उत्तराखंड की होली अध्यात्म से उल्लास की ओर
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
होली के जैसे रंग ब्रजमंडल में हैं, कमोवेश वैसे ही देवभूमि उत्तराखंड में भी। बावजूद इसके पर्वतीय अंचल में होली गीतों के प्रस्तुतिकरण और उनके गायन-वादन में पहाड़ की मूल सुंगध साफ महसूस की जा सकती है। शास्त्रीयता और गीतों की विविधता उत्तराखंड की होली को विशिष्टता प्रदान करती है। यहां होली गायक की अवधि सबसे लंबी होती है, खासकर पिथौरागढ़ में तो यह रामनवमी तक गाई जाती है। होली वसंत का यौवनकाल है और ग्रीष्म के आगमन का सूचक भी। ऐसे में कौन भला इस उल्लास में डूबना नहीं चाहेगा। फिर भारतीय परंपरा में तो त्योहार चेतना के प्रतीक माने गए हैं। वे जीवन में आशा, आकांक्षा, उत्साह व उमंग का ही संचार नहीं करते, बल्कि मनोरंजन, उल्लास व आनंद देकर उसे सरस भी बनाते हैं। वसंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु अमृतप्राण हो उठती है। इसलिए होली को “मन्वंतरांभ” भी कहा गया है। यह “नवान्नवेष्टि” यज्ञ भी है।
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं व जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे, जिसे कर्मकांड परंपरा में “यवग्रहण” यज्ञ का नाम दिया गया। संस्कृत में अन्न की बाल को होला कहते हैं। जिस उत्सव में नई फसल की बालों को अग्नि पर भूना जाता है,वह होली है। अग्नि जलाकर उसके चारों ओर नृत्य करना आदिकालीन प्रथा है।होली से अनेक कथाएं जुड़ी हैं। एक है प्रह्लाद एवं होलिका की कथा। सुप्रसिद्ध कवियत्री महादेवी वर्मा इसकी व्याख्या इस तरह करती हैं, ‘प्रह्लाद का अर्थ परम आह्लाद या परम आनंद है। किसान के लिए नए अन्न से अधिक आनंददायी और क्या हो सकता है। अपनी फसल पाकर और मौसम की प्रतिकूलताओं से मुक्त होकर आत्मविभोर किसान नाचता है, गाता है और अग्निदेव को नवान्न की आहुति देता है।’
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दूसरी कथा ढूंडा नामक राक्षसी की है, जो बच्चों को बहुत पीड़ा पहुंचाती थी। एक बार वह पकड़ी गई और लोगों ने क्रोध में आकर उसे जिंदा जला दिया। इसी घटना की स्मृति में होली जलाई जाती है। यदि ढूंडा को ठंड नामक राक्षसी मान लें तो बच्चों के कष्ट और राक्षसी के जलने की
खुशी की बात सहज समझ में आ जाती है।बहरहाल! कारण कुछ भी हों, लेकिन होली का उत्सव आते ही संपूर्ण देवभूमि राधा-कृष्ण के प्रणय गीतों से रोमांचित हो उठती है। होली प्रज्ज्वलित करने से लेकर रंगों के खेलने तक यही उसका रूप जनमानस को आकर्षित करता है। आज भी रंगों की टोली प्रेयसी के द्वार पर आ धमकती है तो वही गीत मुखरित हो उठता है, जो कहते हैं कृष्ण ने राधा के द्वार खड़े होकर उनसे कहा था, ‘रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ।’ उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में शास्त्रीय संगीत पर आधारित बैठकी होली गायन की परंपरा 150 साल से चली आ रही है। यह होली विभिन्न रागों में चार अलग-अलग चरणों में गाई जाती है, जो होली के टीकेतक चलती है।
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पहला चरण पौष के प्रथम रविवार को आध्यात्मिक होली ‘गणपति को भज लीजे मनवा’ से शुरू होकर माघ पंचमी के एक दिन पूर्व तक चलता है। माघ पंचमी से महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व तक के दूसरे चरण में भक्तिपरक व शृंगारिक होली गीतों का गायन होता है। तीसरे चरण में महाशिवरात्रि से रंगभरी एकादशी के एक दिन पूर्व तक हंसी-मजाक व ठिठोली युक्त गीतों का गायन होता है। रंगभरी एकादशी से होली के टीके तक मिश्रित होली की स्वरलहरियां चारों दिशाओं में गूंजती रहती हैं। विदित रहे कि पहले से तीसरे चरण तक की होली सायंकाल घर के भीतर गुड़ के रसास्वादन के बीच पूरी तन्मयता से गाई जाती है। चौथे चरण में बैठी होली के साथ ही खड़ी होली गायन का भी क्रम चल पड़ता है। इसे चीर बंधन वाले स्थानों अथवा सार्वजनिक स्थानों पर वाद्य यंत्रों के साथ लयबद्ध तरीके से गाया जाता है।
यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि पहाड़ में बैठकी होली गीत गायन का जनक रामपुर के उस्ताद अमानत उल्ला को माना जाता है। उन्होंने ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1860 में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से इसकी शुरुआत की थी। तब से अब तक लोक के संवाहक इस
परंपरा का बदस्तूर निर्वहन करते आ रहे हैं। पर्वतीय अंचल में गाए जाने वाले होली गीत हालांकि ब्रज से आए प्रतीत होते हैं, लेकिन यहां आकर ये लोक के रंग में इस कदर रचे-बसे कि स्थानीय लोक परंपरा का अभिन्न अंग बन गए। यही विशेषता उत्तराखंड खासकर कुमाऊं की बैठ (बैठकी) होलियों की भी है। शास्त्रीय रागों पर आधारित होने के बावजूद इनके गायन में शिथिलता दिखाई देती है। जिससे शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक के सुर में अपना सुर जोड़ देता है। गढ़वाल अंचल के श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उससे लगे इलाकों में भी होली का कुमाऊं जैसा स्वरूप ही नजर आता है।
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यहां की होली में भी मेलू (मेहल) के पेड़ की डाली को होलिका के प्रतीक रूप में जमीन में गाड़कर प्रतिष्ठित करने और होली गाने का चलन है। एक जमाने में गढ़वाल की राजधानी रहे श्रीनगर और पुरानी टिहरी के राजदरबारों में भी होली गायन की समृद्ध परंपरा विद्यमान रही है।
गढ़वाल में होली को होरी कहा जाता है और सभी होरी गीतों में ब्रजमंडल के ही गीतों का गढ़वालीकरण किया हुआ लगता है। अमूमन सभी होली गीतों में कहीं-कहीं गढ़वाली शब्द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ी बोली की रहती है। हालांकि, गढ़वाल में प्रचलित होली गीतों में ब्रज की तरह कृष्ण-राधा या कृष्ण ही मुख्य विषय नहीं होते। यहां अंबा, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण आदि कई विषयवस्तु के रूप में प्रयुक्त होते हैं और सबका समान आदर गढ़वाली होली के नृत्यगीतों में होता है।
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लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है।