शिक्षा के लिए पलायन कर रहे उत्तराखंड के पर्वतीय जिलें - Mukhyadhara

शिक्षा के लिए पलायन कर रहे उत्तराखंड के पर्वतीय जिलें

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शिक्षा के लिए पलायन कर रहे उत्तराखंड के पर्वतीय जिलें

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

मानव जीवन में शिक्षा मनुष्यों को न केवल विद्वान व विचारक बनाती है बल्कि वास्तविक शिक्षा उन्हें जीवन में उदार एवं चरित्रवान रहने का पाठ भी पढ़ाती है। जीवन यापन के लिए अधिक अवसर जुटाना, राष्ट्र के विकास के उपयुक्त मार्ग खोजना, मानवमूल्यों के प्रति संवेदना जगाना शिक्षा का मूल उद्देष्य होता है। इसलिए शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा कही जाती है। भारत में इस तथ्य को भारतीय संस्कृति के उदय के समय से ही
आत्मसात कर लिया गया था। इसके कारण भारत न केवल अपनी संस्कृति एवं दर्शन के लिए विश्वभर में जाना जाता रहा है बल्कि वह एक पथ प्रदर्शक का कार्य भी करता रहा है।आजादी के बाद भारत के लिए न केवल बुनियादी शिक्षा का प्रसार महत्वपूर्ण हो गया बल्कि उच्चशिक्षा की प्रांसिगता बढ़ाना भी चुनौती बन कर सामने आयी। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए हम अपने युवाओं को किस प्रकार शिक्षित व प्रशिक्षित करें, इस उद्देष्य से भारत सरकार ने तत्कालीन उच्चकोटि के शिक्षाविदों एवं विचारकोंं के अधीन शिक्षा आयोग का गठन किया।

आजाद भारत में सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन की अघ्यक्षता में पहला शिक्षा आयोग बना। उच्चशिक्षा सहित हर स्तर की शिक्षा के लिए विकास व संवर्धन के लिए बनाया गया यह पथप्रदर्षक दस्तावेज सरकारों, विश्वविद्यालयों, शिक्षकों व छात्रों के लिए सुझावों, कार्ययोजनाओं व देश में शिक्षा के माध्यम से आर्थिक प्रगति करने के उपायों से परिपूर्ण था। इसको भारतीय परम्पराओं, तत्कालीन परिस्थितियों एवं भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इसके द्वारा अपेक्षा की गयी थी कि हमारी शिक्षा ऐसी होगी जो ऐसे युवाओं का निर्माण करेगी जो अपनी राजनैतिक, प्रशासनिक अथवा व्यवसायिक क्षेत्रों में उच्चस्तरीय कार्य कर समाज सुधार एवं जनतांत्रिक प्रणाली को सफल बना सकें।

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आजादी के बाद उच्चशिक्षा को समवर्ती सूची में रखा गया ताकि केन्द्र एवं राज्य दोनों सरकारों के माध्यम से इसका संचालन किया जा सके। तद्नुसार ही शिक्षा के क्षेत्र को विकसित करने का प्रयास किया गया। परन्तु शिक्षा पर किए जाने वाले बजट की सीमा इतनी कम रखी गयी कि सरकारी शिक्षण संस्थाएं आधारभूत संसाधनों के अभाव, शिक्षकों की कमी एवं बढ़ती छात्र संख्या के कारण अपेक्षित दक्ष मानव संसाधन नहीं जुटा पाया। इसलिए समय-समय पर विभिन्न आयोगों के माध्यम से शिक्षा की गुणवता बढ़ाने के उद्देष्य से नीतियों में परिवर्तन किया जाता रहा।

पहाड़ में शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने के दावे खोखले हैं। जहां-तहां मनमाने तरीके से राजनीतिक हित के लिए महाविद्यालय खोल दिए गए, लेकिन इनमें गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा गया। प्राचीन समय से ही शिक्षा व संस्कृति के लिए प्रसिद्ध रहे अल्मोड़ा जिले में लोग लंबे समय से उच्च शिक्षा के लिए पलायन करने को मजबूर हैं। कहीं शिक्षक हैं तो छात्र नहीं। कई जगह भवन भी नहीं। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की स्थिति भी निराशाजनक है। पहाड़ में शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने के दावे खोखले हैं। जहां-तहां मनमाने तरीके से राजनीतिक हित के लिए महाविद्यालय खोल दिए गए, लेकिन इनमें गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा गया। प्राचीन समय से ही शिक्षा व संस्कृति के लिए प्रसिद्ध रहे अल्मोड़ा जिले में लोग लंबे समय से उच्च शिक्षा के लिए पलायन करने को मजबूर हैं।कहीं शिक्षक हैं तो छात्र नहीं। कई जगह भवन भी नहीं।व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की स्थिति भी निराशाजनक है।

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प्रदेश में 119 सरकारी  महाविद्यालय संचालित हैं। इनमें 36 स्नातकोत्तर और करीब 83 स्नातक स्तरीय कालेज हैं। कुमाऊं और गढ़वाल मंडल के बड़े पीजी कालेजों को छोड़ दें तो अन्य छोटे महाविद्यालयों में विद्यार्थी कम प्रवेश ले रहे हैं। प्रदेश के दूरस्थ क्षेत्रों में सरकार ने डिग्री कालेजों को इसलिए खोला था कि विद्यार्थियों का पलायन न हो। महाविद्यालय तो खोल दिए गए मगर इनमें संसाधनों की कमी बनी हुई है। कई कालेजों के पास अपने भवन तक नहीं हैं। साथ ही बैठने के लिए पर्याप्त स्थान तक नहीं है। ऐसे में संसाधनों के अभाव में पहाड़ में खोले गए कालेज छात्रों की पसंद नहीं बन पाए। मगर पूर्व खुले कालेजों में सामान्य काल, विज्ञान और वाणिज्य के कोर्स ही हैं। जबकि वर्तमान समय में उद्योगों में प्रोफेशनल पढ़ाई किए हुए युवाओं को रोजगार में प्राथमिकता दी जा रही है। ऐसे में विद्यार्थी इंटरमीडिएट के बाद रोजगारपरक कोर्स करने हल्द्वानी और देहरादून का रुख कर रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में खोले गए छोटे कालेजों में सीटें खाली रहने के पीछे यह भी बड़ा कारण माना जा रहा है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विद्यार्थियों को अपनी स्ट्रीम के साथ दूसरे संकाय के पसंदीदा विषयों को चुनने का विकल्प भी दिया गया है। मगर प्रदेश के कई यूजी कालेज ऐसे हैं जहां एकल संकाय ही संचालित है और उसमें भी सभी विषय नहीं हैं। ऐसे में विद्यार्थियों को अन्य पसंदी विषयों का विकल्प नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में एनईपी की असल अवधारणा भी पूरी नहीं हो रही है।दो दशकों से उत्तरप्रदेश का हिस्सा रहा उत्तराखंड अन्य प्रदेशों की तुलना में नया व युवा प्रदेश है। यहां की भौगोलिक व जटिल परिस्थितियां इसके विकास में अलग प्रकार की समस्याएं पैदा करती रहती है। शिक्षा के क्षेत्र में भी ये समस्याएं देखी जा सकती हैं। तथापि यह स्कूली शिक्षा का एक बड़ा हब बना और उच्च शिक्षा के विकास में भी सरकारों द्वारा प्रयत्न किए जाते रहे।दुनिया में आबादी के हिसाब से दूसरे स्थान पर चल रहे भारतवर्ष का उच्चशिक्षा तंत्र चीन व अमेरिका के बाद सबसे बड़े तंत्र में आता है। वतर्मान में देश में 47 केन्द्रीय, 381 राज्य सरकारी, 123 डीम्ड और 291 निजी मिलाकर 900 के लगभग विश्वविद्यालय हैं।राज्य निर्माण के समय उत्तराखंड में मात्र 34 राजकीय स्नातक एवं स्नातकोत्तर महाविद्यालय थे। सहायता प्राप्त एवं निजी महाविद्यालयों की संख्या 60  के लगभग थी जिनमें अधिकांश संस्कृत की शिक्षा से समब्न्धित थे।

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राज्य में वर्ष 2000 से पूर्व तीन राजकीय, एक डीम्ड विश्वविद्याालय और दो राष्ट्रीय महत्व के उच्चशिक्षा संस्थान थे। पिछले 23 वर्षों में उत्तराखंड में विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों में अभूतपूर्व संख्यात्मक वृद्धि हुई। इनमें सामान्य विषयों के अतिरिक्त तकनीकी , चिकित्सा, आयुर्वेद, कृषि, संस्कृत, प्रबन्धन से सम्बन्धित विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय सम्मिलित हैं। आज उत्तराखंड में 11 राजकीय व 25 निजी विश्वविद्यालयों के अधीन 114 राजकीय, 17 अनुदानित और 394 स्ववित्तपोशित उच्चशिक्षा संस्थान संचालित हो रहे हैं। एक केन्द्रीय विश्वविद्याालय  के अलावा आई.टी.आई. रुड़की, एम्स हृषिकेश, आई.आई.एम. एन.आइ.टी. सहित राज्य में राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों की संख्या 07 हो गयी है। इतने नए व छोटे राज्य में इतनी बढ़ी संख्या में शिक्षण संस्थाओं के होने पर हम गर्व अवश्य कर सकते हैं। परन्तु इसमें
समस्याओं का अम्बार भी उतना ही बड़ा है। वर्षों से कई महाविद्यालय भूमि व भवन की कमी के कारण अभाव में थे। पिछले वर्षों में यह स्थिति बहुत हद तक सुधर गयी है। अब तक चल रहे 106 राजकीय महाविद्यालयों में से 102 के अपने भवन हैं कुछ का विस्तार हो रहा है व कुछ निर्माणाधीन हैं।

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भारत सरकार द्वारा देश के विकास में शिक्षा के महत्व को देखते हुए शिक्षा के सभी स्तरों में सुधार करने और देश की युवा पीढ़ी को कौशल
विकास एवं रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ष 2020 में नई शिक्षा नीति बनायी गयी है। इस नीति के तहत छात्र/छात्राओं को सक्षम बनाने एवं उनके समग्र विकास के लिए संस्थागत पुनर्गठन एवं समेकन के माध्यम से शिक्षण संस्थाओं में सीखने के लिए अनूकूलतम वातावरण बनाना एवं छात्रों में सहयोग की भावना बढ़ाने हेतु प्रेरित व सक्रिय संकायों की स्थापना करना है।  उत्तराखंड सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति 2020 का प्रदेश में अधिग्रहण कर लिया गया है। इस नीति के कार्यान्वयन हेतु राज्यों को सक्रियता दिखाने के निर्देष व अपेक्षा भारत सरकार द्वारा की गयी है। इस क्रम में उत्तराखंड में एक टास्क फोर्स का गठन किया जा चुका है।नीति में उच्चशिक्षा के क्षेत्र में भी केन्द्र व राज्यों के स्तर पर विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के पुनर्गठन एवं सुद़ृणीकरण हेतु चरणबद्ध तरीके से योजना बनाने का प्रस्ताव है। नीति के तहत राज्य में विश्वविद्यालयों के स्तर पर पाठ्यक्रमों को सुधारकर उन्हें शिक्षण एवं शोध के लिए बहुविषयक बनाना है। सभी एकल विषयक महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों को बहु-विषयक करना भी नीति का एक हिस्सा है।

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राज्य सरकार चरणबद्ध तरीके से इस नीति के क्रियान्वयन की दिशा में काम कर रही हैं। परन्तु किसी भी अच्छी नीति का यदि क्रियान्वयन सम्पूर्णता में न हो तो नीति ही असफल हो जाती है। इसलिए प्रत्येक सरकार, नागरिक, शिक्षक व छात्र का योगदान शिक्षा की गुणवता बढ़ाने में होना आवश्यक है।शिक्षक की जवाबदेही: कक्षा में पढ़ाई संबंधी कार्यों की तुलना में गैर-शैक्षणिक कार्य को प्राथमिकता दिशा में काम हैं जिस तरह के मुद्दों पर आधारित ईमानदार विमर्श की अपेक्षा की जा रही थी, वह राजनीतिक गहमा-गहमी व वोटों की राजनीति में कहीं खो गया। उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है। मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना। हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है।

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जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं।उस वर्षगांठ को मनाने का औचित्य ही क्या है जिसमें उपलब्धियों व असफलताओं  की बैलेंस सीट ईमानदारी से न खंगाली जाए। अब लोग भी यह पूछने लगे हैं कि अलग राज्य बनने के बाद ऐसा क्या हुआ जो उत्तर प्रदेश में ही रहते तो नहीं हो पाता। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं। नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं। जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक
संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है।

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कर्मचारी-शिक्षक सबसे बड़ा वोट बैंक बन कर उभरा है। स्थिति यह है कि आर्थिक स्थिति कैसी भी हो कर्मचारी-शिक्षक यूनियनों के सामने सरकारें नतमस्तक होती रही हैं। यही वजह है कि 24 साल बाद भी आर्थिक-औद्योगिक प्रगति केंद्र की अपेक्षित मदद के बाद भी गति नहीं पकड़ पाई। विकास जो हो रहा है वह पूरी तरह से केंद्र के भरोसे। पीएम का उत्तराखंड के प्रति सकारात्मक रुख के कारण ढांचागत विकास पर तेजी से काम हो रहा है, पर सवाल है कि इतने सालों में प्रदेश इनका लाभ लेने की स्थिति में भी पहुंचा या नहीं। 24साल में 12 मुख्यमंत्री, राजनीतिक अस्थिरता की कहानी भी बयान करता है। अब सरकारी योजनाएं ठंडे बस्ते में नहीं पड़ी रहेंगी, बल्कि मुख्यमंत्री से लेकर मुख्य सचिव तक ऐसी योजनाओं पर हरपल नजर रख पाएंगे। सरकारी योजनाओं की निगरानी के लिए इंफार्मेशन डेवलपमेंट एजेंसी (आइटीडीए) ने उन्नति पोर्टल तैयार किया है।लेकिन पहाड़ के विकास के लिए कोई भी गंभीर नहीं है। पलायन जारी है। कोई ठोस नीति नहीं बनी है।  पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। वर्ष 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी।

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शहरों में अधिक आबादी रहने का मतलब है कि उनका आधारभूत ढांचा संवारने का काम युद्ध स्तर पर किया जाए ताकि वे बढ़ी हुई आबादी का बोझ सहने में समर्थ रहें और साथ ही रहने लायक भी बने रहें।आबादी में वृद्धि के कारण शहरों में हर साल लाखों वर्गमीटर जमीन की व्यवस्था करनी होगी। कोई भी समझ सकता है कि यह जमीन शहरों के आसपास के ग्रामीण इलाकों को नगरीय क्षेत्र घोषित करने से ही हासिल हो सकेगी। ग्रामीण क्षेत्र तो तेजी के साथ शहरों में समाते जाते हैं, लेकिन ऐसे क्षेत्रों का विकास बेहद कामचलाऊ से ढंग होता है। जिन भी सरकारी विभागों पर भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर शहरी ढांचे का निर्माण करने की जिम्मेदारी होती है वे नियोजित विकास के नाम पर खानापूरी तो करते ही हैं, अदूरदर्शिता का भी परिचय देते हैं। इसके चलते नया बना ढांचा कुछ ही समय बाद अपर्याप्त साबित होने लगता है। समस्या यह भी है कि जहां शहरों के नए इलाकों का अनियोजित और मनमाना विकास होता है वहीं पुराने इलाकों के जर्जर होते
ढांचे को दुरुस्त करने से बचा जाता है। इसी का नतीजा है कि हमारे शहर गंदगी, जलभराव, प्रदूषण, अराजक यातायात, अतिक्रमण, सघन आबादी वाले मोहल्लों और झुग्गी बस्तियों से घिरते जा रहे हैं।

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इन समस्याओं के मूल में है शहरीकरण से जुड़े विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार और साथ ही जवाबदेही का अभाव। इसके कारण ही नियोजित विकास की कदम-कदम पर अनदेखी भी होती है और सरकारी धन का दुरुपयोग भी।इसमें संदेह है कि केंद्र सरकार की सहायता से शहरों को में तब्दील करने वाली योजनाओं से शहरों की सूरत बदली जा सकेगी, क्योंकि शहरी ढांचे का विकास करने और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने की जिम्मेदारी तो उन नगर निकायों की है जो राज्य सरकारों के अधीन काम करते हैं। यह समझने की सख्त जरूरत है कि नगर निकायों की कार्यप्रणाली बदले बिना शहरों को संवारने का काम नहीं किया जा सकता।बेहतर हो कि केंद्र सरकार राज्यों को इसके लिए तैयार करे कि वे शहरीकरण की चुनौतियों से जूझने में गंभीरता का परिचय दें। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि ऐसी योजनाएं बनाई जाएं जिससे गांवों में शहरों जैसी सुविधाएं उपलब्ध हो सकें ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों को होने वाले पलायन की रफ्तार कुछ थमे। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है।

(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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