उत्तराखंड में आपदा आज तक किसी चुनाव का मुख्य मुद्दा नहीं बन पाया - Mukhyadhara

उत्तराखंड में आपदा आज तक किसी चुनाव का मुख्य मुद्दा नहीं बन पाया

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उत्तराखंड में आपदा आज तक किसी चुनाव का मुख्य मुद्दा नहीं बन पाया

Harishchandra Andola

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हर साल राज्य में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से भारी नुकसान होता है। 20 साल का इतिहास देखें तो करीब 5,700 लोगों ने अपनी जान गंवाई और 2000 से ज्यादा गंभीर घायल हुए हैं। आपदा से होने वाले नुकसान का आंकड़ा भी बढ़ता जा रहा है। 2020 से 2023 तक की चार साल की अवधि में उत्तराखंड में भारी नुकसान हुआ, जिसमें 213 लोग हताहत हुए, जबकि 5,275 लोग प्रभावित हुए। 553 पशु मारे गए। 301 घर ढह गए। 68 गांव प्रभावित हुए। 40 पुल ढह गए और 4,990 मीटर सड़कें क्षतिग्रस्त हो गईं। हर साल औसतन 1500 से 2000 करोड़ का नुकसान इन आपदाओं की वजह से होता आ रहा है। केदारनाथ आपदा, रैणी आपदा, जोशीमठ आपदा समेत तमाम ऐसे जख्म हैं, जिनमें सैकड़ों घरों के चिराग बुझ गए। हजारों करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों का नुकसान अलग हुआ। इन आपदाओं के जख्मों पर मरहम लगाने के
लिए फौरीतौर पर सरकारों ने प्रयास किए, लेकिन आपदाओं के जोखिम को कम करने के उपायों के बारे में राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों ने कभी गंभीर चुनावी चर्चा नहीं की। लगातार दरकते पहाड़ और खतरों के साये में जी रहे लोग, ये सवाल पूछे रहे हैं कि आपदा को कब मुद्दा माना जाएगा।

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उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में अधिकांश लोगों की आय का एकमात्र जरिया कृषि है। राज्य में ज्यादातर सीमांत किसान हैं। एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों की संख्या 74.78 प्रतिशत है। जबकि 1 से 2 हेक्टेयर जोत वाले किसानों की संख्या 16.89 प्रतिशत है। राज्य में जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा वन भूमि (फॉरेस्ट लैंड) और ऊसर भूमि (वैस्टलैंड) है और भूमि का बहुत ही छोटा हिस्सा खेती-बाड़ी के लिए इस्तेमाल होता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, खेती योग्य भूमि करीब 14 प्रतिशत है। यहां इस बात को समझना जरूरी है कि इस 14 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि का एक अच्छा-खासा हिस्सा राज्य के तराई क्षेत्रों में पड़ता है। गैर- सरकारी संगठनों की रिपोर्टों के अनुसार, पर्वतीय क्षेत्र में कुल कृषि योग्य भूमि 4 प्रतिशत ही है। राज्य के पहाड़ी इलाकों में कृषि के परंपरागत तरीकों को बदलने के लिए राज्य सरकारों ने कोई बड़ी पहलकदमी की ही नहीं है।

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उत्तराखंड मानव विकास रिपोर्ट भी कहती है कि पहाड़ी इलाकों में खेती एक गैर-लाभकारी उद्यम बन गया है। इन इलाकों में कृषि की उत्पादकता बहुत कम है और इससे होने वाली आय भी कम है। लिहाजा पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि के परंपरागत पैटर्न को बदलने की सख्त आवश्यकता है। वहीं, पहाड़ी इलाकों में खेती वर्षा पर निर्भर है और भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर वहां सिंचाई की व्यवस्था उतनी आसान नहीं है जितनी मैदानी इलाकों में हो सकती हैमहत्वपूर्ण बात यह है कि भविष्य में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन की वजह से संकट बढ़ेगा तो हिमालयी इलाकों में स्थितियां और भी विकट होंगी। इसका असर यह होगा कि बचे-खुचे जो लोग मजबूरी में कृषि कार्यों में लगे हैं उनके लिए स्थितियां और भी विकट हो जाएंगी। जैसा कि पहले जिक्र किया गया है कि पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि के लगातार अलाभकारी होते चले जाने ने पलायन की रफ्तार को तेज किया है। इस पलायन का बड़ा हिस्सा मजबूरी में किए गए पलायन की श्रेणी में आता है। पलायन करने वालों में करीब 47 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्होंने रोजगार के अभाव में पलायन किया है।

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राज्य सरकार की एक रिपोर्ट स्वयं यह कहती है कि पलायन की गति ऐसी है कि कई ग्रामों की आबादी दो अंकों में रह गई है। देहरादून, उधम सिंह नगर, नैनीताल और हरिद्वार-जैसे जनपदों में जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ी है, जबकि पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों में यह नकारात्मक है। टिहरी, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ जनपदों में असामान्य रूप से जनसंख्या वृद्धि दर काफी कम है। उल्लेखनीय है कि पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसे गांवों की संख्या में इजाफा हो रहा है जहां आबादी एकदम शून्य हो गई है। ऐसे गांवों के लिए एक शब्द काफी प्रचलित है भूतिया गांव मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 2011 से 2017 के बीच उत्तराखंड पलायन आयोग ने पाया कि 734 गांवों से पूरी-की-पूरी आबादी ही पलायन कर चुकी है और 465 गांवों 50 फीसदी से भी कम आबादी रह गई है।

वहीं, गैर सरकारी आंकड़े करीब 3000 गांवों का जिक्र करते हैं जो पलायन से बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। यह मध्य हिमालयी राज्य आज तथाकथित विकास के नाम पर जिस तरह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संकटों से घिरा हुआ है, उसको इससे बाहर निकालने के लिए एक दूरदृष्टि वाले नेतृत्व की जरूरत है। ऐसा नेतृत्व जिसके पास पहाड़ी क्षेत्रों की सांस्कृतिक, भौगोलिक, पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय परिस्थितियों को संवेदनशीलता से समझने की दृष्टि हो। जिसके पास राज्य के मैदानी और पहाड़ी, दोनों के लिहाज से आर्थिक विकास का अलग-अलग वैकल्पिक मॉडल का विजन हो। जिसका शासन के केंद्रीयकरण पर नहीं बल्कि विकेंद्रीयकरण के म़ॉडल पर विश्वास हो, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्रों का उनकी भौगोलिक स्थितियों के लिहाज से आर्थिक विकास शासन के केंद्रीयकरण से नहीं हो सकता है।

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भौगोगिक स्तर पर उत्तराखंड हिमालय के अन्य राज्यों से कुछ भिन्न-सा है, खासकर अगर हम उसकी तुलना उसके पड़ोस के राज्य हिमाचल प्रदेश से करें तो। उत्तराखंड के पास पहाड़ी इलाकों के अलावा मैदानी इलाका भी है, जिसे तराई और भाभर कहते हैं। इस संदर्भ में इस
मध्य हिमालयी राज्य के विकास के लिए विशेष प्रकार के विजन की आवश्यकता है। यानी पहाड़ी और मैदानी इलाकों के लिहाज से विकास की एक संतुलित और मुक्कमल योजना। लेकिन हो क्या रहा है कि पहाड़ी जिले लगातार आर्थिक विकास में पिछड़ते जा रहे हैं। विकास और संसाधनों के असंतुलन को उत्तराखंड सरकार के ही आधिकारिक आंकड़ों से समझा जा सकता है। इसको पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली के उदाहरण से समझते हैं। उत्तराखंड मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, चंपावत, चमोली और टिहरी गढ़वाल-जैसे पहाड़ी जिलों की जनता की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर निर्भरता बहुत अधिक है। इन जिलों की 80 प्रतिशत आबादी इस सुविधा का इस्तेमाल महीने में एक से ज्यादा बार करती है। इनकी तुलना में देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर-जैसे मैदानी जिलों की आबादी की पीडीएस पर निर्भरता कम है। एक माह में एक से अधिक बार पीडीएस के इस्तेमाल का इनका आंकड़ा क्रमशः 66.1, 66.8 और70.4 प्रतिशत है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि पहाड़ी इलाकों में गरीबी मैदानों क्षेत्रों से कहीं अधिक है।

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इसके अलावा रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि राज्य के सामने जो चुनौतियां हैं, वे हैं असमानताओं की खाई का लगातार चौड़ा होना, रोजगार के अवसरों का सिकुड़ना, मजबूरी में होने वाला पलायन, अनियोजित शहरीकरण, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा के अवसरों तक अपर्याप्त पहुंच और साथ ही पर्यावरण की चुनौतियां। जाहिर है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थितियां कितनी विकट हो चुकी हैं। वहीं, मानव विकास के सूचकांकों में पहाड़ी जिलों के मुकाबले देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर-जैसे तीन मैदानी जिले बेहतर स्थिति में हैं। यही नहीं, असमानता की यह खाई लगातार चौड़ी हो रही है। उत्तराखंड के 13 जिलों में अगर औद्योगिक गतिविधियों को तस्वीर देखें तो राज्य के अधिकांश उद्योग देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में स्थित हैं और पहाड़ी जिले इससे वंचित हैं। पहाड़ी इलाकों में गरीबी आम है और उसका स्तर बहुत गंभीर है। वहीं, राज्य के शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की स्थिति और भी ज्यादा भयावह है। संसाधनों के असमान वितरण और असंतुलित विकास को प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ से भी समझा जा सकता है।

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सांख्यिकी डायरी-2019-20 के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 में देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ें क्रमशः 2,15,064 , 2,93,078 और 2,20,429 लाख रुपये थे। अगर हम पहाड़ी जिलों की ओर बढ़ें तो, उत्तरकाशी में यह 98,100 रुपये, टिहरी गढ़वाल में 93,444 रुपये, रुद्रप्रयाग में 88,987 रुपये, चमोली1,27,450, चंपावत में 1,00,646 रुपये और बागेश्वर में 1,13,031 रुपये थी। यहां गौर करने वाली बात यह है कि जिन चार धामों (गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ) को उत्तराखंड के पर्यटन विकास का पर्याय माना गया है वे उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चमोली जिलों में स्थित हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इन तीनों जिलों में प्रति व्यक्ति आय देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर-जैसे मैदानी जिलों से काफी कम है। यह आंकड़ा उत्तराखंड के “विकास” के मॉडल की तस्वीर साफ कर देता है। इसके अलावा यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पहाड़ी जिलों में रहने वाले अधिकांश परिवारों के एक या दो सदस्य राज्य के मैदानी इलाकों में या फिर राज्य से बाहर नौकरी करते हैं। अतः पहाड़ी जिलों में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में इनका बड़ा योगदान है।

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दरअसल, अगर सरकारी नौकरी में लोगों की एक छोटी-सी संख्या को छोड़ दिया जाए तो सरकार ने पहाड़ी इलाकों में राज्य के संसाधनों को उस तरह से विकसित नहीं किया है जो स्थानीय लोगों के लिए आय का स्थायी स्रोत बन सकें।सत्ताधारी राजनीतिक दलों का हाईकमान क्या चाहता है, यह स्पष्ट नहीं है। क्या वे उत्तराखंड का उसकी परिस्थितियों के हिसाब से बेहतरीन आर्थिक विकास चाहते हैं? अगर ऐसा होता तो आज उत्तराखंड की तस्वीर कुछ और होती। जनता ने राजनीतिक दलों, दोनों को ही बराबर मौका दिया, लेकिन वह हर बार भावनात्मक मुद्दों के नाम पर ठगी गई है। पिछले 24 वर्षों में हुए चार लोकसभा चुनावों में आपदा कभी बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया।राजनीतिक दलों की उपलब्धियों, राष्ट्रीय और राज्य के अवस्थापना और बुनियादी विकास से जुड़े मुद्दों के शोर में आपदा का मुद्दा हमेशा नेपथ्य में रहा, जबकि हिमालयी राज्य
उत्तराखंड हर साल बाढ़, भूस्खलन, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेलता रहा है। जबकि हिमालयी राज्य उत्तराखंड हर साल बाढ़, भूस्खलन, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेलता रहा है।

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केदारनाथ आपदा, रैणी आपदा, जोशीमठ आपदा…समेत तमाम ऐसे जख्म हैं, जिनमें सैकड़ों घरों के चिराग बुझ गए। हजारों करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों का नुकसान अलग हुआ। इन आपदाओं के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए फौरीतौर पर सरकारों ने प्रयास किए, लेकिन आपदाओं के जोखिम को कम करने के उपायों के बारे में राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों ने कभी गंभीर चुनावी चर्चा नहीं की। लगातार दरकते पहाड़ और खतरों के साये में जी रहे लोग, ये सवाल पूछे रहे हैं कि आपदा को कब मुद्दा माना जाएगा।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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