उत्तराखंड में क्या पलायन बनेगा चुनावी मुद्दा - Mukhyadhara

उत्तराखंड में क्या पलायन बनेगा चुनावी मुद्दा

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उत्तराखंड में क्या पलायन बनेगा चुनावी मुद्दा

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में पलायन ऐसा विषय है, जिसे थामने की चुनौती अभी भी बरकरार है। यद्यपि, तस्वीर कुछ बदली है, लेकिन रास्ता लंबा है। गांवों से पलायन अब अन्य राज्यों की बजाय अपने ही राज्य के शहरों में अधिक दिख रहा है।कृषि प्रधान उत्तराखंड की पहचान परंपरागत कृषि ज्ञान व बीज विविधता से है। यहां उगाए जाने वाले पारंपरिक फसलों में पोषक तत्वों की भरमार है। यही कारण है कि पहाड़ के लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है। इन पारंपरिक अनाजों को स्थानीय लोक बोली में बारह नाजा अर्थात 12 प्रकार के अनाज के नाम से जाना जाता है।लेकिन बदलते वक्त के साथ पहाड़ के बारह नाजा की फसलें विलुप्त होती नजर आ रही है।

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पहाड़ के खेत खलिहानों में दम तोड़ते पहाड़ की पारंपरिक फसलों को संरक्षित करने की कवायद भले ही तेज हो गई हो। पूरा विश्व मोटे अनाज वर्ष (मिलेट्स ईयर) के रूप में मना रहा हो, लेकिन काश्तकार खासतौर पर पहाड़ी क्षेत्रों मे रहने वाले किसान इनकी खेती करने से कतरा रहे हैं। इसकी पीछे आधुनिक जीवन शैली की ओर आर्कषण व जंगली जानवरों का फसलों को नुकसान पहुंचाना माना जा रहा है। उत्तराखंड राज्य का गठन 9 नवंबर 2000 को हुआ था। एक अलग पर्वतीय राज्य की मांग इस वजह से भी उठी थी ताकि इस पर्वतीय क्षेत्र की परिस्थितियों के अनुसार इस क्षेत्र का विकास हो सके। लेकिन जिस अवधारणा के साथ राज्य का गठन किया गया था, वह अवधारणा अभी तक पूरी नहीं हो पाई है या यों कहें कि इसके उलट पर्वतीय क्षेत्र लगातार खाली होते जा रहे हैं। इसकी मुख्य वजह मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध न हो पाना है। भले ही उत्तराखंड के गठन के बाद मूल अवधारणा पूरी ना हो पाई हो, लेकिन उत्तराखंड की राजनीति में राज्य गठन के बाद से ही बड़ा बदलाव देखने को मिलता रहा है। या फिर यूं कहें कि पहले के चुनाव और वर्तमान के चुनाव में काफी अंतर आ गया है।

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लोकसभा चुनाव में खेती और किसानी बेशक राजनीतिक दलों के लिए प्रमुख मुद्दा न हो लेकिन उत्तराखंड के ग्रामीण और किसान के लिए पीछे छूटती खेती सबसे बड़ी परेशानी का सबब है। कागजों में राज्य की बड़ी आबादी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर दिखाई देती है लेकिन हकीकत में उत्तराखंड की खेती-किसानी अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। इसका एक बड़ा कारण रोजगार की तलाश में राज्य के पहाड़ी इलाकों से पलायन करते युवाओं की बढ़ती संख्या तो है ही साथ भूमि के बढ़ते खरीदार जो उत्तराखंड राज्य के मूल निवासी न होकर देश के बड़े शहरों के धनाढ्य, उद्योगपति और राजनेता हैं। इनका उद्देश्य सिर्फ इतना है कि यहां के सुंदर और प्राकृतिक मनोरम दृश्य के बीच कुछ समय के लिए एक आकर सूकून तलाशा जाये। परिणामस्वरूप पर्वतीय क्षेत्रों में खेती की जमीन की जगह आपको शानदार रिसोर्ट और होटल दिखाई देंगे।

जिस राज्य में 70 फीसदी से अधिक भू-भाग वन क्षेत्र हो और खेती के लिए बेहद सीमित भूमि बची हो, वहां खेती-किसानी का छूटना न सिर्फ चिंताजनक है बल्कि भविष्य के लिए खतरनाक भी है। यह संकट उस सूरत में और भी भयावह दिखाई देता है जब यह तथ्य सामने आता है कि राज्य गठन बाद से अब तक दो लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हो गई है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए सरकारें योजनाओं का मरहम तो लगा रही हैं फिर भी उत्तराखंड में उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है। जंगली जानवरों के नुकसान से कास्तकार खेती छोड़ रहे हैं।राज्य गठन के समय उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था। जो 24 सालों में घट कर 5.68 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। हर चुनाव में खेती किसानी और कास्तकार के आमदनी बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल मुद्दे को बनाते हैं लेकिन ये चुनावी वादे राज्य में खेती किसानी की तस्वीर नहीं बदल पाई है।

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हकीकत यह है कि खेती का रकबा साल दर साल घट रहा है। जंगली जानवरों की समस्या, सिंचाई सुविधा का अभाव, बिखरी कृषि जोत के कारण लोग खेती से पलायन कर रहे हैं।प्रदेश के कुल कृषि क्षेत्रफल का 49.55 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र में आता है। जबकि 50.45 प्रतिशत मैदानी व तराई का क्षेत्र है। पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 12.06 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है। जबकि किसानों को फसलों की पैदावार के लिए बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है। समय पर बारिश नहीं हुई तो किसानों को मेहनत के बराबर भी उपज हाथ नहीं लगती है।मंडुवा, झंगोरा, चौलाई, राजमा, गहथ, काला भट्ट परंपरागत फसलें है। श्री अन्न योजना से इन मोटे अनाजों को पहचान तो मिली है। लेकिन बाजार की मांग को पूरा करने के लिए पैदावार बढ़ाना भी एक चुनौती है। राज्य गठन के बाद मंडुवा का क्षेत्रफल आधा हो गया है। 2001-02 में प्रदेश में मंडुवे का क्षेत्रफल 1.32 लाख हेक्टेयर था। जो 2023-24 में घट कर 70 हजार हेक्टेयर रह गया। केंद्र सरकार ने भले ही खेती-किसानी को तवज्जो दी हो, लेकिन उत्तराखंड में कृषि की दशा बिगड़ती जा रही है। 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में 7.68 लाख हेक्टयेर में खेती होती है, लेकिन यह दायरा भी लगातार सिमट रहा है। खासकर पर्वतीय इलाकों में।

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बता दें कि राज्य के 13 जनपदों में से 10 पूरी तरह पर्वतीय हैं। कृषि की सबसे नाजुक हालत भी पर्वतीय इलाके में ही है। आंकड़ों पर ही नजर दौड़ाएं तो कुल कृषि भूमि का 3.31 लाख हेक्टेयर मैदानी और 4.37 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर्वतीय है। कुल कृषि भूमि का 3.43 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ही सिंचित है और मैदान में सिंचित भूमि का दायरा 2.98 लाख हेक्टेयर और पर्वतीय क्षेत्र में महज 0.45 लाख हेक्टेयर ही है। हालांकि, पर्वतीय इलाके में कृषि भूमि अधिक है, मगर यहीं सर्वाधिक मार भी पड़ी है। और इसके लिए एक नहीं तमाम कारक जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से लोगों का कृषि से मोहभंग हो रहा है। असल में पर्वतीय इलाकों से बड़े पैमाने हो रहे पलायन के चलते पहले ही बड़ी संख्या में खेत भी बंजर हो रहे हैं। हाल यह है कि अभी तक 60 हजार हेक्टयेर से ज्यादा ऐसी भूमि बंजर में तब्दील हो चुकी है, जिस पर खेती होती थी और लोगों ने इसे छोड़ दिया है। यही नहीं, पर्वतीय इलाकों में खेती के सामने पलायन के साथ ही अन्य कई चुनौतियां भी मुंहबाए खड़ी हैं। पहाड़ में सिंचाई सुविधा के अभाव में कृषि पूरी तरह इंद्रदेव की कृपा पर निर्भर है। यानी वक्त पर बारिश हो गई तो ठीक, अन्यथा अगली फसल बोने को भी खेती से बीज तक नसीब नहीं हो पाता।

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इसके अलावा प्राकृतिक आपदा, जंगली जानवरों द्वारा फसलों को चौपट करना जैसे अन्य कई कारण भी हैं, जिनके चलते खेती से दूरी बढ़ रही है। जहां तक मैदानी इलाकों की बात करें तो वहां शहरीकरण की मार से खेती की जमीन कम हुई है। साफ है कि उत्तराखंड में पहाड़ और मैदान दोनों ही जगह खेती संकट में है। फिर, जिस हिसाब से पहाड़ के गांव खाली हो रहे हैं खेत खलिहान बंजर, वह अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से घिरे इस राज्य के लिए किसी भी दशा में उचित नहीं है। इस सूरतेहाल में पहले बड़ी जरूरत खेती को संबल देने की है। हालांकि, इस दिशा में चकबंदी एक बड़ा विकल्प है, लेकिन बिखरी जोत को एक जगह कर उसका वितरण भी बड़ी चुनौती है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह राज्य में कृषि को बढ़ावा देने को प्रभावी कदम उठाए। इसके लिए पारंपरिक खेती से हटकर नकदी फसलों को बढ़ावा देना होगा, लेकिन इसके लिए ऐसी ठोस कार्ययोजना तैयार करनी होगी कि लोग खुद खेती की तरफ उन्मुख हों।

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भारत के मौसम विभाग ने राज्य में वर्षा के माहवार आंकड़ों का विश्लेषण किया और यह निष्कर्ष निकाला कि पिछले कुछ सालों में जनवरी, मार्च, जुलाई, अगस्त, अक्टूबर और दिसंबर में बरसात कम हुई है। उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक बरसात पर निर्भर है।नौकरी के साथ खेती और पशुपालन प्रमुख व्यवसाय हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में भी प्रमुख आर्थिक गतिविधि कृषि ही है जहां 60% लोग किसान हैं और 5% खेतिहर मजदूर हैं। पहाड़ी क्षेत्र बहुत हद तक मानसूनी बारिश पर निर्भर हैं।बरसात के पैटर्न में कोई भी बदलाव यहां जलचक्र और खाद्य सुरक्षा के लिये खतरा है। दूसरी ओर बंदरों, सूअरों और दूसरे जंगली जानवरों के बढ़ते आतंक से फसल को खतरा पैदा हो गया है। तेंदुओं का आतंक भी गांवों में बढ़ गया है जिसके कारण लोग तेजी से राज्य के मैदानी जिलों या फिर दूसरे राज्यों की ओर भाग रहे हैं।

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उत्तराखंड में कुल 13 जिले हैं। इनमें से 10 पहाड़ी जिले कहे जाते हैं। पिछले कुछ दशकों में पहाड़ी जिलों से हुआ तीव्र पलायन राज्य की सबसे बड़ी समस्याओं में एक है।ग्रामीण विकास और पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 70% पलायन राज्य के भीतर ही हुआ है– पहाड़ी क्षेत्रों से मैदानी इलाकों में।रिपोर्ट में पलायन का जिलेवार विवरण जारी किया गया था। रिपोर्ट पलायन के अहम कारणों, इसके विभिन्न प्रकारों,तरीकों , उम्र आधारित पलायन, पलायन के बाद किस शहर में लोग जा रहे हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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