डा० राजेंद्र कुकसाल
कोरोनाकाल में किसानों के साथ ही पढ़े-लिखे वर्ग ने भी खेती-किसानी की ओर रुख किया है। ऐसे में उत्तराखंड के पहाड़ों में आजीविका के नए-नए स्रोत भी विकसित हुए हैं, लेकिन यह बताते हुए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि महज तीन-चार फीसदी से भी कम लोग ही आज खेती के आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए कृषि कार्यों की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। यदि आप भी पारंपरिक खेती के नजरिए को बदलकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जैविक खेती के रूप में कदम बढ़ाएंगे तो न सिर्फ आप आर्थिक रूप से संपन्न होंगे, बल्कि कई और लोगों को भी रोजगार उपलब्ध करा सकते हैं। ऐसे में किसी भी खेती की तकनीकि जानकारी हासिल करना भी बहुत महत्वपूर्ण है। जानिए उत्तराखंड के पहाड़ों में अखरोट के बाग विकसित करने की महत्वपूर्ण जानकारी:-
उतराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में 1500 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले स्थानों में खेतों के किनारे गधेरों के आसपास नम स्थानों पर प्रत्येक गांव में अखरोट के पौधे नजर आते हैं। बगीचे के रूप में अखरोट के बाग राज्य में दिखने को नहीं मिलते हैं। इसके कई कारण हैं।
1- कलमी पौधों की उपलब्धता न होने के कारण।
2-Re-establishment problem यानी नर्सरी से पौधे उखाड़ कर खेतों में लगाने पर अधिक मृत्युदर (50-60प्रतिशत) का होना।
3-Long gestation period याने पौध रौपण के 12-15 वर्षो बाद रोपित पौधों में फल आना।
4-उधान विभाग, विभिन्न परियोजनाओं तथा संस्थाओं द्वारा आपूर्ति किये गये अखरोट के बीजू पौधों की विश्वसनीयता का न होना कई ऐसे कारण हैं, जिससे उतराखण्ड में अखरोट के उद्यान विकसित नहीं हो पा रहे हैं।
अखरोट के बाग विकसित करने कि आसान एवं विश्वनीय विधि।
यदि आपको अखरोट के कलमी पौधे उपलब्ध नहीं हो पा रहें तो आप इस विधि से अखरोट के बाग विकसित कर सकते हैं। विभागों द्वारा योजनाओं में आपूर्ति किए गए बीजू पौधों की कोई विश्वसनीयता नहीं है, अधिकतर काठी ही निकलेंगे।
1500 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले स्थान जिनका ढलान उत्तर या पूर्व दिशा में हो, अखरोट उत्पादन हेतु उपयुक्त पाये जाते हैं, जिन क्षेत्रों/गावों में पहले से ही अखरोट के फलदार पौधे हैं, इस आधार पर भी स्थान का चयन किया जा सकता है।
पर्वतीय क्षेत्र के गावों या आस-पास के क्षेत्रों में कुछ अखरोट के पौधों की प्रसिद्धि उनके फलों की उपज एवं गुणवता के कारण होती है। ऐसे उन्नत किस्म के अखरोट के पौधे का चयन स्थानीय ग्रामीणों की जानकारी के आधार पर करें।
सितम्बर माह में अखरोट के फल तैयार होने शुरू हो जाते हैं। ऊंचाई ढलान एवं हिमालय से दूरी के आधार पर फल तैयार होने का समय कुछ दिन आगे-पीछे हो सकता है।
जिस समय अखरोट के बाहर का हरा छिलका फटने लगे, समझो फल तैयार हो गया। ऐसी अवस्था आने पर चयनित (उन्नत किस्म के अखरोट) पौधे से उत्पादित फलों को तोड़ ले तथा किसी नम स्थान पर रख कर फलों के बाहरी छिलके को हल्की डंडी से पीट कर अलग कर ले तथा गीले बोरे से ढक ले, धूप लगने पर गर्मी व नमी के कारण 5-6 दिनों में इन अखरोट के दानों में जमाव होने लगता है।
पूर्व में किये गये तैयार गड्ढों में प्रत्येक गड्ढे में एक या दो अंकुरित बीज का रोपण करें।
खेतों में गड्ढे अगस्त के अंतिम सप्ताह या सितम्बर के प्रथम सप्ताह में बरसात के बाद, 10&8 याने लाइन से लाइन 10 मीटर तथा पौध से पौध की दूरी 8 मीटर पर करें, गड्ढों को सड़ी गोबर की खाद मिलाकर भर लें।
तैयार गड्ढों में अंकुरित बीज लगाने के बाद सिंचाई अवश्य करे तथा थाबलो को सुखी पत्तियों के मल्च से ढक लें, जिससे नमी बनी रहे। माह नवम्बर तक अंकुरित पौधे एक फिट तक के हो जाते हैं।
इस विधि से लगाये गये अखरोट के पौधों में 7-8 वर्षो के बाद फल आने शुरू हो जाते हंै तथा फल almost true to the type यानी मातृवृक्ष की तरह ही होते हैं।
यह तकनीकी ग्राम्या, जलागम, एकीकृत आजिविका सर्पोट परियोजना एंव अन्य स्वयंसेवी संस्थायें के लिए भी उपयोगी हो सकती है।
यहां दीपक ढौंडियाल द्वारा इस विधि से विकसित की गई अखरोट के 9-10 माह के पौधों की फोटो को साझा किया जा रहा है। श्री ढौंडियाल का इस बर्ष 500 अखरोट के पौधे इस विधि से लगाने का विचार है।