Video : मैथिली ठाकुर (Maithili Thakur) का गाया ये उत्तराखंडी लोकगीत जो भी सुन रहा, हो रहा मंत्रमुग्ध। सोशल मीडिया पर मचा रहा धूम - Mukhyadhara

Video : मैथिली ठाकुर (Maithili Thakur) का गाया ये उत्तराखंडी लोकगीत जो भी सुन रहा, हो रहा मंत्रमुग्ध। सोशल मीडिया पर मचा रहा धूम

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“औ बैठ कागा हरिया बिरिछ” गढ़वाली लोक गीत मचा रहा धूम

 देहरादून/मुख्यधारा

देश की सुप्रसिद्ध लोक गायिका मैथिली ठाकुर (Maithili Thakur) एक बार फिर से उत्तराखंडी लोक गीत गाकर सोशल मीडिया पर धूम मचा रही है इस बार उन्होंने एक गढ़वाली लोकगीत गाया है इस गीत को सुन कर हर कोई मंत्रमुग्ध हो रहा है।

आप भी सुने मैथिली ठाकुर की आवाज में ये गढ़वाली लोकगीत

मैथिली ठाकुर ने यह गढ़वाली गीत गाकर बीते 3 नवंबर को अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर डाला, जिसको अब तक हजारों लोग देख चुके हैं।

सोशल मीडिया यूजर्स द्वारा मैथिली के इस प्रयास कच खूब सराहना की जा रही है और उनका धन्यवाद दिया जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड लोक संगीत को पहुंचाने का प्रयास किया है।

यूजर्स द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि जब उत्तराखंड की नई पीढ़ी अपनी लोक भाषा गढ़वाली, कुमाऊंनी एवं जौनसारी को बोलने में भी शर्म महसूस कर रही हो, ऐसे समय में मैथिली ठाकुर ने गढ़वाली लोकगीत गाकर प्रदेश की नई पीढ़ी को प्रेरणा देने का काम किया है।

मुख्यधारा के पाठकों को बताते चलें कि यह पहला अवसर नहीं है जब मैथिली ठाकुर ने उत्तराखंड का कोई गीत गाया हो। इससे पहले भी उन्होंने गढ़वाली मंगल गीत ” दे द्यावा बाबा जी कन्या कू दान ” गाकर सभी का दिल जीत लिया था। यही नहीं कुमाऊंनी स्वाल पथाई गीत “सुआ रे सुआ बनखंडी सुआ” गीत गाकर भी उन्होंने तब धूम मचा दी थी। इन दोनों गीतों को भी लाखों लोगों ने देखा और मैथिली की खूब सराहना की गई। अब एक बार फिर से मैथिली का गढ़वाली लोकगीत सामने आया है, जिसकी हर जगह प्रशंसा की जा रही है।

बताते चलें कि मैथिली ठाकुर का जन्म वर्ष 2000 में हुआ। इतनी कम उम्र में उनके सोशल मीडिया में कई मिलियन फलोअर हैं। वह देश की कई भाषाओं का लोक संगीत गाकर हर किसी का दिल जीत लेती है। उनकी सफलता में उनके दो छोटे भाई अयाची ठाकुर और ऋषभ ठाकुर भी उनका बखूबी साथ देते हैं, जो कोई भी गीत गाकर उसमें प्राण फूंक देते हैं।

बहरहाल, इन गीतों के व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार होने से उत्तराखंड के लोक संगीत को एक नई पहचान मिल रही है। इसे उत्तराखंडी संस्कृति के संरक्षण के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं कहा जा सकता।

 

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