सियासत: एक बार चूसा गया गन्ना, फिर नहीं चूसा जाता : हरीश रावत #harishrawat - Mukhyadhara

सियासत: एक बार चूसा गया गन्ना, फिर नहीं चूसा जाता : हरीश रावत #harishrawat

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देहरादून/मुख्यधारा

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत हमेशा मीडिया की सुर्खियां बने रहते हैं। विधानसभा चुनाव से पूर्व उन्होंने उत्तराखंड को उत्तराखंडियत जैसी एक ऐसी बेहतरीन थीम दी, जो कांग्रेस सहित भाजपा, उक्रांद के साथ ही आम जन के बीच भी खासी लोकप्रिय हुई।
हालांक हरीश रावत इस थीम की बदौलत भी अपनी चुनावी नैय्या पार नहीं लगा सके। कांग्रेस इस चुनाव में मात्र 19 सीटें ही जीत पाई। हरीश रावत स्वयं लालकुआं सीट से चुनाव हारे। इसके बाद भी वे चुप नहीं बैठे और लगातार मीडिया में छाए रहते हैं। इसका मुख्य कारण यह भी है कि उन्होंने राजनीति में चार दशक से अधिक समय से काफी कुछ सीखा है। अब वे अपने अनुभवों को आम जन के सामने शेयर भी करते हैं तो वे इसी में सुर्खियां बटोर लेते हैं।
अब इस बार उन्होंने कहा कि एक बार चूसा गया गन्ना फिर नहीं चूसा जाता। दरअसल हरीश रावत का कहने का तात्पर्य यह है कि जब देशभर में अन्ना आंदोलन की धमक दिखाई दे रही थी, वहीं से लोकपाल की मांग भी उपजी। इस पर हरदा कहते हैं कि वर्ष 2014 में गन्ना पूरी तरह चूस दिया गया और अन्ना भी लोकपाल के गन्ने को भूल बैठे। इसी बात पर हरीश रावत ने लोकायुक्त के बुझे हुए हुक्के को भी गुडग़ुड़ाने का शौक रखने वाले उन सभी लोगों व पत्रकारों को धन्यवाद दिया है।
आइए हरीश रावत के हूबहू शब्द आपके समक्ष भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं:-
आश्चर्य, आज भी कुछ पत्र और पत्रकार हैं जो लोकपाल-लोकायुक्त का बुझता हुआ हुक्का गुड़गुड़ाने का शौक रखते हैं।
लोकपाल तो 2014 में सत्ता परिवर्तन का टोटका था, जिस टोटके का इस्तेमाल कर सत्ता में आने वाले लोग उसको खुद ही एक अनचाही झंझट समझकर भुला चुके हैं। कभी मैंने संसदीय कार्य राज्यमंत्री के तौर पर कहा था कि “तू भी अन्ना, मैं भी अन्ना, आओ मिल बैठकर चूसें गन्ना”, वह गन्ना लोकपाल ही था। मगर मैं भूल गया एक बार चूसा गया गन्ना, फिर नहीं चूसा जाता।
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2014 में गन्ना चुस गया और अन्ना भी लोकपाल के गन्ने को भूल गये। 2016 में मैंने राज्य विधानसभा द्वारा संशोधित रूप में पारित कानून के तहत लोकायुक्त चयन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का हौसला किया। माननीय हाईकोर्ट के दिशा निर्देशन में दोनों कमेटियां, एक हाईकोर्ट के वरिष्ठ रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में और दूसरी कमेटी मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में माननीय हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के मार्ग निर्देशन में गठित हुई।
पहली कमेटी ने अपना दायित्व पूरा कर समय पर पत्रावली दूसरी कमेटी के सम्मुख प्रस्तुत कर दी। दूसरी कमेटी में राज्य के मुख्यमंत्री का मार्गदर्शन करने के लिए माननीय हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि के तौर पर वरिष्ठतम् न्यायधीश, प्रतिपक्ष के तत्कालीन नेता, एक वरिष्ठ मंत्री और विधानसभा के स्पीकर बैठे, सारी औपचारिकताओं को आगे बढ़ाया गया और औपचारिकताओं के आगे बढ़ने के बाद लोकपाल के प्रशासनिक विभाग द्वारा पत्रावली कमेटी के सम्मुख प्रस्तुत की गई और कमेटी ने सर्वसम्मत से न केवल लोकायुक्त का बल्कि लोकायुक्त बेंच का भी चयन कर माननीय राज्यपाल के पास अनुमोदनार्थ फाइल भेज दी। राज्य की राजनीति में कुछ परिवर्तन लाने की कोशिश हुई और उस कोशिश के बाद महामहिम राज्यपाल के इंस्टिट्यूशन की राज्य में स्वायत्तता समाप्त हो गई और उसका पहला विक्टिम उत्तराखंड को मिलने जा रहा लोकायुक्त और लोकायुक्त की बेंच हुई।
मुझे आश्चर्य है जब नई विधानसभा में सत्तारूढ़ दल औपचारिकता पूरी करने के लिए, ताकि विधिवत तरीके से #लोकायुक्त की मांग को दफनाया जा सके, प्रस्ताव लेकर के आया तो 2016 के घटनाक्रम के पात्र भी इस बात को भूल गए कि राज्य विधिवत तरीके से लोकायुक्त का चयन कर राज्यपाल को  पत्रावली भेज चुका है और पत्रावली के ऊपर राज्यपाल बैठे हुए हैं। ऐसा लगता है सब शीघ्रता में थे, क्योंकि मालूम था कि यदि विधेयक प्रवर समिति के पास जाएगा तो फिर वह अति प्रवर ही हो जाएगा और अति प्रबल भी हो जाएगा। वह इतना प्रबल हुआ कि 5 साल न राज्यपाल के पास लंबित बिल के विषय में कुछ सुनने को मिला और न प्रवर समिति के लंबित प्रस्ताव पर कुछ सुनने को मिला, तो इसलिए मैंने कहा कि उन लोगों को मैं फिर भी धन्यवाद देना चाहूंगा जो लोग लोकायुक्त के बुझे हुये हुक्के को भी गुड़गुड़ाने का शौक रख रहे हैं।

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