह नगर और पहाड़ से अल्मोड़ा में सबसे अधिक जल संकट है. ऊधमसिंह नगर में प्रतिदिन 27 मिलियन लीटर पानी की जगह दस मिलियन लीटर पानी ही मिल पा रहा है। हालांकि जल संस्थान की महाप्रबंधक का कहना है कि यहां हैंडपंप और टयूबवेल अधिक होने के कारण अधिकांश आपूर्ति इनसे हो जाती है। अल्मोडा में प्रतिदिन 21 मिलियन लीटर पानी की मांग के अनुरूप महज आठ मिलियन लीटर पानी ही मिल पा रहा है। ठीक इसी तरह देहरादून, हल्द्वानी,पौड़ी, पिथौरागढ़ में भी मांग के अनुरूप पानी उपलब्ध नहीं है।जहां लोगों को पर्याप्त पानी मिल रहा है। जल संकट से निपटने के लिए विभाग चालू योजनाओं को अपग्रेड करने की भी योजना बना रहा है लेकिन, ये अभी प्रस्ताव तक ही सीमित हैं।

बहरहाल, सूखते जल स्रोत, अंडरग्राऊंड वाटर का गिरता स्तर भविष्य में गहराते जल संकट की चेतावनी दे रहा है। दुनिया भर में पानी की समस्या धीरे-धीरे और गहराने लगी है। पिछले 75 वर्षों के दौरान भू-जल स्तर खतरनाक ढंग से करीब 55 फीसदी गिर गया है। इससे शुद्ध पेयजल का संकट बढ़ जाएगा और सबसे ज्यादा असर ग्लोबल साउथ की आबादी पर पड़ेगा।

शोधकर्ताओं का यह अध्ययन नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित हुआ है। इसमें कहा गया है कि स्वच्छ पानी की कमी मनुष्य और पारिस्थितिक तंत्र दोनों के लिए एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है। इसे नजरअंदाज करना ठीक नहीं है।

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अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि हमारी पानी की मांग को काफी हद तक कम करने के साथ-साथ, हमें दुनिया भर में पानी के संकट पर काबू पाने के लिए जल प्रदूषण को खत्म करने पर भी उतना ही अधिक ध्यान देना होगा। अध्ययन के माध्यम से शोधकर्ताओं ने दुनिया भर में खासतौर पर बढ़ते साफ पानी के संकट पर ध्यान केंद्रित किया है।

ग्लोबल साउथ देशों में मुख्य रूप से अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, कैरिबियन, एशिया (इजरायल, जापान, दक्षिण कोरिया को छोड़कर) और ओशिनिया (ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड को छोड़कर) शामिल हैं। दुनिया भर में पानी की कमी के और बढ़ने का अनुमान है। बदलाव और प्रभाव दोनों ही विश्व के सभी क्षेत्रों में समान रूप से नहीं होंगे। उदाहरण के लिए, पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पानी की कमी साल के कुछ ही महीनों होती है। इसके विपरीत विकासशील देशों में पानी की कमी आमतौर पर बहुत ज्यादा होती है और साल में अधिकतर बनी रहती है।

भविष्य में पानी की गुणवत्ता गड़बढ़ा जाएगी। आमतौर पर तेजी से बढ़ती जनसंख्या और आर्थिक विकास, जलवायु परिवर्तन और पानी की बिगड़ती गुणवत्ता के कारण ऐसा हो सकता है। अध्ययन के अनुसार पानी की गुणवत्ता, सुरक्षित पानी के उपयोग के लिए जरूरी होने के बावजूद इस ओर कम ध्यान जाता है।

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पिछले आकलन मुख्य रूप से पानी की मात्रा के पहलुओं पर ही ध्यान आकर्षित करते हैं। लेकिन पानी का सुरक्षित उपयोग गुणवत्ता पर विशेष रूप से निर्भर करता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड की स्थिति सही नहीं है। अगर ऐसा ही हाल रहा तो आने वाले कुछ ही सालों में प्रदेश में जल संकट गहरा सकता है।

प्रदेश में बाकी बचे जलाशयों को बचाने के लिए जल्द ही कोई कड़ा कदम उठाने की आवश्कता है। अगर कोई कड़ा कदम नहीं उठाया गया तो इसका खामियाजा प्रदेशवासियों को ही भुगतना पड़ेगा। जैसे-जैसे गर्मियां आ रही हैं, जंगलों की आग के साथ-साथ उत्तराखंड को एक और गंभीर समस्या का सामना करना पड़ रहा है- वह है पीने के पानी का संकट। उत्तराखंड, बर्फ से ढकी चोटियों और ग्लेशियरों की भूमि है, जहाँ से कई नदियाँ निकलती हैं, जो उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती है। विडंबना यह है कि पहाड़ी राज्य के कई हिस्सों के निवासियों को नियमित रूप से पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। सुरक्षित जल आपूर्ति एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था का आधार होती है, दुर्भाग्यवश विश्व स्तर पर इसे प्रमुखता नहीं दी गई है।

दूषित जल की समस्या से निपटने के लिए हमें बेहतर जल प्रबंधन की नीति अपनानी होगी। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के जरिए हम वर्षा जल संचयन तंत्र का निर्माण कर सकते हैं। यह वर्तमान पीढी का कर्तव्य है कि अपनी भावी पीढ़ी के लिए संसाधनों को संचित रखे। जल प्रदूषण और औद्योगिकीकरण के बढऩे से मानव स्वास्थ्य पर बेहद बुरा असर पड़ रहा है। सम्पूर्ण विश्व में लगभग दो अरब लोग दूषित जल जनित रोगों की चपेट में हैं।

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इसके अलावा प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोग गंदे पानी के इस्तेमाल के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं। पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहे अनियमित वर्षा और सूखे की स्थिति ने भी जल संकट को और बढाने का काम किया है। तमाम प्रयासों के बावजूद हम इस तरह की समस्याओं से पार नहीं पा रहे हैं। इसका एकमात्र कारण यह है कि हम बेहतर नीतियों व तकनीकों का नियमित व पारदर्शी तरीके से इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। देश की कई नदियों का तल वर्षों से साफ नहीं किया गया है, जहां काफी मात्रा में गाद जम चुकी है और थोड़ा भी पानी बढ़ता है तो बाढ़ की स्थिति बन जाती है। नदियों में खतरनाक रसायन युक्त पानी को बिना उपचारित किए छोड़ा जाना नदी प्रदूषण को बढ़ाता जा रहा है। हमें इस तरह की प्रवृत्तियों को रोकना होगा। इतिहास गवाह है कि किसी भी सभ्यता की निर्धारक नदियां होती हैं और जब नदी समाप्त होती है तो वह सभ्यता भी इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाती है। अत: हमें नदियों को प्रदूषित होने से बचाने के प्रयास करने होंगे, ताकि जल संकट की इस स्थिति पर काबू पाया जा सके। आज भी लाखों लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। यह सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे हर नागरिक को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराएं। अब स्वच्छ जल देश का मुख्य चुनावी मुद्दा बनना चाहिए।

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आज देश की बड़ी आबादी स्वच्छ पेयजल से वंचित है, इसका सबसे बड़ा व गंभीर कारण जल जारूकता का नितान्त अभाव है। बिना जल के न फसलें-अनाज-फल व सब्जियाँ पैदा हो सकती है, ना ही खेती-पशुपालन चल सकता है। फिर भी अधिकांश लोग जल के प्रति गंभीरता का भाव नहीं रखते हैं। नई तकनीक से घर-घर जलापूर्ति के कारण परम्परागत जल स्रोत कुआं, बावड़ी, टांका, नाड़ी, खड़ीन, एनीकट, पोखर, तालाब को लोग भूलते जा रहे हैं। आजादी के 75 वर्ष के बाद भी हम हमारी नई पीढ़ी को हमारे संसाधन ( जल, वायु, मृदा,पशुधन ) बचाने का प्रयोगात्मक कार्य करने में विफल रहे हैं। रही-सही कसर दृढ़ इच्छाशक्तिहीन सरकारों ने पूरी कर दी। बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा जैसी आधारभूत सुविधाएं आमजन तक पहुंचाने में सरकारें विफल रही है। अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय और संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास मॉडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है।

बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं।

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अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिशयोक्ति न होगी। पानी का संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टी.वी. समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने अपने रहन-सहन में बदलाव नहीं किया तो आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच ङ्क्षहसा बढऩा आम बात होगी।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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