प्राकृतिक पानी (natural water) के स्रोत धारे
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाडों में अकसर किसी-किसी स्थान पर पानी के स्रोत फूट जाते हैं। इनको ही धारे कहा जाता है। यह धारे तीन तरह के होते हैं। पहला सिरपत्या धारा – इस प्रकार के धारों में वह धारे आते हैं जो सड़कों के किनारे या मंदिरों में अकसर या धर्मशालाओं के पास जहाँ पैदल यात्री सुस्ता सकें ऐसे स्थानों में मिल जाते हैं। इनमें गाय, बैल या सांप के मुंह की आकृति बनी रहती है जिससे पानी निकलता है और इसके पास खड़े होकर आराम से पानी पिया जा सकता है। इसका एक आसान सा उदाहरण नैनीताल से हल्द्वानी जाते हुए रास्ते में एक गाय के मुखाकृति वाला पानी का धारा है। दूसरा मुणपत्या धारा – यह धारे प्राय: थोड़ा निचाई पर बने होते हैं इनका निर्माण केले के तने या लकड़ी आदि से किया जाता है। तीसरा पत्बीड़या धारा – यह कम समय के लिये ही होते हैं क्योंकि यह कच्चे होते हैं। नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि स्थानों में भी इस तरह के धारे पाये जाते हैं।
से लेकर मैदान तक दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कोना होगा जहां अनियमित विकास के कारण ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का असर न दिख रहा हो। इन्हीं कारणों का परिणाम जल संकट के रूप में भी देखने को मिल रहा है, जिसका सामना भारत के 60 करोड़ से ज्यादा लोग कर रहे हैं। जल संकट न केवल लोगों के जीवन और आजीविका को प्रभावित कर रहा है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत असर डालता है और किसी भी देश में विकास की गति को धीमा कर देता है। ऐसे में, जिस गति से वर्तमान में जल संकट बढ़ रहा है, यदि ऐसा ही रहा तो भविष्य में अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा हिस्सा जल संकट से निपटने में खर्च होगा। तो वहीं, हर साल करोड़ों लोगों की असमय मौत भी पानी से जुड़ी विभिन्न समस्याओं के कारण हो सकती है, लेकिन वर्तमान और भविष्य में जल संकट की विकरालता को देखते हुए कई लोग पानी की हर बूंद को सहेजने के कार्य में जुटे हुए हैं। इन लोगों के प्रयासों का धरातल पर असर भी देखने को मिल रहा है। जिनके प्रयासों से नैनीताल के 6 गांवों में पानी का संकट खत्म हो गया है।
उत्तराखंड़ सैंकड़ों नदियों का उद्गम स्थल है। गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी पवित्र नदियों का जन्म उत्तराखंड़ में हिमालय की वादियों में हुआ है। इसी राज्य के सरोवर नगरी भी कहा जाता है, जो प्रारंभ से ही पानीदार रहा है, लेकिन जलवायु परिवर्तन और अनियमित विकास के कारण नौले-धारे सहित विभिन्न प्राकृतिक स्रोत सूख गए या सूखने की कगार पर हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों से उत्तर भारत की अधिकतर नदियां निकलती हैं, यहां से निकली नदियां कई लोगों की प्यास बुझाती हैं, लेकिन विडंबना है कि देश के एक बड़े हिस्से की प्यास बुझाने वाला उत्तराखंड खासकर गर्मी के मौसम में कई जगहों पर खुद प्यासा रहता है। इन जगहों पर लोगों को पानी का इंतजाम करने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है।
पिछले कुछ समय में उत्तराखंड में कई सारी योजनाओं के जरिए इस परेशानी को दूर करने की कोशिश की गई, दरअसल इन योजनाओं के तहत उत्तराखंड के पहाड़ों में कई जगहों पर हैंडपंप लगाए गए और कई जगहों पर पंपिंग स्टेशनों के जरिए नदी या छोटे नालों जैसे जल स्रोतों से पानी पहुंचाया गया। उसके बावजूद भी उत्तराखंड में पहाड़ों का एक बड़ा हिस्सा गर्मी के वक्त काफी परेशान रहता है, कई जलस्रोत सूख जाते हैं और हैंडपंपों में पानी नहीं रहता, ऐसे में उत्तराखंड के पारंपरिक जल स्रोतों धारों और नौलों की बात करनी काफी जरूरी हो जाता है।आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस समय भी टिहरी, पौड़ी और अल्मोड़ा जिले के कई हिस्सों में पीने के पानी की समस्या काफी विकराल है। यह समस्या हाल के दिनों में ज्यादा बढ़ी है। दरअसल लंबे समय से उत्तराखंड में लोग पीने के पानी के लिए पारंपरिक जल स्रोतों धारों और नौलों पर आश्रित थे।
हाल के समय में कई जगहों पर नल का पानी आने, जंगलों का अनियंत्रित दोहन और निर्माण कार्यों के लिए किए जा रहे ब्लास्टिंग या दूसरे कारणों से उत्तराखंड के आधे धारे और नौले सूख चुके हैं, इनकी हालत काफी खराब हो चुकी है। ऐसे में अब जरूरत है कि उत्तराखंड के इन धारों को पुनर्जीवित किया जाए। पृथ्वी में सबसे ज्यादा मात्रा में जल है। लेकिन उसका 96 प्रतिशत भाग खारे पानी का है। पीने योग्य पानी क, मात्रा प्रतिदिन घटते जा रही है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो जल्द ही हम लोग जल संकट से जूझने वाले है। और लंबे समय तक
बारिश न होने के कारण प्राकृतिक जल स्रोतों का जलस्तर काफी गिर गया है, इस कारण लोगो को प्राकृतिक जलस्रोतों में पानी भरने के लिए लंबा इंतजार करना पढ़ रहा है किन्ही स्थानों में प्राकृतिक जल स्रोतों के सूखने के बाद लोगो को नदियों के पानी से जीवन यापन करना पड़ रहा है।
मैदानी इलाको की पानी की जरुरत पूरी करने के लिए ग्रामीणों को पहाड़ो के साये में रोज पानी की किल्लर से जूझना पड़ता है।क्योकि सरकार और स्थानीय सामाजिक संस्थाओ के साथ साथ स्थानीय जन भागीदारी को भी आगे आकर हिमालय के सूख रहे पारम्परिक जल स्रोत नौले, धारे, गाड़-गधेरो के साथ वहां की जैव विविधता को भी बचाना होगा और अब ऐसे संतुलित कानून बनाने होंगे। वर्तमान समय में जैव विविधता से
समृद्ध हिमालय की सुंदरता और शांति मानवीय हस्तक्षेप से दांव पर है। ख़तरे की घंटी बज चुकी है, जलवायु परिवर्तन के कारण 50 प्रतिशत से ज्यादा जल धाराएं सूख चुकी है, और जो बची है उनमें भी सीमित जल ही बचा है अगर हम अभी भी नहीं सुधरें तो वो दिन दूर नहीं जब गंगा यमुना जैसी सतत वाहिनी नदिया को बनाने वाली जलधाराएं सूख जाएगी और तब स्थिति कितनी भयावह होगी ये आप कल्पना कर सकते हैं। वैसे तो हिमालय को एशिया का वाटर टावर कहा जाता है और इससे निकलने वाले गलेशियर और नदियों करोड़ो लोगो की पानी की आपूर्ति करते हैं।
लेकिन आज के समय में गर्मी के मौसम में उत्तराखंड के लगभग पांच में से एक गांव में पानी की कमी होती है और लोगो को पीने के पानी के लिए मीलों तक चलना पड़ता है। लेकिन शासन और प्रशासन की योजनाओं तथा भाषणों की सच्चाई धरातल पर बिल्कुल अलग है। जिस कारण गहराता जल संकट लोगों को एक गंभीर समस्या की तरफ धकेल रहा है। इसके लिए जल संरक्षण के कार्यों को प्राथमिकता देते हुए, इन्हें युद्ध स्तर पर करने की जरूरत है। इस ओर ध्यान नहीं दिया तो आने वाली पीढ़ी को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )