रंग- राग गीत-संगीत और नृत्य का अनूठा समावेश है कुमाऊँनी होली
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
कुमाऊंनी होली शास्त्रीय संगीत से उपजी है। ग्वालियर व मथुरा से भी मुस्लिम फनकार यहां आते रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने में भी कुमाऊं में होली का गायन होता रहा। 1850 से होली की बैठकें नियमित होने लगीं और 1870 से इसे वार्षिक समारोह के रूप में मनाया जाने लगा। देश में हर जगह होली का अपना अलग रंग दिखता है। उत्तराखंड की होली की बात करें तो इसका इतिहास काफी पुराना है।उत्तराखंड के कुमाऊं की होली बहुत खास मानी जाती है।कुमाऊं में ढोल नगाड़ों की धुन और लय-ताल और नृत्य के साथ गाई जाने वाली खड़ी होली अपना विशेष स्थान रखती है। संगीत सुरों के बीच बैठकी होली के भक्ति, शृंगार, संयोग, वियोग से भरे गीत गाने की परंपरा कुमाऊं अंचल के गांव-गांव में चली आ रही है। कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपरायें हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है। होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में क्वचीन बंधनं का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में
एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है।
हिमालय की गोद में बसा कुमाऊँ अंचल अपने नैसर्गिक सौंदर्य के अलावा सुदीर्घ और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के लिए भी विख्यात है। यहाँ मनाए जाने वाले अनेक लोक उत्सवों की तरह कुमाऊँनी होली का भी एक अलग अंदाज है। यहाँ की होली का अपना रंग है। अपनी विशिष्ट पहचान है। कुमाऊँनी होली तन को ही नहीं रंगती ,मन को भी उमंग से लबालब भर देती है।कुमाऊँ की होली में आंचलिक विशिष्टता है।अनूठा सौंदर्य बोध है। यहाँ की होली में रंग ,राग और रागनियों का अदभुत समागम है। ऋतुराज बसंत को यौवन का सूचक माना जाता है। बसंत ऋतु के आते ही समूची प्रकृति का यौवन एकाएक खिल उठता है। प्रकृति रंग -बिरंगी हो जाती है। विशिष्ट सुगंध और रंग लिए फूल खिलने लगते हैं। देश के अलग -अलग हिस्सों में लोग अपने -अपने अंदाज में बसंतोत्सव के रंग के आगोश में डूब जाते हैं। भारत के कोने -कोने में राग -रंग के उत्सव होली की धूम मच जाती है।
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होली भारत के प्राचीनतम त्यौहारों में शामिल है। लिहाजा होली पूरे भारत में मनाई जाती है।भारत के अलग -अलग हिस्सों में होली मनाने का अंदाज जुदा है। स्थानीय इतिहास ,मान्यता और परंपराओं के मुताबिक समय और क्षेत्र के अनुसार होली का स्वरूप बदल जाता है। होली की इस विविधता को कुमाऊँ अंचल में बेहतर तरीके से समझा और महसूस किया जा सकता है। भारत के दूसरे क्षेत्रों की बनिस्बत कुमाऊँ की होली का रंग कुछ अनोखा है। यहाँ होली महज एक दिन का पर्व नहीं बल्कि महीनों चलने वाला सांस्कृतिक लोक उत्सव है। पहाड़ के कई इलाकों में पूस के पहले इतवार से रामनवमी तक होली की बैठकें जमती हैं। कुमाऊँ की होली के मायने हुड़दंग नहीं है। बल्कि राग -रागनियों की सामूहिक अभिव्यक्ति है। परालौकिक विश्वास है। स्थानीय परंपराओं,मान्यताओं और मिथकों का समावेश है। सरलता ,उन्मुक्तता और आत्मीयता है। रंगों के जरिये अपनी सांस्कृतिक जड़ों से रिश्ता कायम रखने की कोशिश है।
लोक – मानस में निहित आस्था की अभिव्यक्ति है। कुमाऊँ की होली में प्रत्येक कालखण्ड के सामाजिक इतिहास,परंपरा ,धर्म और संस्कृति के गहरे रंग दिखाई देते हैं। कुमाऊँ की होली के गीतों में यथार्थ और कल्पना का अनोखा मिश्रण है। यहाँ के होली गीतों में भक्ति ,रस ,कला ,माधुर्य ,आमोद -प्रमोद और हँसी – ठिठोली का अदभुत समावेश है। देवताओं से जुड़े ज्यादातर होली गीतों की विषय – वस्तु पौराणिक आख्यान से जुडी है। रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंग भी होली गीतों की विषय – वस्तु बने हैं। गणेश ,शिव ,पार्वती की प्रार्थना ,राधा -कृष्ण और राम -सीता द्वारा खेले जाने वाले रंग का वर्णन है। परदेस गए पति की प्रतीक्षा करती नवयौवना की भावनाएं हैं। देवर – भाभी के बीच की हँसी -ठिठोली है। कुमाऊँनी होली में ब्रज और उर्दू का गहरा प्रभाव है। विशुद्ध स्थानीय भाषा -बोली में होली के गीत बहुत कम हैं। बावजूद इसके यहाँ की होली के गीतों में आंचलिक और सांस्कृतिक विशिष्टता साफ झलकती है। देश के दूसरे हिस्सों में प्रचलित होलियों से मिलते–जुलते हुए भी कुमाऊँनी होली कई मायनों में अलहदा है।
भारत के दूसरे हिस्सों में होली राग – रंग और उल्लास का पर्व है। पर कुमाऊँनी होली में राग – रंग ,उल्लास के साथ गीत ,संगीत और नृत्य पक्ष भी जुड़ा है। होली के पदों की सामूहिक अभिव्यक्ति ,नृत्य और संगीत कुमाऊँ की होली को देश के दूसरे हिस्से की होलियों से अलग करती है। कुमाऊँ में होली के तीन रूप प्रचलित हैं। बैठकी होली ,खड़ी होली और महिलाओं की होली।यहाँ पूस के महीने के पहले इतवार से बैठकी होली शुरू हो जाती है। कुमाऊँनी बैठकी होली में ताल और रागों का गहरा ताल्लुक है। बैठकी होली में पूस के पहले रविवार से बसंत पंचमी तक भक्ति परख होलियां गाई जाती हैं। इन्हें “निर्वाण” की होली कहा जाता है। निर्वाण की होली गायन की शुरुआत आमतौर पर मन्दिरों के प्रांगण से होती है। सबसे पहले गणेश जी की स्तुति होती है -“तुम सिद्धि करो महाराज होली के दिन में। सिद्धि के दाता ,बिघन बिनासन ,हमरी राखो लाज ,होलिन के दिनन में।” इसके बाद शिव ,राम ,कृष्ण और दूसरे देवी -देवताओं की स्तुति की जाती है। होली के गीतों में देवताओं की दार्शनिकता और रहस्यात्मकता का वर्णन अधिक होता है।
निर्वाण की होलियों में आध्यात्मिकता और धार्मिक भावों की प्रधानता होती है। कुमाऊँनी बैठकी होली का भी अपना अनूठा अंदाज है। यह शास्त्रीय आधार के रागों को गाने की एक पारंपरिक शैली है। बैठकी होली में हारमोनियम ,तबला ,ढोलकी ,मजीरा और दूसरे वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल होता है। इस होली की खासियत यह है कि इसमें शास्त्रीय गायन की अनुशासनात्मकता होती है। बैठकी होली में कुछ विशिष्ट और रसिक लोग ही हिस्सा लेते हैं। राग – रागनियों पर आधारित होने बावजूद बैठकी होली का अंदाज प्रकारांतर में सामूहिक गायन जैसा ही होता है। बैठकी होली में राग की शुद्धता से ज्यादा भावाभिव्यक्ति और जन -रंजनता को वरीयता दी जाती है। खास बात यह है कि बैठकी होलियों को गाने वाले ज्यादातर लोग शास्त्रीय संगीत के जानकार नहीं होते हैं।
शास्त्रीय संगीत की बुनियादी जानकारी नहीं रखने वाले लोग भी राग – रागनियों पर आधारित होली गाते हैं। होली गायन की यह शैली श्रवण परंपरा से पीढ़ी -दर- पीढ़ी चलती आ रही है। शिवरात्रि से खड़ी होली शुरू हो जाती है। खड़ी होली का ग्रामीण इलाकों में ज्यादा प्रचलन है। इसमें आम लोगों की भागीदारी होती है। यह ढोलक ,नगाड़े और मंजीरे की लय पर सामूहिक रूप से गाए जाने वाली होली है।खड़ी होली का स्वरूप नृत्यात्मक होता है। इसी वजह से इसे खड़ी होली कहा जाता है। गोल घेरे में खास पद संचालन करते हुए सामूहिक होली गायन को खड़ी होली कहते हैं। शिवरात्रि को खड़ी होली का शुभारंभ शिव जी की होली से होता है। “जटन विराजत गंग,भोले नाथ दिगम्बर। शिव के जटन से निकसी गंगा ,जा सागर में समाई।”या फिर “तू भज ले भवानी शंकर को। भाल तिलक सिर गंग विराजे ,बास कियो गिरी हिमकर को।” बाद के दिनों में दूसरे देवी –देवताओं की स्तुति में होलियां गाई जाती हैं। “दसरथ को लछिमन बाल -जती ,बार बरस सीता संग रहिए ,पाप न लागो एक रती। “सुर ,ताल ,लय ,नृत्य और भाषा – बोली के लिहाज से कुमाऊँ की खड़ी होली देश के अन्य हिस्सों में प्रचलित होलियों से कतई जुदा है।
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सामूहिक गायन शैली के चलते खड़ी होली में सुर ,ताल ,लय और नृत्य सभी में एक विशेष प्रकार की सादगी होती है। अधिकांश खड़ी होलियों में संगीत के स्तर पर अंतरा नहीं होता। खड़ी होली “हाँ” लय से प्रारंभ होती है और धीरे – धीरे तेज होती चली जाती है। इसमें नृत्य भी हाथों की भावपूर्ण भंगिमा ,सहज पद संचालन और शरीर की लचक तथा झौंक तक सीमित होता है। रंग पड़ने के साथ ही चीर बंध जाती है। को ए उ बांधनि चीर रघुनन्दन राजा? को ए उ खेलनि फ़ाग रघुनन्दन राजा?” पूर्णमासी आते ही होली श्रृंगार प्रधान हो जाती है। “तोसे पूछूँ बात बहू चादर में दाग कहाँ लायो….।”या ” कहो तो यैं रमि जायँ गोरी नैना तुमारे रसा भरे।” “चलत पवन ऋतु आई फागुन की। जियरा मोरा नहीं मानत री..।” कुछ दिन बाद होली का श्रृंगार रस पूरे जोबन में आ जाता है। “हो झुकि हो मोरे यार जालिम नैना तेरे। नैन बने मिसरी के कुंजे,झुरी -झुरी मरत गंवार। जालिम नैना तेरे।”दूसरा पक्ष भी पीछे नहीं रहता। “तू करि ले अपनों ब्याह देवर हमरो भरोसो झने करियै। कुमाऊँ में होली का तीसरा रूप है – महिला होली। महिलाओं की होली का स्वरूप बैठकी या खड़ी होलियों से कुछ भिन्न है। घर – घर महिला होली की बैठकें जमती हैं। खूब स्वांग होते हैं।
होलियों की धूम मचती है। महिला होली के गायन का एक निश्चित क्रम होता है। “फागुन के दिन चार सखी री,अपनों बलम मोहे माँग हूँ दे री।” छलड़ी के दिन स्वांग खेले जाते हैं। होलियारों की टोलियां होली गाते हुए पूरे गाँव का भ्रमण करती है। ज्यादातर टोलियां गाँव के मंदिरों में जा मिलती हैं। देवताओं को रंग अर्पित कर विदाई की होलियां गाई जाती हैं। “रंग की गागर सर पै धरे ,आज कन्हैया रंग भरे”.।” रंग के साथ आशीष का दौर भी चलता है।”गावैं ,खेलैं ,देवैं आसीस ,हो हो हो लख रे। बरस दीवाली बरसै फ़ाग ,हो हो हो लख रे। जो नर जीवैं ,गावैं फ़ाग ,हो हो हो लख रे। “इस मधुर – मोहिल गीत – संगीत ,नृत्य वाली कुमाऊँ की इस निराली होली में यहाँ की मिटटी की सौंधी सुगंध है।होली के जरिए कुमाऊँ के समृद्ध लोक जीवन की झलक देखी जा सकती है।कुमाऊँ की होली में राग -रंग के साथ इस अंचल के धार्मिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन के विविध पक्ष जीवंत रूप से जुड़े हैं। हिमालय और पर्यावरण यहाँ के धार्मिक,सामाजिक और सांस्कृतिक का अभिन्न अंग है।दूसरे लोक उत्सवों की ही तरह कुमाऊँ होली भी युगीन चेतना और सामाजिक सरोकारों से अभिन्न रूप से जुडी है।
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कुमाऊँनी होली के गीत समकालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का भी बखूबी चित्रण करते हैं। इन गीतों में विशिष्ट भौगोलिक और प्राकृतिक विशेषताएं भी दिखाई देती हैं। इसे कवि चारु चन्द्र पाण्डे की रचना के इस अंश से बखूबी महसूस किया जा सकता है – “बुरुशी का फूलों को कुम कुम मारो ,डाना काना छाजि गै बसंती नारंगी। पारवती ज्यूकि झिलमिलि चादर ,ह्यूं कि परिन लै रंगे सतरंगी। लाल भई छ हिमांचल रेखा ,शिव जी की शोभा पिङलि दनिकारी कुमाऊं में क्वचीर हरणं का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे क्वनिशानं का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद क्वनिशानोंं की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है।
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बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह क्वनिशानं मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में ‘निशान’ का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से शुरू कर सबसे छोटे पुरुष सदस्य का नाम लेकर ‘जीवें लाख बरीस… हो हो होलक रे…’ कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है। पहले होल्यारों को वह सम्मान नहीं मिल पाता था, जिसके वे हकदार थे। अगर वे अन्य गायकी में निपुण नहीं होते, तो उन्हें चन्द रोज का मेहमान मानकर दरकिनार कर दिया जाता था। कहा जाता था- “पूस के पहले इतवार से ये जागेंगे और छलड़ी खेलकर ये फिर सो जाएंगे।” परिवार और समाज में होल्यारों की गायक के रूप में कोई मान्यता नहीं मिलती थी। कलाकार इज्जत का भूखा होता है। उसे मान्यता और सम्मान मिलना बहुत जरूरी है। इसी को ध्यान में रखते हुए होली महोत्सव के दौरान होली के हर अंग यानी बैठी, खड़ी और महिला होली कलाकारों के सम्मान के लिए बाकायदा एक सम्मान समारोह शुरू हुआ, जिसमें प्रति वर्ष कुछ चुनिन्दा बजुर्ग होल्यारों को गरिमापूर्ण ढंग से खुले मंच पर जनता के बीच सम्मानित किया जाने लगा।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)