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एक देश एक चुनाव : देश में लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने को लेकर भाजपा में क्यों है उत्साह तो विपक्ष क्यों नाराज

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एक देश एक चुनाव : देश में लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने को लेकर भाजपा में क्यों है उत्साह तो विपक्ष क्यों नाराज

मुख्यधारा डेस्क

26 नवंबर से चला रहा शीतकालीन सत्र संभव है कि अगले एक-दो दिन में खत्म हो जाए। हालांकि शीतकालीन सत्र 20 दिसंबर तक प्रस्तावित है। इस सत्र में मोदी सरकार ने सबसे महत्वपूर्ण बिल “एक देश एक चुनाव” विधेयक 17 दिसंबर को लोकसभा में पेश कर दिया। केंद्र सरकार का यह फैसला कांग्रेस, समाजवादी पार्टी समेत तमाम विरोधी दलों को पसंद नहीं आया।

वहीं दूसरी ओर केंद्र की भाजपा सरकार देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने के लिए उत्साहित है। विपक्ष का कहना है इस विधेयक में कई खामियां हैं। उनका कहना है कि ये संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है, इससे चुनाव आयोग को बेतहाशा पावर मिल जाएगी। यही वजह है कि मोदी सरकार एक समन्वय बनाने के लिए जेपीसी भेजा है।

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मंगलवार को जब केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने एक देश एक चुनाव विधेयक सदन के पटल पर रखा तब सत्ताधारी भाजपा नेताओं के चेहरों पर मुस्कान थी। मोदी सरकार के इस बिल के खिलाफ विपक्षी नेताओं ने मोर्चा खोल दिया है। वन नेशन वन इलेक्शन बिल लोकसभा में पेश कर दिया गया है। इसके लोकसभा में पेश होते ही विपक्षी पार्टियों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि यह बिल देश के संघीय ढांचे के खिलाफ है। भले ही वन नेशन वन इलेक्शन संसद में पेश हो गया है, लेकिन अभी पहली सीढ़ी है।

केंद्र की भाजपा सरकार भी इसे भली-भांति जानती है कि बिल के पक्ष में आवश्यक संख्याबल, जो अभी नजर नहीं आ रहा। इसी के चलते सत्तापक्ष इस बिल को जेपीसी में भेजने की रणनीति पर चल रही है। बिल पेश होने के बाद सदन में गृहमंत्री अमित शाह ने भी स्पष्ट रूप से कहा कि जब इस संविधान संशोधन विधेयक पर कैबिनेट में चर्चा हो रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं कहा था कि इसको जेपीसी को भेजना चाहिए। इस पर हर स्तर पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए। केंद्र सरकार इस विधेयक को लाने के पीछे नीतिगत निरंतरता, कम चुनाव खर्च और प्रशासनिक क्षमता बढ़ने का तर्क दे रही है।

सरकार का कहना है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से सरकार का कामकाज आसान हो जाएगा। देश में बार-बार चुनाव होने से काम अटकता है, क्योंकि चुनाव की घोषणा होते ही आचार संहिता लागू हो जाती है। जिससे परियोजनाओं में देरी होती है और विकास कार्य प्रभावित होते हैं।

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वहीं लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने से सरकार नीति निर्माण और उसके अमल पर ज्यादा ध्यान दे पाएगी।

यही नहीं, दावा किया जा रहा है कि एक बार चुनाव कराने से लागत कम होगी और संसाधन भी कम लगेंगे। जो पैसे बचेंगे और देश के विकास में खर्च किया जाएगा। तर्क है कि एक साथ चुनाव से खासकर विधानसभा चुनावों में सरकार, उम्मीदवारों और पार्टियों अलग-अलग खर्चा होता है, वो सब कम हो जाएगा। एक साथ चुनाव कराने से वोटर्स के रजिस्ट्रेशन और वोटर लिस्ट तैयार करने का काम आसान हो जाएगा। एक ही बार में ठीक से इस काम को अंजाम दिया जा सकेगा। कम चुनाव होने से राज्यों पर भी वित्तीय बोझ नहीं पड़ेगा।

वहीं दूसरी ओर विपक्षी दल देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ होने से अपना घाटा मान रहे हैं। भारत में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को लागू करने में कई चुनौतियां और खामियां हैं। खासकर कांग्रेस का तर्क है कि भारत जैसे विशाल देश में ये संभव नहीं है, क्योंकि हर राज्य की अलग चुनौतियां और उसके मुद्दे हैं। एक साथ चुनाव से वो प्रभावित होंगे। सांस्कृतिक तौर पर भी ये असंभव है। एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की संभावनाएं प्रभावित हो सकती हैं, क्योंकि वे स्थानीय मुद्दों को प्रमुखता से उजागर करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। वे पैसे और चुनावी रणनीतियों के मामले में राष्ट्रीय पार्टियों से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम नहीं हो सकते। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के पास सीमित संसाधन हैं, जबकि सामने राष्ट्रीय दलों के संसाधन होने की वजह से वो हावी हो सकते हैं। वहीं मोदी सरकार ने भले ही एक देश एक चुनाव से जुड़े बिल को जेपीसी में भेजा हो, लेकिन वहां भी उसका ही दबदबा रहेगा। जेपीसी में लोकसभा और राज्यसभा सांसदों को संख्या के आधार पर सदस्य शामिल किए जाते हैं।

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लोकसभा में और राज्यसभा दोनों ही जगह पर बीजेपी के सबसे ज्यादा सांसद हैं। ऐसे में जेपीसी में सबसे ज्यादा सदस्य बीजेपी के होंगे। इस तरह जेपीसी के द्वारा रायशुमारी या फिर विचार-विमर्श में बीजेपी का ही दबदबा होगा और विपक्षी दलों के सदस्यों की संख्या कम होगी। भले ही ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ बिल पास कराना बीजेपी के लिए मुश्किल है। विपक्ष इस मुद्दे पर घेर रही है लेकिन बीजेपी ने देश को एक मुद्दा तो दे ही दिया है। इसको बीजेपी बाद में चुनावी मुद्दा बना सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि आजादी के बाद देश में पहले चार चुनाव इसी तर्ज पर हुए थे। उसके बाद भी काफी समय तक यह स्थिति बनी रही।

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