अविस्मरणीय कार्य, दो सौ साल पहले उत्तराखण्ड की “जसूली” ने बना डाली 400 धर्मशालाएं - Mukhyadhara

अविस्मरणीय कार्य, दो सौ साल पहले उत्तराखण्ड की “जसूली” ने बना डाली 400 धर्मशालाएं

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अविस्मरणीय कार्य, दो सौ साल पहले उत्तराखण्ड की “जसूली” ने बना डाली 400 धर्मशालाएं

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड

ब्रिटिश शासन काल 19 वीं शताब्दी में एक महा दानवीरांगना, महान समाज सेविका उत्तराखण्ड के सुन्दरतम हिम पर्वत श्रृंखला न्यौला पंचाचूली ; पाँच पाण्डव हिम शिखर के ठीक सामने बसा ग्राम दाँतु, परगना- दारमा ;दारमाघाटी में रहती थी, जिनका नाम श्रीमती जसुली देवी दताल रंस्या ;भोटस्या था। उत्तराखण्डी लोग और पड़ोसी नेपाल देश जन आमा ;लला जसुली देवी को शौक्याणी, भोटस्या, रंस्या के नाम से सम्बोधित कर याद करते हैं।

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इस महा दानी महिला का जन्म हिमशिखरों से घिरी अतुल्य प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण ग्राम दांतु के दानजन पट्टी के नूमराठ/ नूमजन राठ में हुआ था। बचपन से ही लला जसुली देवी विलक्षण प्रतिभा की धनी थी। उन्होंने किशोरावस्था में समाज में फैली कुरीतियों-बुराइयों को दूर करने हेतु धर्मिक अनुष्ठान और सामाजिक कार्य को सम्पन्न करवाने में समाज सेविका की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इस तेजवान ओजस्वी कन्या का विवाह दांतू के ही यानजन-पट्टी के जंगबो राठ के जंगबु सिंह दताल जी से हुआ, वे दारमा घाटी के धन-वैभव से सम्पन्न और सबसे प्रतिष्ठित परिवार से थे। आज से कोई पौने दो सौ बरस पहले दारमा के दांतू गाँव में जसुली दताल नामक एक महिला हुईं। दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रं (या शौका) समुदाय के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे थे अतीत में जब कुमाऊं के पहाड़ी क्षेत्र मोटर मार्ग से नहीं जुड़े था, तब पिथौरागढ़, बागेश्वर और अल्मोड़ा के निवासी हल्द्वानी तक का सफर पैदल ही तय किया करते थे। इन मार्गों से लोग पैदल ही तीर्थाटन यानी कैलाश मानसरोवर समेत अन्य धार्मिक स्थल के लिए जाया करते थे। तब 19वीं सदी में जसुली अम्मा ने धारचूला से लेकर टनकपुर और काठगोदाम तक अपने खर्च से पैदल रास्ते में करीब200 धर्मशालाएं बनवाई थीं, ताकि राहगीरों को आवास की सुविधा मिल सके। आज ये धरोहर खत्म होने की कगार पर हैं। अल्मोड़ा समेत कई जगहों पर जसुली द्वारा बनाई गईं ये धर्मशालाएं आज भी मौजूद हैं, लेकिन उपेक्षा के चलते यह धर्मशालाएं आज जीर्ण-शीर्ण हालात में हैं।

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जानकार बताते हैं कि धारचूला की दारमा घाटी के दातू गांव की जसुली अम्मा बड़े व्यापारी घराने से ताल्लुक रखती थी। व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रं समाज के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे थे, जिसके चलते वे पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके में काफी धनी लोग माने जाते थे। काफी धनसंपदा की इकलौती मालकिन उस दौर में जसुली अम्मा थी, जो अल्पायु में विधवा हो गयी थी और अपने इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो जाने के कारण निःसंतान रह गयी थी। काफी धन होने के कारण उन्होंने समाजसेवा के कार्य करने की सोची। उस दौर में लोगों की पैदल यात्रा को देखते हुए जसुली ने उनके विश्राम के लिए रास्तों के किनारे सैकड़ों धर्मशालाओं के निर्माण करवाये। उन्होंने ब्रिटिश दौर में तत्कालीन अंग्रेज कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे को अपना सारा धन दान कर दिया था।उन्होंने काठगोदाम से लेकर अल्मोड़ा, धारचूला और टनकपुर तक पैदल रास्ते पर सैकड़ों धर्मशालाएं बनाई।  इन जगहों में जसुली की बनवाई 150 धर्मशालाएं अब तक प्रकाश में आ चुकी हैं। इसके अलावा जसुली द्वारा नेपाल में भी सैकड़ों धर्मशालाए बनाई गई थी, ताकि सफर में निकले यात्रियों को थकान मिटाने व रात को ठहरने की सुविधा मिल सके। इसे संयोग ही कहेंगे कि उसी दौरान उस दुर्गम इलाके से कुमाऊँ के कमिश्नर रहे अँगरेज़ अफसर हैनरी रैमजे का काफिला गुजर रहा था। रैमजे लंबे समय तक गढ़वाल—कुमांऊ के कमिश्नर रहे थे। उन्हें 1840 में कुमांऊ का सहायक कमिश्नर बनाया गया था। इसके बार उन्हें 1856 में गढ़वाल और कुमांऊ कमिश्नर बनाया गया था। उन्होंने 28 साल तक इस क्षेत्र में काम किया। रैमजे अपनी नेकदिली के लिये मशहूर थे और स्थानीय लोग उन्हें रामजी कहा करते थे। रैमजे ने बिनसर में अपने लिये बड़ा बंगला बनवाया था जिसे खाली कहा जाता था क्योंकि रैमजे बहुत कम समय तक वहां रहे थे।

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सरकार के इस प्रयास से ब्रिटिशकालीन ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित करने का अवसर प्राप्त होगा। ये धर्मशालाएं तत्कालीन शासन में कैलाश मानसरोवर तक भारतीय पहुंच को प्रमाणित करती है। महान दानी जसुली देवी सौक्याणी ने 18 वीं सदी में पूरे कुमाऊं भर कई धर्मशालाओं और पैदल रास्तों का निर्माण करवाया था। इनका संरक्षण जरूरी हैअल्मोड़ा में 30, चंपावत में हैं तीन धर्मशालाएं रैमजे ने नेपाल के महेन्द्रनगर और बैतड़ी जिलों के अलावा तिब्बत में भी ऐसी कुछ धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।

माना जाता है कि इनकी कुल संख्या दो सौ के आसपास थी और इन में पीने के पानी वगैरह का समुचित प्रबंध होता था. इस सत्कार्य ने जसुली दताल को इलाके में खासा नाम और सम्मान दिया जिसके चलते वे जसुली लला (अम्मा), जसुली बुड़ी और जसुली शौक्याणी जैसे नामों से विख्यात हुईं.पिथौरागढ़। जसुली दताल ने 30 धर्मशालाएं अल्मोड़ा जिले में बनवाई, जबकि चंपावत जनपद में तीन धर्मशालाएं हैं। बागेश्वर जिले में कोई धर्मशाला नहीं मिली है। जसुली ने यह धर्मशालाएं मुख्य व्यापारिक और कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग पर बनवाई थीं। पिथौरागढ़ के लिए काठगोदाम से अल्मोड़ा होते हुए अधिक आवाजाही होती थी। सभी धर्मशालाएं पुराने पैदल मार्ग के किनारे स्थित हैं।समय के साथ-साथ ये धर्मशालाएं खंडहरों में बदलती गईं, फिलहाल इनमें से कुछ ही संरचनाएं बची हैं और जो बची हैं उनकी स्थिति शोचनीय है. दो-तीन वर्ष पहले रं समाज ने इनके उद्धार के लिए एक बड़ा सम्मलेन भीमताल में आयोजित करवाया था। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद रं कल्याण संस्था ने शुरुआती सर्वेक्षण इत्यादि का कार्य शुरू कर करीब डेढ़ सौ धर्मशालाओं को चिन्हित भी कर लिया है। जितना संभव हो सकता है उतनी मरम्मत वगैरह भी की गयी है। लेकिन इतने बड़े प्रोजेक्ट के लिए धन और अन्य व्यवस्थाओं का सवाल संस्था के लिए बहुत बड़ा है। आशा थी शासन की तरफ से इस मामले में अवश्य कुछ किया जाएगा महान दानवीर महिला स्व.जसुली दताल (शौक्याणी) की सुयालबाड़ी में स्थित ऐतिहासिक धरोहर की महत्वता बनाए रखने को इसे पर्यटन हब के रूप में विकसित किया जा रहा है।

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जीवनदायिनी कोसी नदी में भी विभिन्न गतिविधियां का संचालन के साथ ही पार्क का 34 लाख की लागत से निर्माण कार्य शुरू किया गया है।  तीर्थयात्रियों को होने वाली उन परेशानियों का जब मानसरोवर यात्रा की विषम भौगौलिक परिस्थितियों में मार्ग पर किसी तरह का रात्रि विश्राम का स्थान नहीं था 7 इतना ही नहीं दूर दूर तक अन्य इन्सानों का मिलना भी दूभर हो 7 ऐसे में इन धर्मशालाओं के निर्माण ने यात्रा को जितना आसान बनाया होगा उससे अधिक कई अधिक कठिन रहा होगा इनका निर्माण करवाना 7 क्यूंकि इनमें अधिकांश ऐसे निर्जन और उच्च हिमालयी स्थानों पर बनाई गयी है जहां आज भी पहुँचना किसी साहसिक पर्यटन से कम नहीं है। आने वाली सभी पीढ़ी को अधिकार है जानना और समझना निस्वार्थ सेवा और दृढ़ संकल्प से असंभव को संभव बनाने वाले इस कार्य के बारे में है 7 लिहाजा जासूली देवी के इस जीते जागते ऐतिहासिक प्रमाण को सहेजना और संरक्षण करना हम सबका दायित्व हैसमस्त नारी जगत को गौरवान्वित किया है। इतने सारे व्यापक स्तर पर धर्मशाला, पड़ाव घर, सराय और नौला; धारों का निर्माण और अन्य सामाजिक कार्यों को करवाने के लिए सामान्य आवश्यकता से अधिक सम्पूर्ण संचित धन-दौलत, बहुमूल्य सोने चाँदी के रत्नों, कुछ आभूषणों के साथ संचित खाद्य भण्डारों का महादान करना, उसकी महा दानवीरता, महान समाज सेविका की भावना को झलकाता है। ऐसी महा दानवीरांगना, महान समाज सेविका रंस्या भोंट महिला स्व. लला;आमा श्रीमती जसुली देवी दताल ने जो अमिट छाप छोड़ी, उनको हम सभी रं मं जन, प्राचीन भोट देश जनों, उत्तराखण्ड वासियों की आरेस से कोटि-कोटि नमन।

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