पहाड़ों पर चाय (tea) की खेती में है रोजगार के मौके!
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सबसे पहले सन् १८१५ में कुछ अंग्रेज़ यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया जिससे स्थानीय क़बाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे। भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक ने १८३४में चाय की परंपरा भारत में शुरू करने और उसका उत्पादन करने की संभावना तलाश करने के लिए एक समिति का गठन किया। इसके बाद १८३५ में असम में चाय के बाग़ लगाए गए। कहते हैं कि एक दिन चीन के सम्राट शैन नुंग के रखे हुए गर्म पानी के प्याले में, हवा के ज़रिये उड़कर कुछ सूखी पत्तियाँ आकर उसमे गिर गयी, जिनसे पानी में रंग आया और जब उन्होंने उसकी चुस्की ली तो उन्हें उसका स्वाद बहुत पसंद आया। बस यहीं से शुरू होता है चाय का सफ़र। ये बात ईसा से २७३७ साल पहले की है। सन् ३५० में चाय पीने की परंपरा का पहला उल्लेख मिलता है।
सन् १६१० में डच व्यापारी चीन से चाय यूरोप ले गए और धीरे-धीरे ये समूची दुनिया का प्रिय पेय पदार्थ बन गया। उत्तराखंड में रहने वाले लोग अब अपने राज्य में उत्पादित चाय का आनंद ले सकेंगे। इसके पहले राज्य की सारी चाय या तो विदेशों में एक्सपोर्ट कर दी जाती थी या फिर उसे कोलकाता की मशहूर चाय मंडियों में भेज दिया जाता था। जो कुछ कम गुणवत्ता की चाय बचती थी उसे लोकल मार्केट में बेचा जाता था। लेकिन अब उत्तराखंड के लोग अपने यहां की प्रीमियम चाय की चुस्की ले सकेंगे। उत्तराखंड के चंपावत, घोड़ाखाल, गैरसैंण और कौसानी जैसी जगहों पर चाय की खेती होती है। इन चाय बागानों से हर साल लगभग 80 हजार किलो चाय का प्रोडक्शन होता है। उत्तराखंड टी बोर्ड ने राज्य के चाय बागानों में पैदा होने वाली चाय को लोकल मार्केट में बेचने का फैसला किया है। चाय बेचने के लिए एजेंसियों की तलाश भी शुरू हो गई है।
बताया जा रहा है कि उत्तराखंड के इतिहास में 181 सालों बाद ऐसा हो रहा है। उत्तराखंड में लगभग 200 सालों से चाय की खेती हो रही है। टी बोर्ड के मुताबिक अंग्रेजों ने सबसे पहले चंपावत क्षेत्र में चाय की खेती शुरू की थी। जब देश आजाद हुआ तब भी यहां के लोकल निवासियों को उत्तराखंड की चाय नसीब नहीं होती थी। हालांकि 1995 में टी बोर्ड बनाया गया, लेकिन चाय की बिक्री संभव नहीं हो पाई और सिर्फ एक्सपोर्ट का काम होता रहा। नकदी फसल होने के कारण चाय की खेती से यहां के किसानों की आजीविका चलती है और कई सारे लोगों को रोजगार भी मिलता है।
उत्तराखंड के कई क्षेत्रों का मौसम चाय की खेती के लिए काफी अनूकूल है, लेकिन उस स्तर पर अभी इसे बढ़ावा नहीं मिला है जिससे किसानों को भारी आमदनी हो सके। इसलिए चाय की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को आगे आने के लिए कहा जाता है। टी बोर्ड चाय की नर्सरी लगाने के साथ ही उनकी देखभाल करने का काम करता है। हालांकि मार्केट, ट्रांसपोर्टेशन और मजूदरों को उचित पेमेंट न मिलने जैसी कई समस्याएं आती हैं, लेकिन राज्य में खुली चाय बेचने से यहां की लोकल मार्केट को बढ़ावा मिल सकेगा और समस्याओं का कुछ समाधान भी निकल सकता है। यहां के बागान मालिक बताते हैं कि कई सालों से उन्हें नियमित तौर पर किराया भी नहीं मिलता है जिससे उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।
राज्य में पूरी तरह से ऑर्गैनिक तरीके से चाय की खेती की जाती है। जब टी बोर्ड का गठन हुआ था तब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश में आता था।
उसके पहले देश की आजादी के बाद चाय की खेती बंद सी हो गई थी। तत्कालीन सरकार ने चाय की खेती कराने पर जोर दिया और टी बोर्ड बनाया था। अब कई जिलों में चाय की खेती की जाती है। यह सारी खेती टी बोर्ड के अंडर में ही होती है। नैनीताल के घोड़ाखाल, चम्पावत और चमोली के नौटी में जैविक चाय की पत्तियों को प्रोसेस करने के लिए फैक्ट्रियां लगाई गई हैं। उत्तराखंड टी डेवलपमेंट बोर्ड के एक अधिकारी ने
बताया कि राज्य में उत्पादित चाय को बेचने के लिए डिस्ट्रीब्यूटरों की खोज की जा रही है और जल्द ही इस योजना को अंजाम दिया जाएगा।उत्तराखंड में चाय के उत्पादन के लिये उत्तराखंड चाय बोर्ड बनाया गया है। जो आज प्रदेश के 9 जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, पिथौरागढ़, पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी में चाय की खेती को विकसित कर रहा है। जिससे किसानों को बहुत फायदा हो रहा है।इसके साथ ही पर्यटन के क्षेत्र को भी इससे बढ़ावा मिल रहा है, क्योंकि बड़ी तादाद में लोग चाय की खेती को हरियाली की वजह से देखने भी आते हैं।
इसकी शुरुआत अलमोड़ा नगर के लक्ष्मेश्वर मोहल्ले से तब हुई। जब 1835 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने 2000 चाय के पेड़ो को लगाकर इसका परीक्षण किया। इसमें सफलता मिलने पर कौसानी बेरीनाग में चाय के बागानों को विकसित किया गया जहां चाय का उत्पादन होने लगा।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद प्रदेश सरकार ने पर्वतीय क्षेत्रों के किसानों को चाय की खेती करने के लिये प्रेरित किया जो आज 4 हजार से ज्यादा किसानों के लिए रोजगार का साधन बन गया। अब इसको और बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार ने चाय विकास बोर्ड का गठन किया। बोर्ड ने करीब 1500 हेक्टेयर में चाय के पौधे लगाए।आपको बता दे कि बोर्ड किसानों की जमीन को लीज पर लेकर चाय का उत्पादन करता है।
चाय की बागानी से इस वक्त करीब 4000 लोग जुड़े हैं और मौजूदा वक्त में बागानी से चाय का उत्पादन 90 हजार किलो तक हर साल होता है। खास बात ये है कि इसमें फर्टीलाइजर का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। नकदी फसल होने के कारण चाय की खेती से यहां के किसानों की आजीविका चलती है और कई सारे लोगों को रोजगार भी मिलता है। उत्तराखंड के कई क्षेत्रों का मौसम चाय की खेती के लिए काफी अनूकूल
है, लेकिन उस स्तर पर अभी इसे बढ़ावा नहीं मिला है जिससे किसानों को भारी आमदनी हो सके। इसलिए चाय की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को आगे आने के लिए कहा जाता है।
टी बोर्ड चाय की नर्सरी लगाने के साथ ही उनकी देखभाल करने का काम करता है। हालांकि मार्केट, ट्रांसपोर्टेशन और मजूदरों को उचित पेमेंट न मिलने जैसी कई समस्याएं आती हैं, लेकिन राज्य में खुली चाय बेचने से यहां की लोकल मार्केट को बढ़ावा मिल सकेगा और समस्याओं का कुछ समाधान भी निकल सकता है। यहां के बागान मालिक बताते हैं कि कई सालों से उन्हें नियमित तौर पर किराया भी नहीं मिलता है जिससे उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है। राज्य में पूरी तरह से ऑर्गैनिक तरीके से चाय की खेती की जाती है। यहां पर दो तरीके की चाय तैयार की जाती है। उनमें एक है ग्रीन टी और दूसरी ब्लैक टी। यहां की चाय की पत्ती की विदेशों में भी काफी डिमांड है।
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बोर्ड के अधिकारी ने बताया कि अभी तक प्रदेश के 9 जिलों में 1500 हेक्टेयर में चाय लगाई जा रही है। अब इसको और बढ़ाने के लिये राज्य सरकार से बोर्ड को 19 करोड़ दिया मिला है। सरकार का प्लान है इसके तहत प्रवासी मजदूर जो बेरोजगार हैं उनको मनरेगा के तहत इसमें काम दिया जाए और 42 लाख पौधे की नई नर्सरी बनाई जाए। इससे करीब3 हजार प्रवासियों को रोजगार मिलने की उम्मीद है। साथ ही अब उत्तराखंड में बनी इस चाय को बेचने के लिए चार धाम यात्रा के मार्ग में बिक्री केंद्र भी खोले जा रहे हैं। राज्य में उत्पादित चाय को बेचने के लिए
डिस्ट्रीब्यूटरों की खोज की जा रहीहै ऑर्गेनिक चाय स्वाद और सेहत…दोनों के पैमाने पर फिट है।
श्यामखेत में पैदा होने वाली चाय एंटी ऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर है। जो कि बीपी और शुगर जैसी गंभीर बीमारियों को दूर रखने में मदद करती है सेहत के लिए फायदेमंद होने की वजह से विदेशों में इसकी डिमांड तेजी से बढ़ रही है। यहां की चाय को कोलकाता के रास्ते जापान, कोरिया, इंग्लैंड, इटली समेत कई देशों में भेजा जा रहा है देश की आजादी के बाद अंग्रेज तो चले गए, लेकिन चाय यहीं की होकर रह गई। ग्रीन टी एंटीबैक्टीरियल गुणों से भरपूर होती है और यह कोलेस्ट्रोल व ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने में काफी मददगार है। बिना दूध की चाय यानी ब्लैक टी शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली में सुधार करती है। इम्यूनिटी से लड़ने के लिए काली चाय बहुत बढ़िया है। यह बेहद दुखद स्थिति है कि बरसों-बरस से उत्तराखंड के चाय बगानों को संवारने वाले इन मजदूरों की दशा इस कदर दीनहीन और दयनीय है। यह कल्पना से परे
है कि प्रतिदिन तीन सौ रुपये मजदूरी है और महीने में केवल चार दिन ही मजदूरी मिलेगी तो ये मजदूर अपना जीवन यापन किस तरह करेंगे?
लेखक उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।