लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) में न हाथी चला न चली साइकिल
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
अलग उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़कर उसे जीतने वाला राज्य के सबसे पुराना क्षेत्रीय दल यूकेडी आज अपनों के बीच ही सबसे ज्यादा ग़ैर है।राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में 4 सीटें झटकने के बाद हर चुनाव में यूकेडी का ग्राफ़ लगातार गिरता रहा। कई बार टूटने के बाद दल में किसी तरह एकता तो हुई लेकिन इस लोकसभा चुनाव में बड़े नेताओं के चुनाव से किनारा करने के बाद आज इसकी स्थिति मात्र उपस्थिति दर्ज करने तक ही सिमट गई है। राज्य गठन के बाद से सरकारें बदलीं और सांसद भी बदले, लेकिन कई मोर्चों पर हालात में अभी तक बदलाव नहीं हुआ है। जब लोकसभा चुनाव आते हैं तो फिर से चुनाव में वहीं मुद्दे और दावे उभरकर आते हैं कोशिश भी कर, उम्मीद का रास्ता भी चुन, फिर थोड़ा मुकद्दर तलाश कर लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजते ही ये पंक्तियां उन घोषित और संभावित उम्मीदवारों पर सटीक बैठती हैं, जो मतदाताओं का दिल जीतने की भरसक कोशिश में ताल ठोकेंगे।
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उम्मीदवार पहाड़ की कठिन चढ़ाई और तराई-भाभर का मैदान मारने की हसरत लिए संसद की राह तलाशने की उम्मीद सजोएंगे। छोटे राज्य की राजनीतिक सोच और नजरिया लंबे समय से दो दल भाजपा-कांग्रेस के करीब ही रहा है। क्षेत्रीय दलों ने खुद को ज्यादा करीब साबित करने के लिए स्थानीय और भावनात्मक मुद्दों के साथ मजबूत उम्मीदवारों को भी उतारा, लेकिन आम मतदाताओं की अंगुली राष्ट्रीय दलों के बटन पर ही आकर रुकी। 2012 के परिसीमन से पहले और राज्य गठन के बाद 2004 में हरिद्वार से समाजवादी पार्टी के सांसद को भी संसद पहुंचाया।एक समय ऐसा भी था जब यहां के मतदाता राज्य में एक दल की सरकार बनाते और सांसद दूसरे दल का चुनकर भेजते। 2002 में राज्य में कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन पांच में तीन सांसद भाजपा के जीते। 2009 में भाजपा की सरकार बनी, लेकिन उसके सभी सांसद उम्मीदवार हार गए।
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2014 में राज्य में कांग्रेस की सरकार थी, बावजूद उसके उसका कोई भी उम्मीदवार नहीं जीत सका। मतदाताओं का मिजाज भांपने में भाजपा कुछ मायनों में आगे रही है। शायद यही कारण है कि लोगों ने अपनी बनाई रणनीति और परंपरा को तोड़ना बेहतर समझा। राज्य में पांच-पांच साल का फार्मूला भाजपा को जिताकर तोड़ा। 2019 में भाजपा के पांचों सांसदों को पुन: जिताकर भेजा, जबकि राज्य में भाजपा की सरकार थी। राज्य गठन के बाद ऐसा पहली बार हुआ था जब बसपा का यह हश्र हुआ। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यही स्थिति नजर आई। वह भी तब जब बसपा ने सपा से गठबंधन कर चार सीटों पर चुनाव लड़ा था। पार्टी को 4.5 प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा का मत प्रतिशत 4.9 प्रतिशत रहा और पार्टी ने दो सीटें जीतने में सफलता प्राप्त की। पांच लोकसभा सीट वाले उत्तराखंड के मतदाता कई मायनों में अपनी अलग पहचान रखते हैं।
देश में मतदान प्रतिशत में अव्वल गुजरात के बाद उत्तराखंड दूसरा राज्य रहा है, जो इस बार 75 प्रतिशत मतदान के लक्ष्य को साधकर नया कीर्तिमान गढ़ने को बेताब है। बीते तीन लोकसभा चुनावों के नतीजे देखें तो मतदाताओं ने पांचों लोकसभा सीटों पर एक जैसा फैसला सुनाया है। बीते दो चुनावों 2014 और 2019 में भाजपा के सभी उम्मीदवारों को संसद भेजा। 2009 में ऐसा ही मौका कांग्रेस को दिया था। राज्य गठन से पहले और बाद में कई बार ऐसे मौके भी आए, जब मतदाताओं ने अपनी गढ़ी परिपाटी को एक झटके में तोड़ा भी है। उत्तराखंड में 1950 के मूल निवास की समय सीमा को लागू करने की मांग की जा रही है।
नैनीताल हाईकोर्ट में वकील चंद्रशेखर करगेती बताते हैं कि देश में मूल निवास यानी अधिवास को लेकर साल 1950 में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन जारी हुआ था। इसके मुताबिक देश का संविधान लागू होने के साथ वर्ष 1950 में जो व्यक्ति जिस राज्य का निवासी था, वो उसी राज्य का मूल निवासी होगा। वर्ष 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने दोबारा नोटिफिकेशन के जरिये ये स्पष्ट किया था। इसी आधार पर उनके लिए आरक्षण और अन्य योजनाएं चलाई गई ।पहाड़ के लोगों के हक और हितों की रक्षा के लिए ही अलग राज्य की मांग की गई थी।उत्तराखंड बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी भाजपा सरकार ने राज्य में मूल निवास और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट वर्ष 1985 तय कर दी। जबकि पूरे देश में यह वर्ष 1950 है। इसके बाद से ही राज्य में स्थायी निवास की व्यवस्था कार्य करने लगी। लेकिन मूल निवास व्यवस्था लागू करने की मांग बनी रही।
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वर्ष 2010 में मूल निवास संबंधी मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने देश में एक ही अधिवास व्यवस्था कायम रखते हुए, उत्तराखंड में 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया।लेकिन वर्ष 2012 में इस मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि 9 नवंबर 2000 यानी राज्य गठन के दिन से जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा है,उसे यहां का मूल निवासी माना जाएगा।
तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अदालत के इस आदेश को स्वीकार कर लिया और इस पर आगे कोई अपील नहीं की। झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी मूल निवास का मुद्दा उठ चुका है। इन राज्यों में भी 1950 को मूल निवास का आधार वर्ष माना गया है और इसी आधार पर जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाते हैं। उत्तराखंड की पांचों सीटों पर पहले चरण में यानी 19 अप्रैल को मतदान होगा। जिसको देखते हुए जहां एक तरफ राजनीतिक पार्टियां चुनावी तैयारियों में जुटी हुई है तो वहीं दूसरी तरफ प्रदेश के तमाम हिस्सों से चुनाव बहिष्कार भी देखा जा रहा है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे लोग अपनी मांगों को लेकर चुनाव बहिष्कार की चेतावनी दे रहे हैं। अगर ग्रामीण चुनाव बहिष्कार करते हैं तो इसका फर्क न सिर्फ राजनीतिक दलों पर पड़ेगा, बल्कि मतदान फीसदी भी घट सकती है।
उत्तराखंड राज्य को बने हुए 23 साल हो चुके हैं, लेकिन स्थायी राजधानी का सवाल जस का तस है, सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों ने जन भावनाओं को हवा देकर इस मुद्दे पर राजनीति तो जमकर की, लेकिन समाधान करने के बजाय इसे हर बार आगामी वर्षों या चुनाव तक के लिए टाला जाता रहा है। राज्य आंदोलन से उपजी जन भावनाओं ने गैरसैंण को स्थायी राजधानी के रूप में देखा, लेकिन कभी भी अंतिम परिणाम तक नहीं पहुंचा।उत्तराखंड राज्य गठन के दौरान दो नये राज्यों का भी गठन हुआ। जहाँ राजधानी को लेकर कोई बहस नहीं है लेकिन उत्तराखंड में स्थायी और अस्थायी राजधानी के मुद्दे हर हमेशा बहस होती हुई नजर आती है।
9 नवंबर सन 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग एक राज्य का गठन किया जाता है जिसे उत्तराखंड कहा जाता है और राज्य को बने हुए 23 वर्ष से अधिक हो गए है। गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग राज्य बनने से 40 साल पहले 1960 की है। तब इसकी मांग पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने की थी। गैरसैंण, गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा पर स्थित है। दोनों मंडल के लोगों को सहूलियत होगी। इसी तर्क के आधार पर गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग की जाती रही है।1979 में स्थापित हुई यूकेडी ने अलग राज्य के लिए न सिर्फ़ आंदोलन छेड़ा था बल्कि यह राज्य हासिल भी किया।लेकिन यूकेडी न तो कभी अपने कुनबे को संभाल पाई और न ही कभी उद्देश्यों के प्रति गंभीर दिखी। पार्टी की स्थिति कितनी ख़राब है। इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी के बड़े नेता ऐन वक्त पर चुनाव लड़ने का साहस तक नहीं जुटा पाए।
उत्तर प्रदेश से पृथक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के लिए सालों तक यहां के लोगों ने आंदोलन किया। जिसमें शहीदों के बलिदान और राज्य आंदोलनकारियों के प्रयास से 9 नवंबर 2000 को पृथक उत्तराखंड राज्य बना। हालांकि तब राज्य का नाम उत्तरांचल रखा गया था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसका आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है।
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( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं )