राष्ट्रीय मुद्दों को खास अहमियत देता है उत्तराखंड का मतदाता (Voter of Uttarakhand)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश लोकसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है।इस छोटे से राज्य में यूं तो महज पांच लोकसभा सीटें हैं, लेकिन राजनीतिक दृष्टिकोण से उत्तराखंड खासा महत्वपूर्ण है। अगर अलग राज्य बनने के बाद से अब तक 23 वर्षों की बात करें तो अमूमन भाजपा और कांग्रेस, ये दो पार्टियां ही चुनावी मुकाबले में आमने-सामने रहती आई हैं। यद्यपि, नैनीताल और हरिद्वार, इन दो सीटों पर सपा व बसपा का थोड़ा-बहुत जनाधार है, लेकिन ये
परिणाम को बहुत अधिक प्रभावित करने की स्थिति में दिखती नहीं हैं। उत्तराखंड की कुल जनसंख्या वर्तमान में लगभग 1.17 करोड़ है, जिसमें मतदाताओं की संख्या 82.43 लाख है। इनमें 42.71 लाख पुरुष व 39.72 लाख महिला मतदाता शामिल हैं।
भूगोल की बात करें तो राज्य की पांच में से दो सीटें पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा पूरी तरह पर्वतीय हैं, जबकि हरिद्वार सीट पूर्णतया मैदानी। टिहरी व नैनीताल सीटों में पर्वतीय व मैदानी, दोनों क्षेत्र शामिल हैं। अगर राज्य के सामाजिक ढांचे का आकलन करें तो जनगणना 2011 के अनुसार राज्य में अल्पसंख्यक लगभग 17 प्रतिशत हैं, जिनमें मुस्लिम 14 प्रतिशत व शेष अन्य हैं।राज्य में अनुसूचित जाति के लोग 18.92 प्रतिशत व अनुसूचित जनजाति के 2.92 प्रतिशत हैं। इन आंकड़ों में थोड़ा-बहुत फेरबदल संभावित है, क्योंकि ये आंकड़े 13 वर्ष पहले के हैं।
साक्षरता के दृष्टिकोण से उत्तराखंड पर्वतीय राज्यों की श्रेणी में अत्यंत समृद्ध कहा जा सकता है। राज्य की कुल साक्षरता दर 78.82 प्रतिशत है। इसमें पुरुष लगभग 87.40 प्रतिशत और महिलाएं 70.70 प्रतिशत साक्षर हैं।सामाजिक ताने-बाने की बात करें तो उत्तराखंड के दोनों मंडलों,
गढ़वाल व कुमाऊं की अपनी-अपनी सांस्कृतिक विशेषताएं हैं। यहां की गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी बोलियों को भले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में अभी स्थान न मिल पाया हो, लेकिन ये भाषा के रूप में समृद्धता लिए हुए हैं। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से राज्य कदम-कदम पर विविधता लिए है। उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से अब तक के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो साफ है कि भाजपा और कांग्रेस ही यहांव्यापक जनाधार और सुदृढ़ सांगठनिक ढांचा रखने वाली पार्टियां हैं।
पिछले 23 वर्षों में यहां पांच विधानसभा चुनाव हुए हैं, जिनमें दो बार कांग्रेस और तीन बार भाजपा को सरकार बनाने का अवसर हासिल हुआ। पहले दो विधानसभा चुनाव में बसपा तीसरी बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी, लेकिन इसके बाद यह पार्टी उतनी सफलता नहीं पा सकी। एकमात्र क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल भी शुरुआत में विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहा, लेकिन फिर नेताओं के व्यक्तिगत हितों के टकराव ने इसे हाशिये पर धकेल दिया। समाजवादी पार्टी किसी भी विधानसभा चुनाव में एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई। अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद चार लोकसभा चुनाव हुए हैं। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को तीन सीटों पर जीत मिली, जबकि एक-एक सीट कांग्रेस और सपा के हिस्से आई।
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वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने सभी पांचों सीटों पर परचम फहराकर भाजपा का सफाया कर दिया। नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण के साथ वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से उत्तराखंड में नमो मैजिक की शुरुआत हुई। तब भाजपा ने कांग्रेस से उसी के अंदाज में बदला लेते हुए पांचों सीटों पर विजय पताका फहराई। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने प्रदर्शन की पुनरावृत्ति करते हुए एक बार फिर पांचों सीटें जीतीं महत्वपूर्ण यह कि इस बार भाजपा प्रत्याशियों की जीत का अंतर पिछली बार की तुलना में अधिक रहा। अब भाजपा ने एक बार फिर पांचों सीटों पर जीत दर्ज करने का लक्ष्य निर्धारित कर आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति बनाई है। साथ ही प्रत्येक सीट पर मतों के अंतर को पांच लाख तक पहुंचाने की भाजपा की कोशिश है। राष्ट्रीय मुद्दों को यदि उत्तराखंड का मतदाता अधिक महत्व देता है तो इसके पीछे कई कारण हैं। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाला यह छोटा सा राज्य चीन और नेपाल की सीमाओं से सटा है।
उत्तराखंड की 658 किलोमीटर सीमा इन दोनों देशों से लगी है। सीमावर्ती प्रथम गांवों के लोग एक प्रकार से देश के प्रहरी की भूमिका भी निभाते आ रहे हैं। ऐसे में वे स्वयं को राष्ट्र की चिंता से जोड़ते ही नहीं, बल्कि अपना शत-प्रतिशत योगदान देने को तत्पर दिखते हैं। यही नहीं, उत्तराखंड सैनिक बहुल प्रदेश है। प्रत्येक तीसरे परिवार का कोई न कोई सदस्य सेना अथवा अर्द्धसैनिक बलों का हिस्सा है। ऐसे में देशभक्ति और राष्ट्रवाद का ज्वार सिर चढ़कर बोलता है। साक्षरता के मामले में भी उत्तराखंड देश के औसत से आगे है।
2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता 78.8 प्रतिशत है, जबकि देश में 74.04 प्रतिशत। राज्य में 87.4 प्रतिशत पुरुष और 70.0 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय विषयों की मतदाता गहराई से पड़ताल करते हैं और उसी के बाद तय करते हैं कि चुनावों में उन्हें अपने मत का उपयोग किन मुद्दों को ध्यान में रखकर करना है। इस लोकसभा चुनाव में भी राज्यवासी इस परंपरा को आगे बढ़ाते दिख रहे हैं। यही कारण है कि राजनीतिक दलों ने अपने चुनाव प्रचार के केंद्र में राष्ट्रीय मुद्दों को प्रमुखता दी है।भाजपा के नजरिये से देखें तो उसने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, नागरिकता संशोधन अधिनियम, सैनिकों के लिए वन रैंक-वन पेंशन, तमाम केंद्रीय योजनाएं, समान नागरिक संहिता की उत्तराखंड की पहल जैसे राष्ट्रीय विषयों को केंद्र में रखा है। दूसरी तरफ, कांग्रेस अग्निपथ योजना में खामियां जैसे विषयों को जनता के बीच रख रही है। इनकी राष्ट्रीय स्तर पर भी खूब चर्चा हो रही है।
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राष्ट्रीय मुद्दों को यदि उत्तराखंड का मतदाता अधिक महत्व देता है तो इसके पीछे कई कारण हैं। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाला यह छोटा सा राज्य चीन और नेपाल की सीमाओं से सटा है। उत्तराखंड की 658 किलोमीटर सीमा इन दोनों देशों से लगी है।सीमावर्ती प्रथम गांवों के लोग एक प्रकार से देश के प्रहरी की भूमिका भी निभाते आ रहे हैं। ऐसे में वे स्वयं को राष्ट्र की चिंता से जोड़ते ही नहीं, बल्कि अपना शत-प्रतिशत योगदान देने को तत्पर दिखते हैं। यही नहीं, उत्तराखंड सैनिक बहुल प्रदेश है। प्रत्येक तीसरे परिवार का कोई न कोई सदस्य सेना अथवा अर्द्धसैनिक बलों का हिस्सा है। ऐसे में देशभक्ति और राष्ट्रवाद का ज्वार सिर चढ़कर बोलता है। साक्षरता के मामले में भी उत्तराखंड देश के औसत से आगे है।लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )