राजनीतिक अवसरवाद (political opportunism) दल बदल का दर्द - Mukhyadhara

राजनीतिक अवसरवाद (political opportunism) दल बदल का दर्द

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राजनीतिक अवसरवाद (political opportunism) दल बदल का दर्द

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत के राजनैतिक परिदृश्य में दल बदलने की घटनाएं कोई नई नहीं हैं। अपने राजनैतिक नफा नुकसान को ध्यान में रखते हुए नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना आम बात है। हाँ यह सही है कि कानून की नज़र में यह अपराध नहीं है और ना ही ये नेता अपराधी, लेकिन नैतिकता की कसौटी पर यह जनता के ही अपराधी नहीं होते बल्कि लोकतंत्र की भी सबसे कमजोर कड़ी होते हैं। क्योंकि अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के चलते ये नेता सालों से जिस राजनैतिक दल से जुड़े होते हैं उसे भी छोड़ने से परहेज नहीं करते यहाँ तक कि कई बार तो अपने राजनैतिक सफर की शुरुआत जिस दल से करते हैं उसे छोड़कर उस विपक्षी दल में चले जाते हैं जिसकी विचारधारा का विरोध वो अब तक करते आ रहे थे। भारतीय राजनीति से विचारों की विदाई हुए बहुत लंबा समय बीत चुका है, इसलिए जब चुनाव में पार्टी का टिकट न मिलने पर कोई अपनी पार्टी छोडता है तो आश्चर्य नहीं होता।

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इस बात पर कोफ्त जरूर होती है कि छह दशक से अधिक समय के लोकतंत्र के अनुभव ने हमारे देश को कहां लाकर खड़ा कर दिया है। यह भी एक विस्मयकारी बात है कि चुनाव की घोषणा होने के बाद लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता का दल बदलने की घटनाओं पर कोई असर नहीं होता। दल बदलने वालों पर अंकुश लगाने या नई पार्टी में शामिल होते ही उसके मनचाहे चुनाव क्षेत्र से टिकट पाने पर किसी तरह की रोक लगाने की कोशिश भी नजर नहीं आती। न अदालतों की ओर से और न ही निर्वाचन आयोग की ओर से। पार्टी के प्रति उसकी विचारधारा या राजनीतिक मूल्यों के कारण प्रतिबद्धता अब केवल हंसी – मजाक की चीज बनकर रह गई है। तात्कालिक राजनीतिक लाभ ही सबसे बड़ी चीज है।

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राजनीतिक अवसरवाद का दूसरा नाम ‘दल बदली’ है, जिसने सिद्धांतवादिता, जन हितैषी राजनीति को बहुत चोट पहुंचाई है। आम लोगों के मन में अधिकतर राजनीतिज्ञों के प्रति कोई श्रद्धा या सम्मान भरी छवि की बजाय तिरस्कार तथा नफरत की भावना पैदा हुई है। मगर किसी प्रांतीय या राष्ट्र स्तरीय चुनावों के समय यह  कुछ ज्यादा ही उभर आती है। जैसा कि कोई चोर, डाकू या राहजन सड़क के किनारे छिपकर किसी शिकार की तलाश कर रहा हो, उसी तरह राजनीतिक रंगत चढ़े अवसरवादी ‘दल बदल’  किसी उचित समय की तलाश में टकटकी लगाए बैठे रहते हैं ताकि उनकी बाजार कीमत अधिकतम लग सके। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में धन तथा नशों का दुरुपयोग, बाहुबलियों का सहारा तथा सभी अनैतिक कार्य करके चुनाव जीतने जैसे काले धब्बों के साथ ‘दल बदली’ भी एक शर्मनाक कलंक सिद्ध हो रही है जिससे कद्रो-कीमतों का नुक्सान हो रहा है।

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इन कार्रवाइयों से उकताए तथा थके लोग एक समय लोकतांत्रिक व्यवस्था की बजाय ‘तानाशाही’ को प्राथमिकता देने लग पड़ते हैं। जैसे देश की आजादी के बाद विभिन्न रंगों की सरकारों द्वारा अमीर हितैषी तथा जन विरोधी नीतियों, भ्रष्टाचार, कुशासन तथा अन्य कथित आर्थिक तंगियों से परेशान हुए आम लोगों की सोच में कई बार ‘अंग्रेजी शासन’की बेहतरी के राग गाने का रुझान पनप उठता है, ऐसे ही लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति नाराजगी तथा अविश्वास के परिणामस्वरूप तानाशाही के प्रति ‘सद्भावना’ पैदा हो जाती है। यह मानसिकता बहुत ही खतरनाक है। प्रश्र किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मर्जी के अनुसार कोई भी राजनीतिक पैंतरा अपनाने या राजनीतिक दल में शामिल होने के अधिकार का नहीं है, मगर जब इस अधिकार के इस्तेमाल के केंद्र में लोगों तथा सारे समाज के हितों की अनदेखी करके निजी हितों का पोषण करने की खातिर दल बदली की जाती है, तब आम आदमी को अपने मन में गहरी टीस तथा दर्द महसूस होता है।

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राजनीति कोई व्यापार या लाभदायक धंधा नहीं बल्कि लोगों के हितों की रक्षा तथा अच्छा समाज बनाने जैसा पवित्र कार्य, जिसे सिरे चढ़ाने के लिए अनेक कष्ट  सहने पड़ते हैं।इन रास्तों के पथिक वे सभी लोग भी हैं जो आजादी के बाद विभिन्न रंगों की सरकारों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ तथा बराबरी, न्यायपूर्ण तथा लूट-खसूट रहित समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत रहकर गौरवमयी कुर्बानियां करते रहे। मगर अफसोस कि मौजूदा दल-बदलुओं के अवसरवादी पैंतरों ने ‘राजनीति’ जैसे ‘पवित्र शब्द’ को लोगों की नफरत का पात्र बना दिया है। यदि वोटर चुनावों के समय ऐसे लोगों को ‘दल बदली’ करने के बावजूद वोटें डाल देते हैं या उनका नेतृत्व मान बैठे हैं तो यह किसी सुहृदय भावना के अंतर्गत नहीं बल्कि लोकतंत्र में हिस्सा लेते हुए मजबूरी में प्रतिनिधि चुनने की ‘बेबसी’अधिक दिखाई देती है। जब कभी भी उचित समय मिलता है, ऐसे अवसरवादी तत्वों को लोग धूल भी चटा देते हैं।

‘दल बदली’ की आंधी के कारण जनहितैषी विचारधारा में लिपटी राजनीति सबसे अधिक घाटे में जा रही है। धनवान तथा मौके का फायदा उठाने वाले खुदगर्ज लोग राजनीति के क्षेत्र में पैर रखने से पूर्व किसी भी दल की राजनीतिक समझ या विचारधारा को जानने की बजाय अधिक कमाई होने की आशा को सम्मुख रखकर राजनीतिक दल का चुनाव करते हैं। यदि उस दल में उनकी दिली तमन्ना पूरी नहीं होती तो वह बिना किसी गहरी सोच या लोकहितैषी नजरिया सामने रखने की बजाय पुराने दल में वापसी या किसी नए दल की शरण लेकर उस नई पार्टी का ‘पट्टा’ डलवा लेते हैं। अपने दल में शामिल करने वाले सज्जन भी उसे अपनी पार्टी के उसूल या उद्देश्य बताने की बजाय पार्टी में बनता सम्मान देने का भरोसा दिलाते हैं।

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क्या राजनीति जनहित के सिद्धांतों के साथ गद्दारी करके केवल ‘सम्मान’ प्राप्त करने की भूख पूरी करने का ही साधन है? जो राजनेता किसी पार्टी के चरित्र की आलोचना करते समय न भाषा की कोई मर्यादा रखते और न ही उस पार्टी के नेताओं के निजी चरित्र को बताते समय घटिया किस्म की गाली-गलौच करने से गुरेज करते हैं, वही नेता ‘दल बदली’ करके उसी पार्टी की प्रशंसा के गीत गाने में शर्म महसूस नहीं करते।  जिस पार्टी ने उसके हर अच्छे-बुरे काम का समर्थन करके उसे सत्ता का हिस्सा बनाकर धन कमाने का पूरा अवसर दिया होता है, उसी दल को पानी पी-पी कर कोसने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते।

शायद संबंधित नेता यह समझता हो कि सारी दुनिया तो अक्ल की अंधी है और समझदारी पर उसका ही अधिकार है, जोकि सबसे बड़ा वहम तथा भ्रम है। लोगों की आंखें, कान तथा दिमाग खुले हैं, वे हर सच-झूठ, गलत-ठीक, वाजिब- गैर वाजिब, उसूल परस्ती तथा मौका परस्ती को जानते तथासमझते हैं। उचित समय की प्रतीक्षा में बेशक वे कुछ समय मौन धारण करके चुपचाप सब कुछ देखते रहते हैं, मगर इतिहास गवाह है कि जब भी उन्होंने अवसरवादी लोगों पर वार किया तो दुनिया की कोई भी ढाल च्दल बदलुओंज् को बेपर्दा होने से बचा नहीं सकी। यदि हम लोकतंत्र को जीवित रखना चाहते हैं तो देश के सभी लोगों को राजनीतिक तथा वैचारिक तौर पर तर्कशील व सूझवान बनाने के साथ-साथ उन्हें लोकतांत्रिक संस्थाओं तथा राजनीतिक पार्टियों में दल- बदलुओं का प्रवेश रोकने के लिए जागरूक करना होगा। केवल अदालती दखल तथा ‘दल बदल विरोधी कानून’ ही नहीं, बल्कि लोक चेतना का उदय ही ‘ दल बदली’  की बीमारी रोकने का असरदार इलाज है।

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उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव से पहले राज्य में दल- बदल का खेल शुरू हो गया है। चुनाव से पहले विपक्षी दलों के एकजुटता के साथ भाजपा की जीत के रथ को रोकने के दावे खोखले साबित हो रहे हैं। अभी हाल ही में आम आदमी पार्टी से सैंकड़ों नेताओं ने भाजपा का दामन थामा, इसके बाद अब विपक्ष खैमे के भी सैंकड़ों नेता में शामिल हो गए हैं। पछुवादून जिला विपक्ष कमेटी की अध्यक्ष समेत पार्टी के तमाम दिग्गज नेताओं ने पक्ष का दामन थाम लिया है। वहीं राज्य में एक तरफ जहां नेताओं का दल बदल हो रहा है कुल मिलाकर लोकसभा चुनाव से पहले राज्य में दलबदल का खेल शुरू हो गया है। पक्ष चुनाव से पहले एक के बाद एक बड़े झटके विपक्षी दलों को दे रही है। ऐसे में सवाल ये है कि एक के बाद एक विपक्ष के नेताओं के पार्टी छोड़ने से विपक्षी दल को कैसे टक्कर दे पाएंगे। क्या चुनाव से पहले पक्ष में शामिल होंगे, क्या राजनीति अब सिर्फ अवसरवादिता का शिकार हो गई है। क्या राजनीति में अब विचारधारा की कोई जगह नहीं ऐसे अनगिनत सवाल अपने जवाब  की तलाश में हैं?

हर सरकार और राजनीतिक दल किसान हित की बात करते हैं लेकिन तभी तक जब तक विपक्ष में होते हैं। लोकतंत्र में संसद सबसे प्रबल और सबसे शक्तिशाली मंच है। दल-बदल विरोधी कानून ने इसमें सभी प्रकार के आंतरिक असहमति का मुंह बंद कर दिया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता सभी को गंभीरता से इस कानून पर फिर से विचार करना चाहिए और इसके लाभों को स्वीकार करते हुए इससे हुए नुकसानों की
जांच करनी चाहिए। प्रतिनिधि लोकतंत्र को दल-बदल विरोधी कानून के हानिकारक प्रभाव से बचाने के लिये कानून का दायरा केवल उन कानूनों तक सीमित किया जा सकता है, जहाँ सरकार की हार से विश्वास की हानि हो सकती है। लेकिन आज का सच तो यही है कि सत्ता के मोह में विचारधारा और सिद्धांत कहीं पीछे छूट जाते है और लोकतंत्र का राजा कहा जाने वाला वोटर देखता रह जाता है। यह बात सही है कि राजनीति में सत्ता प्राप्ति ही अंतिम लक्ष्य होता है लेकिन उस लक्ष्य को हासिल करने का मार्ग सिद्धान्तों और नैतिकता से परिपूर्ण हो इतना प्रयास तो किया ही जा सकता है।

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किंतु आज ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीति में लक्ष्य प्राप्त करने की राह में शुचिता नैतिकता और विचारधारा जैसे शब्द जो कभी सबसे बड़े गुण माने जाते थे, आज सबसे बड़े अवरोधक बन गए हैं। कहने को हमारे देश में बहुदलीय प्रणाली वाला लोकतंत्र है। जनता अनेक दलों में से अपना नेता चुन सकती है लेकिन अवसरवाद की यह राजनीति  लोकतंत्र  को ही कमजोर नहीं कर रही बल्कि कहीं न कहीं आम आदमी को भी बेबस महसूस करा रही है। लोकतंत्र की आत्मा जीवित रहे और आम आदमी का भरोसा उस पर बना रहे इसके लिए आवश्यक है कि राजनीति में अवसरवाद का यह सिलसिला समाप्त हो और हर राजनैतिक दल की मूल विचारधारा में नैतिकता और शुचिता आवश्यक रूप से शामिल हो। आज भारत का लोकतंत्र भविष्य की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख कर पूछ रहा है कि क्या भारत की राजनीति में क्या फिर कभी लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं का दौर आ पाएगा ? लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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