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पानी के लिए तरस रहा गंगा-यमुना का मायका उत्तराखंड

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पानी के लिए तरस रहा गंगा-यमुना का मायका उत्तराखंड

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत वासियों के लिए जीवनदायिनी और युगों युगों से अविरल बहती पतित पावनी गंगा को लेकर उत्तराखंड के की ओर से बहुत बड़ा शोध किया गया है। जिसके आधार पर स्पष्ट किया गया है कि यदि भविष्य में जलवायु परिवर्तन इसी प्रकार बना रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब धीरे- धीरे गंगा भी प्राचीन नदी सरस्वती की भांति विलुप्त हो जाएगी। इसका प्रमुख कारण यह है कि गंगोत्री ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से पिघलने लगा है। गंगा जो हमारे भारत देश की पहचान व जीवनदायिनी है, यहां का प्रत्येक नागरिक अत्यंत शान के साथ कहता है कि हम उस देश के निवासी है जहां गंगा बहती है। वही गंगा जिसे कालांतर में राजा भागीरथ सैकड़ों वर्षो की तपस्या के बाद अपने पितरों की मुक्ति हेतु स्वर्गलोक से पृथ्वीलोक पर लेकर आये थे।

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गंगा को हमारे देश का जल संपदा का प्रतीक माना जाता है। जो कि हमारी जीवनदायिनी भी है, आज उसी गंगा का जीवन भी खतरे में है। गंगा-यमुना का मायका उत्तराखंड के गांवों को पीने के लिए पानी भी मयस्सर नहीं है। केंद्र सरकार के पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक कर रही है। प्रदेश के 39282 गांव- मजरों में से करीब 56 फीसद, यानी 21706 में ही मानक के अनुसार पेयजल मिल पा रहा है। इसमें सबसे खराब स्थिति टिहरी और पौड़ी जिले की है। यहां क्रमश: 21 और 32 फीसद बस्तियों को पर्याप्त पानी मिल रहा है। उत्तराखंड की प्यास बुझाने को पेयजल निगम, जल संस्थान, स्वजल व एडीबी विंग जैसी चार एजेंसियांसालों से काम कर रही हैं। बावजूद इसके स्थिति यह है कि प्रदेश के 17 हजार 577  मजरों (गांव) के लाखों लोग आज भी पानी के लिए तरस रहे हैं। जिम्मेदार एजेंसियों की मानें की तो बजट की कमी के चलते अगले 20 साल में भी इन क्षेत्रों में पानी की समस्या खत्म होने के आसार नहीं हैं।

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मानक के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति एक दिन में 40 लीटर पानी मिलना चाहिए। लेकिन, ये वो गांव हैं जहां 40 तो छोड़िए, 20 लीटर भी मिल जाए तो गनीमत। वह भी लोग जैसे-तैसे जुटा पाते हैं। आंकड़े देखें तो सबसे ज्यादा किल्लत पौड़ी जिले के 4732 मजरों में है, जबकि 3386 मजरों के साथ टिहरी दूसरे स्थान पर है। गंगा-यमुना का मायका (उत्तराखंड) प्यासा है। पहाड़ में एक कहावत है कि पहाड़ का पानी और जवानी यहां के काम नहीं आते लेकिन सरकारें इसे बदलने को आतुर है। उत्तराखंड में नदियों, नालों, जलस्रोतों की संख्या करीब एक हजार से अधिक हैं, जो यहां से निकलकर सुदूर मैदानी इलाकों को सिंचती हैं, वहीं, प्रशासन की अनदेखी और व्याप्त भ्रटाचार की वजह से राज्य के कई जिलों में जल संकट गहरा गया है। पर्वतीय राज्य में गर्मियां आते ही लोगों को पानी के लिए दर-ब-दर भटकना पड़ रहा है।

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साल दर साल जनसंख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है लेकिन प्रति व्यक्ति प्रति लीटर जल में कमी होती जा रही है। इसका कारण कुप्रबंधन तथा अव्यवस्था है। पूरे प्रदेश में स्थिति प्रति वर्ष एक जैसी ही होती है। इस बार भी कोई अंतर आता नहीं दिख रहा है। गत दिनों एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि वे पहाड़ के पानी और जवानी दोनों को पहाड़ के काम आने की योजनाएं क्रियान्वित करेंगे। पूरे प्रदेश की स्थिति देखी जाए तो कुमाऊं के नाले और जलधारा विश्व प्रसिद्ध थे। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा मुख्यालय में लगभग सभी इलाकों में पानी की किल्लत है और इसकी वजह यह है कि पिछले 30 साल से पुरानी पाइप लाइनों को बदला नहीं गया है,पेयजल की किल्लत को दूर करने का काफी प्रयास किया है लेकिन जनसंख्या घनत्व पर यह प्रभाव आज भी नाकाफी है। टिहरी झील से सटे क्षेत्रों में पेयजल की भारी कमी है।इसका कारण प्राकृतिक जलस्त्रोतों का सूखना है। जल स्रोतों के सूखने के कारणों में वनों का लगातार कटान, मुनाफाखोरी के लिए पहाड़ों के कटान में बारूद का प्रयोग होना है। गढ़वाल का कोटद्वार क्षेत्र ऐसी ही स्थितियों से जूझ रहा है।

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कोटद्वार में भी दर्जनभर इलाकों में लोगों को पानी मयस्सर नहीं है। लगातार जल संकट की ओर बढ़ रहा है। मोटे अनुमान के अनुसार पूरे उत्तराखंडमें 510 प्राकृतिक जल स्रोत ऐसे हैं, जो या तो सूख चुके हैं या सूखने के कगार पर हैं।कभी नौले-धारों की नगरी के रूप में पहचान रखने वाले अल्मोड़ा में तो 360 जल स्रोतों में से मात्र साठ ही जीवित हैं। इनमें  भी मात्र 18 जल स्रोत ही कमोबेश बेहतर स्थिति में हैं। यह एक खतरनाक संकेत है जिसने नीति-नियंताओं की चिंता बढ़ा दी है। प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए सरकारी, गैर सरकारी स्तर पर प्रयास तो दशकों से चल रहे हैं लेकिन समन्वय और तकनीक के अभाव में अब तक ठोस परिणाम नहीं निकल पाया। स्थिति यह है कि उत्तराखंड में कुल जल स्रोतों का कोई ठोस आंकड़ा अभी तक मौजूद नहीं है।

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अब कई विभागों और एनजीओ के साथ आने से उम्मीद की जानी चाहिए कि मृत पड़े नौले-धाराओं में एक बार फिर जीवन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के बारे में यह जानना भी जरुरी है कि गर्मी बढ़ने के साथ जलस्त्रोतों में पानी की मात्रा बड़ी तेजी से घटती जाती है। गदेरे (नहर), झरने और धाराएं ही प्राचीन समय से पर्वतीय क्षेत्रों में रह रहे लोगों की पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करते आये हैं लेकिन पिछले कुछ समय से पानी के इन स्त्रोतों में पानी की निकासी लगातार घटी है। इन क्षेत्रों में किये गए तमाम शोध भविष्य में आने वाले पेयजल संकट की ओर इशारा करते हैं। पानी की समस्या उत्तराखंड राज्य में होने वाले पलायन के मुख्य कारणों में से एक है। आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं और बच्चों को, अपने घरों से दूर स्थित पानी के स्रोतों से पानी लाते हुए बहुत आसानी से देखा जा सकता है। जिस कारण तमाम तरह की समस्या का सामना पहाड़ में रहने वाली महिलाओं को करना पढता है। हर घर जल योजना पहाड़ में रहने वाली इन महिलाओं के लिए किसी वरदान से कम नहीं होगा यदि कार्य दायी संस्थायें इस परियोना को पहाड़ की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ाये।

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(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत  हैं)

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