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कई हेक्‍टेयर जंगल (forest) खाक होने के बाद विभाग को हुआ अहसास

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कई हेक्‍टेयर जंगल (forest) खाक होने के बाद विभाग को हुआ अहसास

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के आंकड़ों के अनुसार देश का 36 प्रतिशत वनक्षेत्र अक्सर वनाग्नि से धधकता रहता है और इसमें से भी 4 प्रतिशत क्षेत्र वनाग्नि की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। जबकि 6 प्रतिशत वनावरण अत्यधिक अग्नि प्रवण पाया गया है उत्तराखण्ड सरकार ने वनों में भड़की आग पर काबू पाने के लिए वायुसेना के हेलीकाप्टर मोर्चे पर उतार दिए हैं। वनकर्मियों की छुट्टियां रद्द कर दी हैं। इस पर सेवा निवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल एमसी भण्डारी इसे सेना का दुरुपयोग बताते हैं और कहते हैं कि सेना का उपयोग केवल बेहद गंभीर स्थितियों में तब किया जाता है जब सिविल एडमिनिस्ट्रेशन असफल हो जाता है औरस्थिति उसके नियंत्रण से बाहर हो जाती है। इससे लगता है कि उत्तराखण्ड का शासन प्रशासन जंगल की आग से निपटने में विफल हो चुका है और स्थिति उसके काबू से बाहर हो चुकी है। जबकि राज्य में वन नौकरशाही का आकार बहुत बड़ा है।

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जनरल भंडारी के अनुसार अगर सरकार स्थानीय निवासियों पर जंगल को बचाने की जिम्मेदारी सौंपे तो वे बेहतर नतीजे दे सकते हैं। वनों को बचाना स्थानीय निवासियों की आय से भी जोड़ा जाना चाहिए। जनरल के अनुसार इसी तरह हेमकुण्ड साहब की यात्रा के मार्ग से बर्फ हटाने का काम भी सेना को दे रखा है। यह काम स्थानीय निवासियों से कराया जाता तो स्थानीय आर्थिकी में सुधार होता। एक दौर में 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड में वन और जन के मध्य मजबूत रिश्ता रहा है। यहां के लोग वनों से अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के साथ ही इन्हें निरंतर पनपाते भी थे। वन अधिनियम 1980 के अस्तित्व में आने के बाद वन-जन के इस रिश्ते में दूरी बढ़ी।ऐसा नहीं है कि यहां के लोग वनों की सुरक्षा में सहयोग नहीं देते, लेकिन इसमें वर्ष 1980  से पहले जैसी बात नहीं हैं। इसके पीछे वनों के सरकारीकरण का भाव समाहित है। यही कारण भी है कि वनों की आग और तस्करों से सुरक्षा के मामले में जिस तरह का जनसहयोग मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पा रहा। जंगलों में आग की घटनाओं से बचने के लिए सबसे पुराना और बेहतरीन तरीका फायर लाइन है।

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फायर सीजन आने से पहले ही फायर लाइन तैयार की जाती है. ताकि आग की घटना होने पर फायर लाइन के आगे जंगलों को बचाया जा सके। इसके अलावा स्थानीय लोगों और ग्रामीणों का सहयोग लेकर भी आग की घटनाओं पर काबू पाया जा सकता है। स्थानीय लोगों में जागरूकता भी आग की घटनाओं पर रोकथाम के लिए बेहद कारगर हो सकती है. आग की घटना होने पर रिस्पॉन्सस टाइम को कम करके भी ज्यादा नुकसान से बचा जा सकता है।लंबी प्रतीक्षा के बाद सरकार को इसका अहसास हुआ और पिछले वर्ष से उसने कुछ कदम उठाने प्रारंभ किए। इसी कड़ी में वृक्ष संरक्षण अधिनियम में संशोधन करते हुए केवल 15 वृक्ष प्रजातियों को ही प्रतिबंधित श्रेणी में रखा गया। पहले इनकी संख्या 27 थी।सरकार के इन कदमों को आमजन को वन से जोडऩे के तौर पर देखा जा रहा है।

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अब इसमें एक और महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया गया है। वनों की आग से सुरक्षा के दृष्टिगत ग्राम स्तर पर वनाग्नि प्रबंधन समितियां गठित की गई हैं। अभी तक संवेदनशील और अति संवेदनशील क्षेत्रों में 415 समितियां गठित की जा चुकी हैं। अग्नि नियंत्रण में बेहतर कार्य के लिए इन समितियों को राज्य स्तर पर पारितोषिक देने का निश्चय किया गया है।वन मंत्री के अनुसार अग्निकाल में बेहतर कार्य के लिए 39 वनाग्नि प्रबंधन समितियों को पुरस्कृत किया जाएगा। इसमें एक लाख की राशि के 13 प्रथम पुरस्कार, 50 हजार के राशि के 13 द्वितीय और 25 हजार रुपये की राशि के 13 तृतीय पुरस्कार शामिल होंगे। निकट भविष्य में यह राशि बढ़ाई जा सकती है। इस कदम से वनों की आग से सुरक्षा के दृष्टिगत समितियों में प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ेगी।जब जागो तभी सवेरा।

वन विभाग पर यह कहावत सटीक बैठती है। लंबी प्रतीक्षा के बाद उसे अहसास हुआ है कि वन और जन के मध्य रिश्तों में कुछ खटास है, जिसे दूर करने की अब उसने ठानी हैशेष प्रजातियों को छूट के दायरे में रखा गया है, ताकि किसी व्यक्ति को आवश्यकता पडऩे पर पेड़ काटना पड़े तो उसे अनुमति के लिए विभाग के चक्कर न काटने पड़ें। इसके साथ ही राज्य की 11215 वन पंचायतों को आजीविका से जोड़ा जा रहा है। इसके लिए वन पंचायतों के अधीन वन क्षेत्रों में औषधीय व सगंध पादपों की खेती कराने को कदम उठाए जा रहे हैं। इस खेती की निकासी और मार्केटिंग का जिम्मा भी वन पंचायतों को दिया गया है। सरकारों ने वनों को आग के रहमोकरम पर छोड़ दिया हो। वनों के महत्व को देखते हुए ही संसद ने संविधान संशोधन के जरिये वनों को 1976 में राज्य सूची से निकाल कर समवर्ती सूची में शामिल कर दिया था ताकि वनों को बचाने में केन्द्र सरकार की सीधी दखल रहे।

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वनो में आग का पता लगाने और त्वरित प्रतिक्रिया की सुविधा के लिए अग्नि टावरों, उपग्रह निगरानी, ड्रोन और रिमोट सेंसिंग प्रौद्योगिकियों जैसी आधुनिक व्यवस्थाऐं केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा की गई है।भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग उपग्रह द्वारा निरन्तर अग्निकांड़ों पर नजर जमाए हुए है। हर साल अग्नि सुरक्षा पर अरबों रुपये खर्च हो रहे हैं। लेकिन जंगल फिर भी धधक रहे है। इसका मतलब साफ है कि, इस दिशा में कमियां मौजूद हैं जिन्हें दूर किए जाने की जरूरत है। वन सीधे तौर पर स्थानीय समुदाय के जनजीवन से जुड़े होते हैं और बिना उनके वनों की सुरक्षा मुमकिन नहीं है। लेकिन वन नौकरशाही का रवैया स्थानीय समुदाय के प्रति सहयोगात्मक नहीं रहता। कभी लोग अपने जंगलों को स्वयं ही आग से बचाते थे लेकिन जब से जंगल सरकारी हो गये तब से कुछ लोगों द्वारा ही जंगलों में आग लगाने की घटनाएं प्रकाश में आ रही हैं। इसलिये जंगलों के प्रति लोगों के साथ ही वन नौकरशाही को भी जागृत किये जाने की आवश्यकता है।अक्सर वन विभागों को बजटीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक जागरूकता अभियान, प्रारंभिक पहचान प्रणाली, अग्निशमन उपकरण और कर्मियों के प्रशिक्षण जैसी आग रोकथाम गतिविधियों के लिए सीमित संसाधन होते हैं। इसलिए वन विभागों को बजट की शिकायत का मौका नहीं दिया जाना चाहिए।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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