उत्तराखंड की राई का रायता तो गुणों का खान हैं - Mukhyadhara

उत्तराखंड की राई का रायता तो गुणों का खान हैं

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उत्तराखंड की राई का रायता तो गुणों का खान हैं

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

पहाड़ की संस्कृति यहां के खान.पान की बात ही अलग है। यहां के अनाज तो गुणों का खान हैं ही, सब्जियां भी पौष्टिक तत्वों से भरपूर है। राई का वानस्पतिक नाम सीकेल सीरिएल है। यह सीकेल वंश, सीरिएल जाति तथा ग्रामिनी कुल का एक पौधा है, जो गेहूँ तथा जौ से बहुत मिलता जुलता है। पौधे की ऊँचाई चार से छह फुट तक होती है जिसके सिरे पर चार छह इंच लंबी सीकुरदार वाली लगती है, जो गेहूँ या जौ की वाली के समान होती है। इसका दाना भी गेहूँ के दाने की भाँति, पर गेहूँ के दाने से कुछ छोटा, होता है। काला सागर तथा कैस्पियन सागर के पड़ोसी देश इसके उत्पत्तिस्थान हैं। इस अन्न का प्रधान उत्पादक रूस है।

रासायनिक विश्लेषण से इसमें जल 11.66 प्रतिशत, प्रोटीन 10.6 प्रतिशत, चर्बी 1.7 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 72.5 प्रतिशत तथा अन्य पदार्थ 3.6 प्रतिशत पाया गया है। इससे माल्ट तथा मदिरा तैयार की जाती है।यह गेहूँ से अधिक दृढ़ होता है तथा ठंढे देशों में इसकी खेत रेतीली या लाल मिट्टी में की जाती है। गेहूँ की भाँति यह मान्य तथा बहुमूल्य अन्न नहीं है, परंतु उत्तरी यूरोप में खाद्य की दृष्टि से विशेष महत्ववाले पौधों में इसकी गणना की जाती है, क्योंकि शीतल जलवायु तथा हल्की मिट्टी में इसकी उपज गेहूँ की अपेक्षा अधिक होती है। इसकी अनेक किस्में हैं, परंतु इन्हें दो प्रधान वर्गों में विभाजित किया गया है। शरद् ऋतु में बोई जानेवाली तथा बसंत ऋतु में बोई जाने वाली किस्में। इसकी बोआई छिटकवाँ या सीड ड्रील द्वारा पंक्तियों में की जाती है। प्रति एकड़ बीज की मात्रा 60 से 90 किलोग्राम होती है तथा उपज में 600 किलोग्राम से 900 किलोग्राम तक दाना और एक से दो टन भूसा होता है।

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सरसों रबी की प्रमुख तिलहनी फसल है जिसका भारत की अर्थ व्यवस्था में एक विशेष स्थान है। सरसों लाहा कृषकों के लिए बहुत लोकप्रिय होती जा रही है क्योंकि इससे कम सिंचाई व लागत में दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त हो रहा है। इसकी खेती मिश्रित रूप में और बहु फसलीय फसल चक्र में आसानी से की जा सकती है। भारत वर्ष में क्षेत्रफल की दृष्टि से इसकी खेती प्रमुखता से राजस्थान, मध्यप्रदेश, यूपी, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, आसाम, झारखंड़, बिहार एवं पंजाब में की जाती है। जबकि उत्पादकता 1721 किलो प्रति हे की दृष्टि से हरियाणा प्रथम स्थान पर है। इसका दाना छोटा व काला होता है। छोटी.छोटी गोल.गोल राई लाल और काले दानों में अक्सर मिलती है। विदेशों में सफेद रंग की राई भी मिलती हैं। राई के दाने सरसों के दानों से काफी मिलते हैं। बस राई सरसों से थोड़ी छोटी होती है। राई ग्रीष्म ऋतु में पककर तैयार होती है।

राई के बीजों का तेल भी निकाला जाता है। राई का रबी तिलहनी फसलों में प्रमुख स्थान है। इसकी खेती सीमित सिचाई की दशा में अधिक लाभदायक होती है। राई के कई फायदे होते है यह एक गुणकारी मसाला है। इसमें भी काफी औषधीय गुण मौजूद होते हैं। इसका लगभग सभी तरह के आचारो को बनाने में प्रयोग किया जाता है यह रसोई की शान तो है ही, साथ ही अनेक रोगों को भी भगाती है।बतौर औषधि इसके द्वारा कई रोगों को दूर रखा जा सकता हैं। राई के दाने सरसों के दानों से काफी मिलते हैं। बस राई सरसों से थोड़ी छोटी होती है। दिखने में यह सरसों के दानो से छोटा दाना है राई, मगर कमाल के गुण हैं इसमें। इसके छोटे.छोटे दाने होते हैं जो कि गहरे लाल होते हैं। इसका सेवन मसाले के रूप में होता है। इसके अन्दर तेल का अंश भी काफी मात्रा में होता है, जो कि सभी जगह उपलब्ध होता है और इसे खाना बनाने में प्रयोग करते हैं। इसका स्वाद चरपरा और कुछ कड़वाहट लिये हुए होता है। इसकी तासीर गरम होती है, इसीलिए यह पाचक अग्नि को बढ़ाती है, यह रुचिकर होती है। गर्म होने के कारण वात एवं कफ को खत्म करती है। इससे वात एवं कफ की बहुत सी बीमारियां ठीक हो जाती हैं। पेट के दर्द, शरीर के दर्द को दूर करती है और पेट के कीड़ों को भी खत्म करती है।

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राई के सेवन से पेट का अफारा दूर होता है। पेट में आंव की शिकायत तथा हिचकी एवं सांस की बीमारी में भी यह लाभकारी है। राई के औषधीय गुण राई के सेवन से भूख अच्छी लगती है। यह पाचनशक्ति को तेज करती है। जब पाचन अग्नि तेज़ होगी तो भोजन भी पेट भर खाया जा सकेगा। राई के सेवन से पेट में बनने वाली गैस से भी छुटकारा मिलता है। राई का पानी तो हमारे पेट के लिए बेहद फ़ायदेमंद रहता है। जिन्हें सांस की बीमारी हो, दमा तंग करता हो, जरा.सा चलने से साँस फूलता हो, उसे राई की चाय पिलाएँ। बदहजमी हो या हैज़ा हो या त्वचा के रोग, इन सबके लिए राई लाभकारी रहती है। मासिक धर्म में अनियमितता आ जाए या मिरगी के दौरे पड़ते हों, इन सबका राई से इलाज संभव है। यदि पेटदर्द से पीड़ित हों या जुकाम से परेशान, इन सब बिमारियों में राई के लाभ होते है। मिरगी रोग मेंमिरगी के रोग में दौरे पड़ना आम बात है।

जब रोगी को मिर्गी के दौरे पड़े तब राई लेकर इसे पीसें तथा बारीक साफ सुथरे कपड़े में लपेटें। रोगी को दौरों के दरम्यान सुंघाएँ। इसी से होश आ जाएगा। जुकाम का इलाज यदि जुकाम हो तो राई को थोड़ा पीसकर शहद में मिलाएँ। इस राई मिले शहद को जुकाम का रोगी सूंघे तथा एक चम्मच खा भी ले। हर चार घंटे बाद ऐसी खुराक सूंघे व खाए। जुकाम नहीं रहेगा। घबराहट के साथ आप बेचैनी और कंपन महसूस कर रहे हैं, तो अपने हाथों और पैरों में राई के पेस्ट को मलने से आपको आराम मिलेगा। अपचन रोगखाते हैं तो पचता नहीं। कभी खट्टी डकार है तो कभी गैस बनती है। ऐसी अवस्था में एक चौथाई चम्मच राई का पिसा चूर्ण लेकर आधा गिलास पानी में मिलाकर पी लें। अपचन की शिकायत नहीं रहेगी। राई को पीसकर पानी मिलाकर चटनी की तरह बनाकर लेप करने से कान के नीचे की सूजन, जोड़ों के दर्द, कांख में गांठ, सफेद दाग, सिरदर्द आदि में इसका लेप लाभदायक होता है। यदि सन्निपात की अवस्था में शरीर ठंडा हो गया हो तो राई को पीसकर हथेली एवं तलुओं पर मलने से तुरन्त शरीर में गर्मी एवं चेतना आ जाती है।

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बच्चों के पेट में अफारा होने पर राई का लेप नाभि के चारों तरफ करना चाहिए। पेशाब की रुकावट होने पर इसका लेप पेडू पर करने से लाभ होता है। यदि दांतों में दर्द हो तो राई को गरम पानी में मिलाकर कुल्ले करने चाहिएं राई का तेल सिर के अन्दर फुसियां, पपड़ी पैदा होना, बालों का गिरना आदि स्थितियों में बहुत लाभकारी होता है। रोगोपचार राई का लेप. शरीर के कुछ अंगों में दर्द होने की स्थिति में राई को पीसकर ठंडा पानी मिलाकर दर्द वाले अंगों पर लेप किया जाता है।राई की पुलटिस बनाकर भी बांधी जाती है। राई के लेप से पहले शरीर के उस स्थान परए जहां लेप करना हो वहांए पतला साफ कपड़ा बिछाकर उस पर लेप करना चाहिए। त्वचा पर सीधे राई का लेप करने से वह स्थान लाल हो जाता है और फुसियां होने की संभावना रहती है। पेट में तेज़ दर्द होने पर राई का लेप करने से लाभ होता है। जब कोई चीज पचती न हो और भयंकर बदहजमी हो तो आधा चम्मच राई का चूर्ण पानी में घोलकर पीने से लाभ होता है।

हैजे के रोगी को जब उल्टियां और दस्त हो रहे हों और बहुत परेशानी हो, घर में किसी प्रकार की दवाई उपलब्ध न हो तो उस समय पेट पर राई का लेप करना लाभदायक सिद्ध होता है। थोड़े से राई के दानो को भोजन में मिलाने से यह खाने का स्वाद बहुत बढ़ा देती है इसलिए ज्यादातर घरो में राई का तड़का लगाया जाता है, इसे खाने का एक प्रकार यह है कि इसे पीसकर एक खुले मुंह की बोतल में डाल दें और उसमें इतना पानी डालें जिससे गाढ़ा घोल.सा बन जाए। 2.3 दिन में इसमें खमीर उठ जाता है। इसमें थोड़ा नमक और सिरका मिलाकर डबलरोटी अथवा किसी अन्य चीज के साथ खाने से भोजन की रोचकता बढ़ती है और खाना आसानी से हजम होने लगता है। हिचकियां बदहजमी अथवा किसी अन्य कारण से जब हिचकियां आती हैं, तो पानी के साथ चुटकी भर नमक और राई देने से लाभ होता है।

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गठिया और लकवा राई और सरसों का तेल भी निकाला जाता है। राई के तेल को गठिये की सूजन अथवा दर्द वाले स्थान पर लगाने से लाभ होता है। लकवे के रोगियों को भी राई के तेल की मालिश की जाती है।मालिश के बाद शरीर के अंग को कपड़े से ढक देना चाहिए। गिरते झड़ते बालों में जिनमे डैंड्रफ भी हो इसको दूर करने के लिए रात भर राई को पानी में भिगोकर रखें तथा सुबह इस पानी से सिर को धोएं।

राई को पीसकर राई के इस पेस्ट को आप हेयर पैक की तरह भी बालों में लगा सकते है इससे भी लाभ होगा।राई के दानो को बारीक पीसकर पानी में मिलाकर और कम मात्रा में नमक मिलाकर रखना चाहिए। एक दिन के बाद इसमें खटास पैदा हो जाती हैए अधिक दिन तक रखने पर इसकी खटास और अधिक बढ़ जाती है। यह राई का पानी पेट के लिए बहुत फायदेमंद रहता है। इससे पाचकाग्नि बढती है जिससे भूख लगती है और आहार का पाचन भी ठीक प्रकार से हो जाता है। इसके सेवन से पेट में गैस पैदा नहीं होतीए और जिन व्यक्तियों को गैस की शिकायत रहती है। उनकी गैस आसानी से पास हो जाती है।

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पेट का भारीपनए अफारा और पेट दर्द की शिकायत में भी यह कांजी लाभदायक होती है।जिन व्यक्तियों को कब्ज की शिकायत हमेशा रहती हैए कांजी उन्हें पेट साफ करने में मदद करती है। यदि इसका सेवन भोजन के पहले किया जाए तो यह भूख बढ़ाती है और आहार में रुचि पैदा करती है। भोजन के बाद राई के दानो से बनी इस कांजी का सेवन किया जाय तो खाए गए खाने का पाचन तेजी से करती है। लेकिन जिन व्यक्तियों को खांसीए दमाए सर्दीए जुकामए बुखार की बीमारी होए उन्हें इसका सेवन नहीं करना चाहिए।इनमें से एक राई पौधा भी है जो प्रायः मसालों की श्रेणी में रखा जाता है तथा भारतीय रसाई में तो इसे एक अलग ही स्थान प्राप्त है। प्रदेश में उच्च गुणवत्तायुक्त का उत्पादन कर देश-दुनिया में स्थान बनाने के साथ राज्य की आर्थिकी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में पलायान को रोकने का अच्छा विकल्प बनाया जा सकता है।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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