उत्तराखंड की लोकगायिका कमला देवी (Kamla Devi) को मिला मंच
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड की उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की सभ्यता एवं संस्कृति को सहेजने के लिए प्राचीन परम्पराओं को उजागर करने वाले पारम्परिक लोक गीत ही गा रहे हैं। आज हम आपको राज्य की एक और ऐसी ही लोकगायिका से रूबरू कराने जा रहे हैं जो स्टूडियो गायन और रील्स , लाइक , सब्सक्राइब की दुनिया से कोषों दूर कुमाऊंनी संस्कृति को सहेजने का प्रयास करते हुए अपनी मधुर आवाज से अलख जगा रही है। मूल रूप से राज्य के बागेश्वर जिले के गरूड़ क्षेत्र के लखनी गांव निवासी कमला देवी की, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय फ्रेंचाइजी संगीत स्टूडियो कोक स्टूडियो में अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिला है। लोकगायिका कमला की मधुर आवाज़ जल्द ही कोक स्टूडियो सीजन 2 में गूंजने जा रही है। इस बात की पुष्टि स्वयं कोक स्टूडियो ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से की है।
कमला देवी उत्तराखंड की पहली लोक गायिका है जिन्हे कोक स्टूडियो में गाने का अवसर मिल रहा है। लोकगायिका कमला केवल कुमाऊंनी संस्कृति से जुड़े हुए गीत ही गाती है। महज पंद्रह वर्ष की आयु में से ही इन्होने लोक संगीत का दामन थामने वाली लोकगायिका कमला की कुमाउनी लोक संगीत की सभी विधाओं पर अच्छी पकड़ है। खासतौर पर मालूशाही गायन विधा में उन्हे विशेषज्ञता हासिल है।आपको बता दें कि कोक स्टूडियो विश्वभर में लोक संगीत या स्थानीय गीतों के साथ उनकी मौलिकता से छेड़छाड़ किये बिना उनपर अभिनव प्रयोगो के लिए फेमस है। सर्वप्रथम कोकाकोला कंपनी के प्रबंधन समिति ने इसे ब्राजील के एक शो में आयोजित किया था। जिसके उपरांत प्रसिद्ध पाकिस्तानी गायक रोहल हयात ने कोक स्टूडियो के नाम से म्यूजिक स्टूडियो शुरू किया। आज इसकी विभिन्न देशों में शाखाएं खुल चुकी है। भारत में खुली इसकी फेंचाइजी को कोक स्टूडियो एम टीवी के नाम से जाना जाता है।
उन्होंने नैनीताल के भवाली में एक छोटा सा ढाबा खोला था। यहां एक दिन प्रसिद्ध जागर गायक शिरोमणि पंत आए। उस समय वह काम करते
हुए गीत गुनगुना रही थीं। गीत सुनकर पंत उनके पास पहुंचे और पूछने लगे कि क्या वह किसी गीत मंडली, ड्रामा वगैरह में काम करती हैं उन्होंने उन्होंने तपाक से जवाब देते हुए कहा कि उन्हें गीत गाने का शौक तो है, लेकिन कभी गाने का मौका नहीं मिला। कमला देवी बताती हैं कि वह मुलाकात ही थी, जिसके बाद उन्हें गीत-संगीत जगत में मौका मिला। इसके बाद कमला देवी ने आकाशवाणी अल्मोड़ा में भी प्रस्तुति दी।
वह कहती हैं कि उन्हें देहरादून भी पहली बार शिरोमणि पंत ने ही दिखाया था। अपने ४० साल के करियर का श्रेय वह शिरोमणि पंत को ही देती हैं। कपकोट, देवीधुरा, कोटाबाग, रामनगर, गरुड़ समेत कुमाऊं के कई क्षेत्रों में कमला देवी परफॉर्म कर चुकी हैं। उन्हें एक बार लखनऊ में भी गाने का मौका मिला था। कमला देवी बताती हैं कि “भारत की खोज” कार्यक्रम के लिए उनका चयन हुआ था। गर्व की बात थी कि उत्तराखंड से इतने बड़े-बड़े कलाकारों के होते हुए भी उन्हें यह मौका मिला था। कमला देवी दूरदर्शन पर भी उत्तराखंड के लोकगीतों व लोक जागरों की प्रस्तुति दे चुकी हैं।
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बता दें कि कोक स्टूडियो सीजन 2 में दिलजीत दोसांझ, श्रेया घोषाल, नेहा कक्कड़, एमसी स्क्वैर समेत कई गायक नजर आएंगे। उत्तराखंड के बागेश्वर जिले की गरुड़ तहसील स्थित लखनी गांव की रहने वालीं कमला देवी के कंठ में साक्षात सरस्वती निवास करती हैं।वह उत्तराखंड की जागर गायिका हैं। कमला देवी बताती हैं कि उनका बचपन गाय-भैंसों के साथ जंगल और खेत-खलिहानों के बीच बीता। इस बीच १५ साल की उम्र में उनकी शादी हो गई। ससुराल आईं तो यहां भी घर, खेतीबाड़ी में ही लगी रहीं। वह कहती हैं कि उन्हें न्यौली, छपेली, राजुला, मालूशाही, हुड़कीबोल आदि गीतों को गाने का शौक था।जंगल जाते वक्त वह गुनगुनाती और अपनी सहेलियों को भी सुनाती थीं। ऐसे में दौर में आज भी कई लोकगायक ऐसे हैं जो पहाड़ की संस्कृति को जिंदा रखें हुए है। उनके सुरों में पहाड़ की पीड़ा, पलायन और रीति-रिवाजों को लेकर जो पीड़ा और दर्द देखने को मिलता है।
वैसा आज के ऑटो टोन गायकों में कहा। जो मिठास कुमाऊंनी संस्कृति को सहेजने का काम कर रही है, अगर उसी आवाज को विश्व पटल पर सम्मान मिल रहा है तो हमें भी एक पहाड़ी और उत्तराखंडी होने पर गर्व होना चाहिए उत्तराखंड में कम ही ऐसी लोकगायिका हुई जिन्होंने शुद्ध पहाड़ी गीतों में अपना पूरा जीवन गुजार दिया। लोकगायिका स्व. कबूतरी देवी के बाद लोकगायिका कमला देवी एक बार फिर विश्व पटल पर छाने को तैयार है। वैश्वीकरण की चुनौती से निपटने के लिए सांस्कृतिक धरोहरों को नए तरीकों से संभाला जा सकता है, संसाधन विहीन परिवेश से होने की वजह से उन की गायकी घर-गाँव में ही सीमित रह जानी थी, लेकिन होना कुछ और था जहाँ कमला देवी उत्तराखण्ड के पारंपरिक लोक संगीत की अलख जलाएँगी ऐसा करना वे कभी नहीं भूलते।
वह लोकगीत जो हमारे बुजुर्गों के साथ-साथ काल कवलित होता जा रहा है, उसे नई पीढ़ी को एक नए कलेवर के साथ हस्तांतरित करें। वे लोक गीत एवं लोक वाद्य जिनकी गूँज से कभी वादियाँ झूम उठती थी, पैर थिरकने लगते थे, जन जीवन श्रम की थकान एवम् अपने कष्टों को भूलकर मदमस्त हो उठता था, शनै:शनै: उसके स्वर मंद पड़ते जा रहे हैं। वे मात्र पुस्तकों की और संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं। जो कभी हमारे पूर्वजों की खोज, तपस्या एवं साधना का परिणाम था, हमारा अभिज्ञान था आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज इन धरोहरों को आवश्यकता है हमारे ध्यानाकर्षण की, हमारी श्रद्धा की, संरक्षण के साथ- साथ इन लोकगीतों को पुन: उजागर करने की। इसके लिए जरुरी है कि देश के अन्य संगीतकारों, कलाकारों की भांति इन लोक कलाकारों को भी समय-समय पर पुरस्कारों से नवाजा जाए।
विवाहादि शुभ अवसरों पर अपने लोक गायकों को आमंत्रित करना चाहिए। इससे उनमें उत्साहवर्धन के साथ-साथ मनोबल की भी वृद्धि होगी
और अपने पूर्वजों की धरोहर भावी पीढ़ी को सौंपने में उन्हें गौरवानुभूति होगी। साथ ही भावी पीढ़ी भी उसे सहर्ष स्वीकार करेगी। इससे हमारी लोक प्रचलित कलाएं, परम्पराएं और संस्कृति स्वत: जीवन्त रहेंगी और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहेंगी।यह लेखक के निजी विचार हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )