क्यों धधक रहे हैं उत्तराखंड के जंगल, कितना भयंकर होने वाला है इसका परिणाम? - Mukhyadhara

क्यों धधक रहे हैं उत्तराखंड के जंगल, कितना भयंकर होने वाला है इसका परिणाम?

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क्यों धधक रहे हैं उत्तराखंड के जंगल, कितना भयंकर होने वाला है इसका परिणाम?

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग लगने की घटनाओं ने हर किसी को हैरान कर रखा है। जानकारी के मुताबिक,अब तक इस आग की चपेट में आने से 5 लोगों की मौत हो चुकी है। आग पर काबू पाने के लिए भारती वायुसेना की भी मदद ली जा रही है। बीते साल एक नवंबर से अब तक प्रदेश में जंगल में आग की 910 घटनाएं हुईं हैं जिनसे करीब 1145 हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुआ है। देवभूमि कहे जाने वाले राज्य उत्तराखंड के इन हालात ने हर किसी को हैरान कर दिया है। लेकिन इस आग का कारण क्या है? क्या ये आग मानव निर्मित है? इस आग को रोकने में समस्या कहां आ  रही है?  आग की 910 घटनाओं में 1144 हेक्टेयर से अधिक जंगल जल गया, लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि उत्तराखंड में जंगल की आग ने कहर बरपाया हुआ है। गढ़वाल से कुमाऊं मंडल तक आग विकराल हो गई है। अब तक पेड़ एक भी नहीं जला। बल्कि वन विभाग के अधिकारी और उनकी ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है।

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रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि आग से अब तक किसी वन्य जीव को भी नुकसान नहीं हुआ।प्रदेश के जंगलों में लगी आग थम नहीं रही है। आग पर काबू पाने के लिए एसडीआरएफ के साथ ही एनडीआरएफ की भी मदद ली जा रही है। सरकार ने वन मुख्यालय के अधिकारियों को मोर्चे में उतारने के बाद अब जिलाधिकारियों को भी आग की निगरानी के निर्देश दिए हैं। प्रदेशभर में 1,438 फायर क्रू स्टेशन बनाए गए हैं और 3,983 फायर वॉचरों को तैनात किया गया है। इसके बावजूद जंगल जगह-जगह धधक रहे हैं। अब तक गढ़वाल में 482 और कुमाऊं में 355 वनाग्नि की घटनाएं हो चुकी हैं, जबकि वन्य जीव क्षेत्र में 73 घटनाएं हुई हैं। वनाग्नि की घटनाओं को लेकर वन विभाग की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया कि 1,144 हेक्टेयर जंगल जलने के बाद भी कोई वन्य जीव झुलसा नहीं, न ही किसी की आग की चपेट में आकर मौत हुई है।

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वनाग्नि की गढ़वाल में आरक्षित वन क्षेत्र में 183 और कुमाऊं आरक्षित वन क्षेत्र में 343 घटनाएं हुई हैं, जबकि गढ़वाल में सिविल एवं वनपंचायत क्षेत्र में 172 और कुमाउं में 139 घटनाएं हो चुकी हैं।इससे गढ़वाल में 398 और कुमाऊं में 221 हेक्टेयर वन क्षेत्र में वन संपदा को नुकसान हुआ है। रिपोर्ट में पेड़ जलने की भी कोई सूचना नहीं है।अपर प्रमुख वन संरक्षक के मुताबिक, जंगल की आग की वजह से प्रदेश में कहीं से पेड़ जलने की सूचना नहीं है। आग से गिरी सूखी पत्तियां और घास जली है। जंगल की आग से पेड़ों को कोई नुकसान नहीं हुआ। देवभूमि उत्तराखंड में सूर्य की बढ़ती तपिश के साथ ही जंगलों में आग धधकती जा रही है। चढ़ते पारे के बीच उत्तराखंड के जंगलों में आग की घटनाओं में चिंताजनक रूप से बढ़ोतरी हो रही है। वनाग्नि की चपेट में आने से 500 से अधिक हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ चुके हैं। बात करें पिछले 24 घंटे की तो राज्यभर में 52 से ज्यादा स्थानों पर वनाग्नि की घटनाएं सामने आई है। जिसमें 77 हेक्टेयर जंगल जल गए, जो इस सीजन में एक
रिकॉर्ड है। इन आंकड़ों ने वन विभाग के अधिकारियों के माथे पर पेशानी ला दी है।

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वन विभाग के अनुसार, कुमाऊं में वनाग्नि की 35 और गढ़वाल क्षेत्र में 14 घटनाएं दर्ज की गईं।जबकि, तीन घटनाएं संरक्षित क्षेत्र में सामने आईं । इस सीजन में राज्यभर में अब तक वनाग्नि की 431 घटनाएं हो चुकी हैं।जिसमें कुल 517 हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ चुके हैं। ग्यारह लाख 30 हजार से ज्यादा मूल्य की वन संपदा को नुकसान अबतक हो चुका है। वहीं जंगलों में लगी आग अब रिहायशी इलाकों तक पहुंच गई है। लगातार बढ़ती आग ने सरकार की चिंता को बढ़ा दिया है। वहीं राज्य के मुख्यमंत्री ने अधिकारियों की बैठक बुलाई जिसमें उन्होने कहा कि जंगलों में जानबूझकर आग लगाने वालों के खिलाफ सख्ती बरती जाए। जहां भी जंगलों में आग लगेगी, वहां संबंधित वन अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाए। इसके अलावा सरकार ने टोल फ्री नम्बर भी जारी किया है। वहीं जंगलों में बढ़ती आग के बाद राज्य में सियासत गरमा गई है। कांग्रेस का कहना है कि सरकार ने वनाग्नि से बचने के लिए कोई तैयारी नहीं की है।

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सवाल ये है कि गर्मी की शुरूआत में यदि ये हाल है तो आगे क्या परिस्थिति होगी इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है, हिमालयी राज्य उत्तराखंड में बढ़ती गर्मी के साथ ही जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही है। बढ़ते तापमान और बारिश के ना होने से इस आग ने चौतरफा पहाड़ को अपने आगोश में ले लिया है। आलम ये है कि इस वनाग्नि ने 517 हेक्टेयर जंगल को अपनी चपेट में ले लिया है। सोमवार को पूरे प्रदेशभर में 52 से ज्यादा स्थानों पर वनाग्नि की घटनाएं सामने आई है। जिसमें 77 हेक्टेयर जंगल जल गए, जो इस सीजन में एक रिकॉर्ड है। इन आंकड़ों ने वन विभाग के अधिकारियों के माथे पर पेशानी ला दी है। वन विभाग के अनुसार, कुमाऊं में वनाग्नि की 35 और गढ़वाल क्षेत्र में 14 घटनाएं दर्ज की गईं। जबकि, तीन घटनाएं संरक्षित क्षेत्र में सामने आईं। इस सीजन में राज्यभर में अब तक वनाग्नि की 431 घटनाएं हो
चुकी हैं। जिसमें कुल 517 हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ चुके हैं। ग्यारह लाख 30 हजार से ज्यादा मूल्य की वन संपदा को नुकसान अबतक हो चुका है। उत्तराखंड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 53 हजार 483 किमी  है, जिसमें से 86% पहाड़ी है और 65% जंगल से ढका हुआ है इसमें से 517 हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आ गये हैं। वहीं ये आग लगातार बढ़ते हुए अब कई स्थानों पर रिहायशी इलाकों तक पहुंच गई है। जिससे सरकार की चिंता बढ़ गई है।

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वहीं मुख्यमंत्री ने अधिकारियों की बैठक बुलाई जिसमें उन्होने कहा कि जंगलों में जानबूझकर आग लगाने वालों के खिलाफ सख्ती बरती जाए। जहां भी जंगलों में आग लगेगी, वहां संबंधित वन अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाए। इसके अलावा सरकार ने टोल फ्री नम्बर भी जारी किया है। वहीं जंगलों में बढ़ती आग के बाद राज्य में सियासत गरमा गई है। कुल मिलाकर गर्मी बढ़ने और बारिश ना होने से जंगलों में लगी आग अपने दायरे को बढ़ाती जा रही है। जो किं चिंता बढ़ा रही है। सवाल ये है कि गर्मी की शुरूआत में यदि ये हाल है तो आगे क्या हाल होगा, आखिर क्यों वन विभाग ने समय रहते पूरी तैयारी नहीं की। आखिर कब धधकते जंगलों से उत्तराखंडवासियों को राहत मिलेगी हालांकि आग बुझाने के लिए तकनीक मौजूद है, लेकिन जंगल की विशेष परिस्थितियों के कारण ये बहुत कारगर साबित नहीं हो पातीं। उदाहरण के लिए, पानी की बाल्टियों या टैंकों से लैस हेलीकॉप्टर आग की लपटों और हॉटस्पॉट पर पानी गिराने में सहायक हो सकते हैं, लेकिन उनका उपयोग उपलब्धता, मौसम की स्थिति और जल स्रोतों की पहुंच जैसे कारकों से सीमित हो सकता है। इसी तरह, जंगल की आग की प्रगति को धीमा करने के लिए विशेष अग्निरोधी रसायनों का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन इसके इस्तेमाल में कई तरह की समस्याएं हैं।

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जमीनी स्तर पर काम करने वाली अग्निशमन टीमें जंगल की आग से सीधे निपटने में अहम भूमिका निभाती हैं। वो अक्सर आग की लपटों को दबाने और आगे के इलाकों की सुरक्षा के लिए हाथ के औजार, पाइप और आग को रोकने वाले फोम जैसे औजारों का इस्तेमाल करती हैं।
इसके अलावा हेलीकॉप्टर, एयर टैंकर और ड्रोन आदि से पानी या आग रोकने वाले अन्य पदार्थों को प्रभावित इलाकों में पहुंचाया जाता है। साथ ही, आग कैसा रुख अपना सकती है, इसका आकलन करने और जिन क्षेत्रों में प्राथमिकता से जरूरी कदम उठाए जाने हैं, उनकी पहचान करने के लिए टोही मिशन भी चलाया जाता है। हालांकि, अग्निशमन कर्मियों और संसाधनों के सामूहिक प्रयासों के बावजूद जंगल में तेजी से फैलती आग को बुझाना एक लंबी और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया हो सकती है। आग कितनी भीषण है, मौसम की स्थिति कैसी है और आग बुझाने के संसाधन कैसे हैं, इन सब कारकों से तय होता है कि आग पर काबू पाना कितना कठिन या आसान होगा। कुल मिलाकर कहें तो जंगल की आग को नियंत्रित करने में अक्सर उपयुक्त संसाधन, रणनीतिक योजना और अनुकूल परिस्थितियों के मिले-जुले कारकों की भूमिका होती है

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उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग अब धीरे-धीरे रिहायशी इलाकों तक भी पहुंचने लगी है। जंगल में लगी आग के कारण वन संपदा बुरे तरीके से नष्ट हो रही है। उत्तराखंड के जंगलों में आग के कारण जीव-जंतुओं की हजारों प्रजातियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। आग से निकले धुंए के कारण पर्यावरण दूषित हो रहा है और लोगों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है। आग के कारण क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का भी खतरा हो सकता है। वन अधिकारियों की मानें तो जंगल में लगने वाली आग में अग्नि त्रिकोण जिसमें ईंधन, गर्मी और ऑक्सीजन शामिल है, का अहम योगदान होता है। चीड़ के पेड़ों की अत्यधिक ज्वलनशील पत्तियों जैसे ईंधन स्रोतों को हटाने से इस अग्नि त्रिकोण को बाधित किया जा सकता है। इसके अलावा स्थानीय लोगों में जागरूकता बढ़ाकर और प्रशिक्षण प्रदान करके भी इस आग को रोका जा सकता है।

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मानव जीवन के लिए जल, जंगल और जमीन तीनों प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता नितांत आवश्यक है, लेकिन अफसोस तीनों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इन्सान जिस डाल पर वह बैठा है उसे ही काट रहा है। प्राकृतिक संसधानों के ज़रूरत से ज़्यादा दोहन की वजह से देश जल और जंगल दोनों के जूझ रहा संकट से है। विशेष रूप से वन क्षेत्रों के पास पार्टी करने और लापरवाही बरतने पर भी रोक लगाने की
जरूरत है। देश में जल और जंगल का संकट हमारे लिए विचारणीय बिंदु है। आजादी के कई वर्षो बाद हमने इस तरह का कोई ऐसा तंत्र नहीं विकसित किया, जिससे इस तरह की आपदाओं से निपटा जाए। जंगलों महत्ता को समझ इन्हें संरक्षण की काफी जरूरत है, ताकि आने वाली पीढ़ी को भी जल संकट से न जूझना पड़े।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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