सिस्टम की उदासीनता से भागीरथी विकास प्राधिकरण के इरादे भी सूख गए - Mukhyadhara

सिस्टम की उदासीनता से भागीरथी विकास प्राधिकरण के इरादे भी सूख गए

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सिस्टम की उदासीनता से भागीरथी विकास प्राधिकरण के इरादे भी सूख गए

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

सदानीरा भागीरथी नदी के नाम पर बने भागीरथी नदी घाटी विकास प्राधिकरण के इरादे भी सरकारी तंत्र की उदासीनता के चलते सूख गए हैं। टिहरी बांध परियोजना से पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय तंत्र को पहुंचनेवाले क्षति के आकलन के साथ ही नदियों के संरक्षण के लिए यह प्राधिकरण बनाया गया था, लेकिन अपने उद्देश्यों को लेकर यह एक भी उपलब्धि हासिल नहीं कर सका है।वर्ष 2005 में प्रदेश की नारायण दत्त तिवारी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर देवप्रयाग से गंगोत्री तपोवन तक परियोजना से पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय तंत्र को होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए भागीरथी नदी घाटी विकास प्राधिकरण बनाया था। नदियों में खनन करने, कूड़ा, सीवेज, सड़क निर्माण का मलबा डालने पर भी प्राधिकरण को ही लगाम लगनी थी, लेकिन प्राधिकरण अपनी योजनाओं को आकार नहीं दे पाया।

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उत्तरकाशी और टिहरी जिलों के 10 विकासखंडों के लिए प्राधिकरण के तहत विकास की योजनाएं लागू होनी थीं, मगर राज्य सरकारों की उपेक्षा के चलते प्राधिकरण धरातल पर काम करने के बजाय कार्यालय तक ही सिमट कर रह गया। गठन के 19 साल बाद भी यह उपनल कर्मचारियों के भरोसे चल रहा है। गत वित्तीय वर्ष में तो सरकार की ओर से दी जाने वाली एक करोड़ की वित्तीय सहायता भी नहीं दी गई।प्राधिकरण की सीएम की अध्यक्षता में होने वाली बैठक 2020 से और कार्यपालिका समिति की बैठक सितंबर 2019 से नहीं हुई। हालांकि, प्राधिकरण के उपाध्यक्ष मार्च 2024 तक कुर्सी पर काबिज रहे। प्राधिकरण का केंद्रीय कार्यालय टिहरी में है। इसके अलावा देहरादून और
उत्तरकाशी में भी कार्यालय है। 19 कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनमें देहरादून में 14, टिहरी में दो और उत्तरकाशी में तीन कर्मचारी हैं। सीईओ और वित्त अधिकारी के अलावा सभी कर्मचारी उपनल से तैनात हैं।

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टीएचडीसी ने टिहरी बांध से वर्ष 2006 से मार्च 2020 के बीच उत्तराखंड सरकार को 2,800 करोड़ की धनराशि बतौर रॉयल्टी दी। अधिनियम के अनुसार, सरकार को रॉयल्टी की 20 फीसदी धनराशि करीब 560 करोड़ रुपये प्राधिकरण को देनी थी। इसके अलावा सरकार को बांध प्रभावित क्षेत्रों के विकास के लिए प्राधिकरण को प्रतिवर्ष 44 करोड़ रुपये देने थे, लेकिन सरकार ने अभी तक यह रकम नहीं दी। बांध प्रभावित कहते हैं कि यदि प्राधिकरण को बजट दिया जाता तो घाटी के विकास के साथ ही रोजगार के नए अवसर मिलते। टिहरी बांध निर्माण को 1990 में भारत सरकार ने परियोजना से होने वाले नुकसान के आकलन के लिए समिति गठन करने की शर्त पर मंजूरी दी। इस पर तत्कालीन उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव की सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में नदी घाटी प्राधिकरण की स्थापना के लिए अधिसूचना जारी की और 1999 में विधानमंडल द्वारा इसके गठन का प्रस्ताव पारित किया गया, थी लेकिन 2000 में अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वर्ष 2005 में उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नदी घाटी प्राधिकरण के तहत ही भागीरथी नदी घाटी विकास प्राधिकरण का गठन किया।

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सीएम को प्राधिकरण अध्यक्ष बनाया गया। साथ ही सरकार द्वारा नामित उपाध्यक्ष, संबंधित क्षेत्र के छह विधायकों और जिला पंचायत अध्यक्ष, गढ़वाल मंडल कमिश्नर को सदस्य बनाया गया। साथ ही केंद्रीय वन एवं पर्यावरण और भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के उपसचिव स्तर के अधिकारी विशेष आमंत्रित सदस्य नामित किए गए।बांध से मिलने वाले सीएसआर का लाभ बांध प्रभावितों को दिया जाए। इसके लिए टीएचडीसी प्रबंधन और मुख्यमंत्री को पत्र भेजा गया है। बांध में पानी ही नहीं रहेगा तो उत्पादन कैसे होगा। इसके लिए नदियों का संरक्षण और तटवती इलाकों में पौधरोपण जरूरी है। इसके लिए टीएचडीसी से मिलने वाले सीएसआर को प्रयोग किया जा सकता है। टिहरी बांध से मिलने वाली कुल रॉयल्टी का 20 फीसदी प्राधिकरण को दिया जाना था। टीएचडीसी से 19 सालों में 2,800 करोड़ रॉयल्टी मिल चुकी है, जिसका 560 करोड़ रुपये प्राधिकरण को दिया जाना था, लेकिन कुछ नहीं मिल रहा। इसके लिए सीएम को पत्र भी भेजा गया है।

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प्राधिकरण को धन नहीं मिलने से उसका उद्देश्य ही समाप्त हो गया है। क्षेत्र के समग्र एवं स्थायी विकास के लिए प्राधिकरण की ओर से योजना तैयार की थी इसकी अब तक वेबसाइट और दो पुस्तिकायें तैयार हो चुकी है। बैठक में बताया गया कि नदी घाटी का संपूर्ण क्षेत्र पर्वतीय और इसका क्षेत्रफल 7809 वर्ग किमी है। जो पूरे प्रदेश का 15 प्रतिशत है भारत विद्युत ऊर्जा का उपभोग करने वाला दुनिया का पाँचवां सबसे
बड़ा देश है। 2015 की भारतीय ऊर्जा सांख्यिकी के अनुसार यह दुनिया की कुल वार्षिक ऊर्जा खपत का लगभग 4.4  प्रतिशत है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के आकङों के अनुसार, विश्व में प्रति व्यक्ति 2873 Kwh की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत अभी भी बहुत कम (1010 Kwh) है। भारत वर्तमान में अपने सकल बिजली उत्पादन का लगभग 63 प्रतिशत तापीय ऊर्जा सयन्त्रों से और लगभग 24 प्रतिशत  जल-विद्युत परियोजनाओं से पैदा करता करता है। ये जल-विद्युत परियोजनायें मुख्यतः हिमालयी क्षेत्र में स्थित हैं।

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उत्तराखंड में ऊर्जा का सबसे बड़ा हिस्सा हाइड्रो-पावर (68%) है। इसके बाद कोयला (12%), गैस (3%), परमाणु (1%) और नवीकरणीय ऊर्जा (16%) से आता है। यहाँ के मौजूद ग्लेशियर एवं बर्फानी नदियों से लगभग 20,000 मेगावाट जल-विद्युत क्षमता उत्पन्न होने का अनुमान है, हालांकि इस क्षमता का लगभग 3600 मेगावाट ही अब तक उपयोग में लाया जा सका है। यह कहा जा रहा है कि इन नदियों की एक बड़ी ऊर्जा क्षमता को अभी भी उपयोग में लाया जाना बाकी है। उत्तराखण्ड में 25 जल-विद्युत परियोजनायें (6 मध्यम एवं 19लघु) 2378 मेगावाट
क्षमता के साथ निर्माण के विभिन्न चरणो में हैं, तथा 21,213 मेगावाट क्षमता वाली 197 जल-विद्युत परियोजनायें विभिन्न नदी घाटियों में प्रस्तावित हैं।

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उत्तरकाशी जिले में धरासू से गंगोत्री के बीच संपूर्ण भागीरथी नदी के जलग्रहण क्षेत्र को पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र के रूप में घोषित किये जाने के बाद भागीरथी नदी घाटी की तीन प्रमुख प्रस्तावित /निर्माणाधीन परियोजनाओं (पाला मनेरी, भैरोंघाटी एवं लोहारीनाग पाला (निर्माणाधीन)) का निर्माण कार्य रोक दिया गया।दरअसल भारतीय हिमालयी क्षेत्र में जल-विद्युत परियोजनाओं का निर्माण विवादास्पद रहा है। ऐसी परियोजनाओं को लेकर अब तक जितने भी अध्ययन सामने आये हैं, उनमें से अधिकांश सामाजिक ताने-बाने में परिवर्तन, जनसांख्यिकी बदलाव, वनों, जैव विविधता, व कृषि भूमि के नुकसान के साथ-साथ स्थानीय लोगों एवं अन्य दूसरे हितधारकों की धारणाओं पर केन्द्रित रहे है।
सर्वाधिक चर्चित रही पंडित एवं ग्रुम्बिन (2012) की रिपोर्ट में मॉडलिंग का उपयोग करते हुए भारतीय हिमालय क्षेत्र में 292 बांधों (निर्माणाधीन और प्रस्तावित) का वर्गीकरण करके अनुमान लगाया था कि इन परियोजनाओं से 54,117 हेक्टेयर वन क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा और 114,361 हेक्टेयर क्षेत्र बांध से संबंधित गतिविधियों के कारण क्षतिग्रस्त हो जाएगा। परिणामस्वरूप वर्ष 2025 तक 22 पुष्पीय पौंधे एवं 7 कशेरुकीय
जन्तु प्रजातियाँ विलुप्त हो जाऐंगी।

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ऐसे अध्ययनों के बावजूद पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन हेतु हालांकि आज भी अधिकाधिक और जमीनी सच्चाई पर आधारित आकङों की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन पर बहुत कहा और सुना जा चुका है, अब सवाल हालातों के सामांजस्य बैठाकर विकास की गति को आगे बढ़ाना है। मुख्य सचिव का ये अन्दाज अनायास नहीं था। दरअसल, पर्यावरणीय सरोकारों की वजह से राज्य की विकास योजनाएँ जिस तरह से लगातार खटाई में पड़ रही है, ये दरअसल उसकी प्रतिक्रिया थी। उत्तराखण्ड में पर्यावरण और विकास के बीच जारी इस द्वंद्व से ही शायद कोई रास्ता निकले।ऐसे में इन प्राकृतिक जल स्रोंतों की महत्ता को समझ इन्हें संरक्षण की काफी जरूरत है, ताकि आने वाली पीढ़ी को भी जल संकट से न जूझना पड़े।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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