उत्तराखंड: जंगलों के लिए अभिशाप पिरुल (Pirul) बना रोजगार का जरिया - Mukhyadhara

उत्तराखंड: जंगलों के लिए अभिशाप पिरुल (Pirul) बना रोजगार का जरिया

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उत्तराखंड: जंगलों के लिए अभिशाप पिरुल (Pirul) बना रोजगार का जरिया

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र आज भी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में विकास की राह देख रहे हैं। मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा प्रति व्यक्ति आय यहां लगभग आधी है। इन पर्वतीय क्षेत्रों में कई अन्य चुनौतियां भी हैं जिनकी वजह से यहां पलायन की रफ्तार लगातार बढ़ रही है। सालाना जंगलों में लगने वाली आग भी इसका एक प्रमुख कारण है। इस आग की एक मुख्य वजह चीड़ के पत्ते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में पिरूल कहा जाता है। इन पत्तों में आग बहुत जल्दी पकड़ती है और देखते ही देखते पूरे क्षेत्र में फैल जाती है।

चीड़ के पेड़ भारत में ही नहीं, विश्व भर में पाए जाते हैं और इन का उपयोग विदेशों में कई प्रकार से किया जाता है। धीरे-धीरे भारत भी चीड़ के महत्व से परिचित हो रहा है और इस अभिशाप को एक वरदान के रूप में देखा जाने लगा है। उत्तराखण्ड के कई हस्तशिल्पकार चीड़ के पत्तों से आभूषण और रोजमर्रा की वस्तुएं जैसे टोकड़ी और सजावट के सामान बना रहे हैं और इनकी मांग देश-विदेश में बहुत ज्यादा है। चीड़ के पत्तों से ग्रीन टी, इसकी छाल से कई हस्तशिल्प और यहां तक कि कुकीज भी बनाए जा सकते हैं। मुंह के छालों से छुटकारा पाने में चीड़ के पेड़ से निकलने वाला गोंद काफी फायदेमंद साबित होता है। इसके गोंद से गार्गिल करने से इस समस्या से निजात मिल जाती है।

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चीड़ को विटामिन सी का पावर हाउस कहा जाता है। विटामिन की मात्रा शरीर में जाने से शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र काफी मजबूत होता है। इससे विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव संभव है। साथ ही इस पेड़ के छिलकों में काफी ज्यादा मात्रा में विटामिन सी मौजूद होता है। पाइन अथवा चीड़ की छाल में विटामिन ए और कैरोटिनाइड की मात्रा भी काफी अधिक होती है। कैरोटिनाइड वास्तव में एक प्रकार का एंटी-आॅक्सीडेंट है,
जो खास-तौर से आंखों की रोशनी को बढ़ाने का काम करते हैं।

चीड़ में मौजूद विटामिन ए बालों और त्वचा के लिए भी लाभकारी होता  कला के विविध रूपों को समेटे द्वाराहाट निवासी मंजू आर साह विभिन्न जिम्मेदारियों की व्यस्तता के बावजूद अपनी क्राफ्ट कला के हुनर से कमाल कर रही हैं। पिरूल से सौंदर्य प्रशाधन सहित कई घरेलु सामान बनाती हैं। पुराने अखबार को रद्दी समझने वालों को भी उन्होंने अपनी कला से आईना दिखाने का काम किया है। वे ऑन लाईन व आफ लाईन प्रशिक्षण के साथ ही पर्यावरण के लिए भी कार्य कर रही हैं। महिला समूहों को प्र‌शिक्षण देने को विभिन्न स्थानों पर जाती रही हैं। उन्हें कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। कोलकाता में इंडियन इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल में बैस्ट अपकमिंग आर्टिस्ट्स पुरस्कार, शून्य निवेश नवाचार प्रशस्ति पत्र, लोक वाद्य प्रस्तुतिकरण हस्तशिल्प द्वारा सम्मान पत्र आदि पुरस्कार मिले।

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विज्ञान प्रतियोगित में अपशिष्ट प्रबंधन पर जिले से लेकर राज्य स्तर तक प्रतिभाग कर पुरस्कार हासिल किए। जंगलों को आग से बचाने के लिए
केदारनाथ वन्य जीव प्रभाग में 25 ग्राम पंचायतों की महिलाओं को प्रशिक्षण दिया। पर्यावरण व जल संरक्षण में भी उनकी बड़ी रूचि है।पिरूल की राखियों को उत्तराखंड और अन्य राज्यों के साथ साथ विदेशों में रहने वाले भी पसंद कर रहे हैं।

गीता कहती हैं, पिछले साल उन्हें अमेरिका से पिरूल की राखियों की डिमांड आई। जिससे उन्होंने अच्छी खासी आमदनी की है। इसके अलावा जम्मू कश्मीर के साथ ही गाजियाबाद, दिल्ली, देहरादून, नोएडा, फरीदाबाद से भी पिरूल की राखियों की डिमांड आती रहती है। चीड़ के पेड़ से प्राप्त होने वाला पिरूल महिलाओं को रोजगार देने के साथ ही अपने उत्पादों से पर्यावरण को भी संवारने का काम कर रहा है। चंपावत में महिलाएं पिरूल से बैग, पर्स, टोपी, टोकरी, टी कोस्टर, राखी से लेकर आभूषण तक बना रही हैं।

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साह का कहना है कि वे इस बात से दुखी हैं कि अपने राज्य में कलाकारों को अपेक्षित सम्मान नही मिल पाता है। बाहरी राज्यो के लोग क्राप्ट कला के बड़े मुरीद हैं बाहरी राज्यों से बुलावा आते रहता है। परंतु उत्तराखंड में वैसी पूछ नही है। बताती हैं कि उन्हें पुरानी चीजों को सहेजने का भी शौक है। इस तरह की कई चीजें उन्होंने रखी हैं। मौजूदा समय में न सिर्फ वह ऑनलाइन और ऑफलाइन माध्यम से बिक्री कर आय अर्जित कर रही हैं। बल्कि महिलाओं को  हुनरमंद बनाकर उन्हें आत्मनिर्भर भी बना रही हैं। उन्होंने पिरूल के रेशों से टोकरी, बैग, हस्तशिल्प आदि बनाकर प्रेरक कार्य किया है। निःसंदेह उनकी यह पहल जहां ग्रामीणों की आजीविका की संभावना को दर्शाता है, बल्कि इसे प्लास्टिक के विकल्प के रूप में बढ़ावा दिया जा सकता है, क्योंकि ये उत्पाद पूर्णतः इको फ्रेंडली हैं। इसके व्यावसायिक प्रयोग पर न तो आज तक कोई अनुसंधान हुआ और यदि सीमित मात्रा में हुआ भी है तो उसको धरातल पर नहीं उतारा जा सका।

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सन् 1970 के दशक में नैनीताल जिले के कैंची नामक स्थान में च्नवीन पाइनैक्सज् नाम से नवीन नाम के एक उद्यमी ने पिरूल से रेशा तैयार कर वस्त्र उद्योग में इसका इस्तेमाल किये जाने हेतु पहल की। कुछ महीनों तक नवीन पाइनैक्स ने स्थानीय लोगों से पिरूल एकत्र करवाकर इस दिशा में काम भी किया लेकिन इस पाइलट प्रोजैक्ट को उत्पादन शुरू करने से पूर्व ही बन्द करना पड़ा।  इसके पीछे शासन स्तर की
उदासीनता रही या उद्यमी की अपनी कोई परेशानी, लेकिन इस दिशा में भविष्य में कोई प्रोजैक्ट शुरू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. टोकरी, बैग आदि बनाकर प्रेरक कार्य किया है यदि इस दिशा में लोगों में जागरूकता आये तो ये पहाड़ में प्लास्टिक के विकल्प के रूप में कैरी बैग का स्थान ले सकते हैं, जो पूर्णतः इको फ्रेंडली भी होगा और ग्रामीणों को रोजगार भी देगा।

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खैर इधर अब उत्तराखण्ड सरकार पुनः इस दिशा में सक्रिय होती दिख रही है। सरकार ने पिरुल से बिजली बनाने की योजना भी तैयार कर ली है। ऐसे में पहाड़ के इस हुनर को यदि सरकार प्रोत्साहन देती हैं तो निश्चित तौर पर यह प्रयास उत्तराखंड के लोगों को स्वरोगार प्रदान करने के साथ-साथ देश को विश्व पटल विशेष सम्मान दिला सकता है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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