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पहाड़ों में काफल (Kafal) न खाया तो क्या खाया

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पहाड़ों में काफल (Kafal) न खाया तो क्या खाया

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

काफल उत्तराखंड का अत्यंत प्रिय फल है, जिससे जुड़ी एक प्राचीन कहानी भी है। उत्तराखंड के लोगों के अनुसार, एक बार एक महिला जंगल से टोकरी भर काफल लेकर आई और उसने अपनी बेटी से कहा कि वह उनमें से कुछ भी न खाए और जब तक वह पानी लेकर वापस न आ जाए, तब तक काफल से भरी टोकरी पर नजर रखे। पास के झरने से औरतों के लौटने पर काफल कम लग रहे थे। उसके निर्देशों का पालन न करने पर उसने तुरंत अपनी बेटी को थप्पड़ मार दिया।

महिला को इस बात का एहसास नहीं था कि काफल कम दिख रहे थे, क्योंकि भीषण गर्मी के कारण वे सिकुड़ गए थे। जैसे ही महिला ने अपनी खूबसूरत बेटी को थप्पड़ मारा, वह मर गई और कोयल बन गई।

तब से, हर साल मई और जून की शुरुआत में, कोयल गाती है “काफल पाको मिन नी चाखो” जिसका मतलब है कि काफल पक गया है, काफल उत्तराखंड की संस्कृति और जैव विविधता का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा है कि यह कुमाऊं के कुछ लोकप्रिय गीतों में भी शामिल है, गाने के बोल इस प्रकार हैं -“बेड़ू पाको बारह मासा, नारायणी काफल पाको चैत” (बेड़ू पाको बारह मासा, नारायणी काफल पाको चैत) महीना, लेकिन काफ़ल केवल अप्रैल-मई में)”।

यह गढ़वाल राइफल्स और कुमाऊं रेजीमेंट का प्रतिनिधि गीत भी है।

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कुमाऊं क्षेत्र मुख्य रूप से इस फल के लिए जाना जाता है।

रानीखेत, अल्मोडा और नैनीताल जिले काफल के लिए प्रसिद्ध हैं। स्थानीय कुमाऊंनी भाषा में इस फल को ‘काफो’ कहा जाता है। पर्यटकों को इस फल से बहुत प्रेम है, लोग इस फल को बड़ी मात्रा में खरीदते हैं। राज्य और इसके लोगों के लिए आर्थिक रूप से भी फायदेमंद है।

काफल को लेकर पहाड़ के लोकगीत भी हैं। प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती रचित बेडु पाको बार मासा, नरेन काफल पाको चेत मेरी छैला, आज भी हर पहाड़ के लोग गनगुनाते रहते हैं। उत्तराखंड के हरे-भरे पहाड़ जितने खूबसूरत हैं उतनी ही खूबसूरत पहाड़ की संस्कृति भी है। इन दिनों यहां के पहाड़ों में काफल की बहार आई हुई है।

काफल उत्तराखंड की पहाड़ियों पर उगने वाला जंगली फल है लेकिन अपने खट्टे-मीठे स्वाद के कारण यह पहाड़ों पर फलों के राजा के रूप में पहचाना जाता है। काफल सिर्फ फल ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की संस्कृति का हिस्सा भी है। काफल औषधि युक्त जंगली फल है, जिसे जंगली जैविक फल भी कहा जाता है।

यह फल अनेक रोगों में लाभकारी होते हैं। यह जंगली पशुओं और पक्षियों का एक भोजन भी है। छोटा गुठली युक्त बेरी जैसा फल काफल गुच्छों में लगता है। काफल का फल जमीन से 4000 फीट से 6000 फीट की उंचाई में उगता है।

ये फल उत्तराखंड के अलावा हिमाचल और नेपाल के कुछ हिस्सों में भी होता है। इस फल का स्वाद मीठा व खट्टा और कसैले होता है। इस फल का वैज्ञानिक नाम माइरिका एसकुलेंटा है एवं इसे बॉक्स मर्टल और बेबेरी भी कहा जाता है।

काफल फल में कई तरह के प्राकृतिक तत्व पाए जाते हैं। जैसे माइरिकेटिन, मैरिकिट्रिन और ग्लाइकोसाइड्स इसके अलावा इसकी पत्तियों में फ्लावेन-4, हाइड्रोक्सी-3 पाया जाता है।

इस फल को खाने से पेट से सम्बंधित कई बीमारियां दूर हो जाती हैं जैसे कि कब्ज या एसिडिटी। इसका उपयोग मोमबत्तियां, साबुन तथा पॉलिश बनाने में भी किया जाता है।

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काफल फल के पेड़ की छाल से निकलने वाले सार को दालचीनी और अदरक के साथ मिलाकर सेवन करने से पेचिस, बुखार, फेफड़ों की बीमारी, अस्थमा और डायरिया आदि रोगों से आसानी से बच सकते हैं। अपितु यही नहीं. इसकी छाल को सूघने से आंखों के रोग व सिर का दर्द भी ठीक हो जाता है। इसके पेड़ की छाल का पाउडर जुकाम, आंख की बीमारी तथा सरदर्द में सूंघने के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।

काफल के पेड़ की छाल या इसके फूल से बने तेल की कुछ मात्रा कान में डालने से कान का दर्द दूर हो जाता है। इस फल से लकवा रोग ठीक हो सकता है और फल के प्रयोग से आप नेल पॉलिश के अलावा मोमबत्तियां व साबुन आदि भी बना सकते हैं।

कुमाऊंनी भाषा के एक लोक गीत में तो काफल अपना दर्द बयान करते हुए कहते हैं, खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां। इसका अर्थ है कि हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब भू लोक में आ गए। मशहूर गीत बेड़ु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला। यानी बेड़ु हर महीने पकता है, लेकिन काफल चैत्र और बैशाख के महीने में ही पकता हैं।

यह फल स्‍थानीय लोगों को के लिए रोजगार का साधन भी बनता है। स्थानीय लोग का फल को पेड़ से तोड़कर मंडी तक लाते हैं और मंडी में इस फल को बेचते हैं। प्रारंभिक अवस्था में काफल का रंग हरा होता है और अप्रैल माह के आखिर में यह पककर तैयार हो जाता है। तब इसका रंग बेहद लाल हो जाता है, लेकिन इस बार यह फल मार्च में ही पककर तैयार हो गया है।

स्थानीय दुकानदार ने बताया कि इन दिनों काफल 400से 500 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा है। आमपड़ाव, बसगांव, चोपड़ा, बलियाखान, कूड़, खुरपाताल रामगढ़ और भवाली क्षेत्र के विभिन्न गांवों के ग्रामीण इन दिनों शहर में काफल बेचने आते हैं।

इस साल बारिश न होने से काफल जल्दी पक गया है और गर्मी भी तेजी से बढ़ रही है। वैसे तो काफल अप्रैल के महीने में बाजारों में आता था, लेकिन इस बार मार्च में ही काफल पककर तैयार हो गया है।

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काफल तीन महीने तक स्थानीय बेरोजगारों के लिए स्वरोजगार का भी साधन बनता है। इसके पेड़ ठंडी जलवायु में पाए जाते हैं। इसका लुभावना गुठली युक्त फल गुच्छों में लगता है। प्रारंभिक अवस्था में इसका रंग हरा होता है और अप्रैल माह के आखिर में यह फल पककर तैयार हो जाता है, तब इसका रंग बेहद लाल हो जाता है।

तराई क्षेत्र में गर्मी शुरू होते ही पर्यटकों का रुख पहाड़ की ओर है । सैलानी यहां पहाड़ की सुरीली हवा और रसीले काफल का स्वाद ले रहे हैं। चार सौ रुपये प्रति किलो तक काफल बिक रहा है। सीरी नरगोल निवासी निवासी ने कहा कि वह काफल बेचकर दस से बीस हजार रुपये तक कमाई करते थे, लेकिन जंगलों में आग लगने से काफल खराब हुआ है।

काफल जंगली तौर पर पाया जाने वाला एक फल बिक रहा है। काफल  के लिए उपयुक्त बाजार सुनिश्चित कर गुणों से भरपूर इस फल को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के प्रयास किए जा रहे हैं। अपनी बढ़ी हुई मांग के कारण मध्य हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाला यह फल स्थानीय लोगों को आर्थिक मजबूती भी प्रदान करते थे, लेकिन इसके लिए बाजार सुनिश्चित के प्रयास किए जाने चाहिए। हिमालय में वन संपदा के संरक्षण के साथ ही ढांचागत विकास को जिस अवैज्ञानिक और अदूरदर्शिता से आगे बढ़ाया जा रहा है, की अनदेखी करने की भारी कीमत चुकानी पडे़गी।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)

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