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देवभूमि उत्तराखंड के शिल्प (crafts) को देश-दुनिया में मिलेगी पहचान 

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देवभूमि उत्तराखंड के शिल्प (crafts) को देश-दुनिया में मिलेगी पहचान 

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड का गठन हुए 23 साल हो चुके हैं लेकिन यहां का हस्तशिल्प अभी तक पहचान का संकट झेल रहा है। यह स्थिति तब है जब यहां के हस्तशिल्पियों व बुनकरों द्वारा तैयार किए गए उत्पादों को पर्यटक काफी पसंद करते हैं। चारधाम यात्रा के दौरान इनसे अच्छी आय भी होती है। अब प्रदेश सरकार इस दिशा में कदम उठा रही है। सरकार द्वारा शुरू की गई एक जनपद दो उत्पाद योजना इस कड़ी में काफी अहम मानी जा रही है। योजना के अंतर्गत सरकार अब ऐसे उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराएगी। बदलते दौर में नई तकनीक से युक्त करने के साथ ही बाजार की मांग के अनुसार इन्हें आकर्षक, प्रभावी व उच्च गुणवत्तापूर्ण भी बनाया जाएगा। हाल में पांच हस्तशिल्प उत्पादों को जीआइ टैग मिलने से इस मुहिम में तेजी आएगी। इसके अलावा विभाग अब अन्य हस्तशिल्प उत्पादों की जीआइ टैगिंग के लिए प्रयास कर रहा है।

राज्य गठन से पहले से ही प्रदेश में पर्वतीय जिलों में मांग पर आधारित सूक्ष्म व लघु उद्योग स्थापित हैं। इनमें लकड़ी के फर्नीचर, हस्तशिल्प, ऊनी शाल, कालीन, ताम्रशिल्प, सजावटी कैंडल, रिंगाल के उत्पाद, ऐपण, लौह शिल्प आदि शामिल हैं। वैश्वीकरण व आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में आयातित तथा मशीन से बने उत्पादों के बाजार में आने से यहां के पारंपरिक हस्तशिल्प उत्पादों के विकल्प कम कीमत पर उपलब्ध होने लगे। नई तकनीक व डिजाइन से बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई। इससे ये उद्योग बंदी के कगार पर आ गए। राज्य गठन के बाद बदली परिस्थितियों में अवस्थापना सुविधाओं के विकास, राज्य में पर्यटकों के अवागमन व आनलाइन मार्केटिंग की सुविधा विकसित होने से राष्ट्रीय
व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथकरघा, हस्तशिल्प व सोवेनियर उद्योग के उत्पादों की ओर रुझान बढ़ा है।

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इसे देखते हुए यह माना गया कि यहां के पारंपरिक उद्योगों को समुचित तकनीकी प्रशिक्षण, डिजाइन विकास, कच्चे माल की उपलब्धता व नवोन्मेष के आधार पर फिर से स्थापित किया जाता है तो इन उत्पादों को बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाया जा सकता है। इससे स्थानीय स्तर पर मूल्य संवर्द्धन के साथ ही रोजगार के अधिक अवसर बन सकते हैं। सचिव उद्योग ने कहा कि उत्तराखंड का हस्तशिल्प देश-दुनिया में मजबूती के साथ खड़ा हो, इसके लिए गंभीरता से प्रयास किए जा रहे हैं। राज्य के स्थानीय उत्पादों को जीआई टैग दिलाने में उत्तराखंड आर्गेनिक बोर्ड की भूमिका काफी अहम रही। बोर्ड के एमडी के अनुसार राज्य के  उत्पादों को जीआई टैग मिलना ऐतिहासिक है। दो दिसंबर को सीएम आवास के मुख्य सेवक सदन में सीएम की अध्यक्षता में होने वाले कार्यक्रम में इस उपलब्धि साझा किया। मालूम हो कि अब तक राज्य के तेजपात, कुमांऊ च्यूरा ऑयल, मुनस्यारी राजमा, उत्तराखंड का भोटिया दन, उत्तराखंड ऐंपण, रिंगाल क्राफ्ट, ताम्र उत्पाद एवं थुलमा को ही जीआई टैग हासिल था।

रिंगाल या रिंगलु, उत्तराखंड के लगभग हर बच्चे से लेकर बड़े तक का रिंगाल से जरूर वास्ता पड़ता है। बचपन में रिंगाल की कलम से लिखना और घर में उससे बनी कई वस्तुओं का उपयोग जैसे सुपु, ड्वारा, कंडी, चटाई, डलिया आदि। बचपन में रिंगाल की कलम से लिखने का बहुत शौक था। हम मानते थे कि बांस से बनी कलम की तुलना में रिंगाल की कलम से अधिक अच्छी लिखावट बनती है। गांव में रिंगाल कम पाया जाता था लेकिन हम किसी भी तरह से रिंगाल ढूंढ ही लेते थे। वैसे रिंगाल या बांस से बनी तमाम वस्तुएं हम हर रोज उपयोग करते थे। आज हम घसेरी में इसी रिंगाल पर चर्चा करेंगे जो पहाड़ों में रोजगार का उत्तम साधन बन सकता है। रिंगाल को बौना बांस भी कहा जाता है। बौना बांस मतलब बांस की छोटी प्रजाति।

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बांस के बारे में हम सभी जानते हैं कि यह बहुत लंबा होता है लेकिन रिंगाल उसकी तुलना में काफी छोटा होता है। बांस जहां 25 से 30 मीटर तक लंबे होते हैं वहीं रिंगाल की लंबाई पांच से आठ मीटर तक होती है। बांस की तरह यह भी समूह में उगता है। यह मुख्य रूप से उन स्थानों पर उगता है जहां उसके लिये पानी और नमी की उचित व्यवस्था हो। यह विशेषकर 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर उगता है। उत्तराखंड में कई स्थानों पर इसकी व्यावसायिक खेती भी होती है। उत्तराखंड में मुख्य रूप से पांच प्रकार के रिंगाल पाये जाते हैं। इनके पहाड़ी नाम हैं गोलू रिंगाल, देव रिंगाल, थाम, सरारू और भाटपुत्र। इनमें गोलू और देव रिंगाल सबसे अधिक मिलता है। उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ के रिंगाल उद्योग को जीआइ टैग (भौगोलिक संकेत) पहचान मिल गई है। सदियों से छुटपुट स्तर पर हो रहे इस उद्योग को पहचान मिल जाने से अब नार्थ ईस्ट के रिंगाल क्राफ्ट को उत्तराखंड से चुनौती मिलेगी।नार्थ ईस्ट के सात राज्यों में रिंगाल से बनी वस्तुओं की न केवल भारत बल्कि
दुनिया भर में पहचान है।

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के तल्ला जौहार, जिला मुख्यालय के नजदीकी बांस, लछैर और भाटीगांव में रिंगाल से कृषि कार्य में उपयोग होने वाले सूप्पे, डोके,  टोकरियां, मोस्टे आदि बनाए जाते हैं। यूं तो जिले के तमाम गांवों में रिंगाल का थोड़ा बहुत काम होता है, लेकिन तल्ला जौहार के नाचनी और होकरा की विशेष पहचान है। यहां सदियों से लोग रिंगाल से बनी वस्तुएं तैयार करते हैं। जिले में होने वाले तमाम मेलों में रिंगाल से बनी वस्तुएं बेचने के लिए लाई जाती हैं। रिंगाल एक लचीली लकड़ी है, जो जंगलों में ही होती है। व्यावसायिक रू प से इसकी खेती नहीं होती है। बेहद पतली इस लकड़ी को मोड़कर किसी भी आकार मेें ढाला जा सकता है। रिंगाल से डोके, मोस्टे, सूप्पे, टोकरियां आदि बनाने का यह ज्ञान परंपरागत है। लोग अपने पूर्वजों से ही इस कला को सीखकर आगे की पीढिय़ों को हस्तांतरित करते हैं। कृषि कार्य में भी प्लास्टिक से बनी वस्तुओं के छा जाने से हाल के वर्षों में रिंगाल उद्योग को नुकसान हुआ है।

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जीआई टैग मिल जाने के बाद अब इस कारोबार के फिर से गति पकडऩे की उम्मीद है। रिंगाल से कृषि उपयोग की वस्तुएं बनाने वाले दीवान राम, भूप राम बताते हैं कि रिंगाल उद्योग को अब नए सिरे से खड़ा किए जाने की जरू रत है। उद्योग विभाग नई पीढ़ी को आधुनिक तकनीक से दैनिक उपयोग की चीजें बनाने का प्रशिक्षण दे तो युवा पीढ़ी इस और आकर्षित होगी और आने वाले दिनों में राज्य में यह रोजगार का एक बड़ा माध्यम बन सकता है। वन अधिनियम के चलते अब जंगलों से रिंगाल निकालना मुश्किल हो गया है। वन पंचायतों में रिंगाल कम है। कड़ी
मेहनत के बाद भी बाजार में पूरा दाम नहीं मिल पाता है। सरकार को लोगों को रिंगाल आसानी से उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनानी होगी।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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