बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) का समूचा व्यक्तित्व सुनहरे अक्षरों में लिखा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
बालगंगाधर तिलक का नाम स्वतंत्रता आंदोलन में हमेशा सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता है। उनके बचपन का नाम बलवंत राव था, बाद में तिलक को लोकमान्य की उपाधि मिली। उनका जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश (रत्नागिरि) के चिक्कन गांव में 23जुलाई 1856 को हुआ था। पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक एक ब्राह्मण थे। तिलक कांग्रेस में गर्म दल के नेता थे और उन्होंने “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा” का नारा दिया था। बाल गंगाधर तिलक बचपन से ही एक मेधावी छात्र थे। अंग्रेज सरकार की नीतियों के विरोध के चलते एक समय उन्हें मुकदमे और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। साल 1897 में पहली बार तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें जेल भेज दिया गया। इस मुकदमे और सजा के चलते उन्हें लोकमान्य की उपाधि मिली। स्वतंत्रता आंदोलन में हजारों लोगों के लिए आदर्श लोकमान्य तिलक एक उदारवादी हिन्दुत्व के पैरोकार थे। इसके साथ ही वह कट्टरपंथी माने जाने वाले लोगों के भी आदर्श थे।
धार्मिक परंपराओं को एक स्थान विशेष से उठाकर राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने की अनोखी कोशिश करने वाले तिलक सही मायने में “लोकमान्य” थे।मशहूर थी लाल-बाल-पाल की तिकड़ीस्वतंत्रता आंदोलन के गरम दल में नेताओं में लाला लाजपत राय (लाल), बाल गंगाधर तिलक (बाल) और विपिन चंद्र पाल (पाल) की काफी मशहूर थी। तीनों गरम दल के प्रमुख नेता थे और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आंदोलन की योजना तैयार करते थे। 1908 में तिलक ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया, जिसके कारण अंग्रेजों ने उन्हें वर्मा (अब म्यांमार) की जेल में भेज दिया था। जेल से छूटने पर वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 1916-18 में एनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ अखिल भारतीय होम रूल लीग की शुरूआत की। एक निर्भीक संपादक भी थे लोकमान्यलोकमान्य तिलक एक निर्भीक संपादक भी थे, उन्होंने ‘केसरी’ और’मराठा’ अखबार की शुरुआत की। अखबार में छपे तिलक के लेख आजादी के दीवानों में एक नई ऊर्जा का संचार करते थे। इसके लिए उन्हें कई बार अंग्रेजों ने जेल भी भेजा था। हालांकि, वह कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे, लेकिन कई मौकों पर उन्होंने अपनी पार्टी की नीतियों के विरोध में भी लिखा। तिलक को कांग्रेस के नरम दलीय नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ा। महात्मा गांधी ने लोकमान्य को आधुनिक भारत का निर्माता और पंडित नेहरू ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि ने नवाजा था। अपनी असहमति और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों पर तिलक ने केवल वक्तव्य या सभाओं तक ही सीमित न रखा, उन्होंने आलेख लिखने की भी श्रृंखला चलाई। इन लेखों के कारण उन पर अनेक मुकदमे बने। कई बार सजाये और जुर्माना हुआ, लेकिन 1897 में उन पर देशद्रोह का मुकदमा बना और 6 साल की कैद हुई। अपनी इसी जेल यात्रा में ही तिलक ने गीता रहस्य नामक ग्रन्थ लिखा, जो आज भी गीता पर एक श्रेष्ठ टीका मानी जाती है। इसके माध्यम से उन्होंने देश को कर्मयोग की प्रेरणा दी।गीतारहस्य को तिलक जी ने महज पांच महीने में पेंसिल से ही उन्होंने लिख डाला था। लेकिन एक दौर में लगता था कि शायद ब्रिटिश हुकूमत उनके लिखे को जब्त ही कर लें। हालांकि उन्हें अपनी याददाश्त पर बहुत भरोसा था। इसलिए उन्होंने कहा था, डरने का कोई कारण नहीं। अभी बहियां सरकार के पास हैं। लेकिन ग्रंथ का एक-एक शब्द मेरे दिमाग में है। विश्राम के समय अपने बंगले में बैठकर मैं उसे फिर से लिख डालूंगा।
गीता रहस्य नामक पुस्तक की रचना लोकमान्य तिलक ने मांडले जेल (बर्मा) में की थी। इसमें उन्होंने श्रीमद्भागवतगीता के कर्मयोग की वृहद व्याख्या की। उन्होंने अपने ग्रन्थ के माध्यम से बताया कि गीता चिन्तन उन लोगों के लिए नहीं है, जो स्वार्थपूर्ण सांसारिक जीवन बिताने के बाद अवकाश के समय खाली बैठ कर पुस्तक पढ़ने लगते हैं। गीता रहस्य में यह दार्शनिकता निहित है कि हमें मुक्ति की ओर दृष्टि रखते हुए सांसारिक कर्तव्य कैसे करने चाहिए। इस ग्रंथ में उन्होंने मनुष्य को उसके संसार में वास्तविक कर्तव्यों का बोध कराया है। दरअसल तिलक मानने को तैयार नहीं थे कि गीता जैसा ग्रन्थ केवल मोक्ष की ओर ले जाता है। उसमें केवल संसार छोड़ देने की अपील है। वह तो कर्म को केंद्र में लाना चाहते थे। वही शायद उस समय की मांग थी, जब देश गुलाम हो, तब आप अपने लोगों से मोक्ष की बात नहीं कर सकते। उन्हें तो कर्म में लगाना होता है। वही तिलक ने किया और गीता के रहस्य को पूरी दुनिया के सामने ले आए। गांधी भी गीता के अत्यन्त प्रशंसक थे, उसे वह अपनी माता कहते थे। उन्होंने भी गीतारहस्य को पढ़ कर कहा था कि गीता पर तिलक की यह टीका ही उनका शाश्वत स्मारक है। जेल से छूटने के बाद उन्होंने दो उत्सव आरंभ किये। एक शिवाजी महाराज उत्सव और दूसरा गणेशोत्सव। तिलक जी की लेखनी से बौद्धिक वर्ग में तो क्रांति आ ही रही थी कि इन उत्सवों के आयोजन से अन्य वर्गों में भी चेतना का संचार हुआ, जो आज विराट रूप ले चुकी है। तिलक ने इन दोनों उत्सवों का आरंभ मनौवैज्ञानिक तरीके से किया। समाज का जो वर्ग धार्मिक भावना वाला था, वह गणेशोत्सव से जुड़ा और जो सांस्कृतिक और सामाजिक रुझान वाला वर्ग था वह शिवाजी महाराज उत्सव से जुड़ा। तिलकके इन प्रयत्नों से समाज का प्रत्येक वर्ग जाग्रत हुआ और स्वाधीनता संघर्ष का वातावरण बनने लगा। यह उस समय के वातावरण का ही प्रभाव था कि 1905 में यदि तिलक ने देवनागरी को सभी भारतीय भाषाओं की संपर्क भाषा बनाने का अव्हान किया, तो पूरे देशभर में समर्थन मिला और जगह-जगह संस्थाएं बनने लगी भाषाई आयोजन होने लगे। तिलक ने 1907 में पूर्ण स्वराज्य का नारा दिया।
तिलक का मानना था कि स्वतन्त्रता भीख की तरह मांगने से नहीं मिलेगी। उन्होंने नारा दिया – स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर ही रहेंगे और 1908 में सशस्त्र क्रांतिकारियों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाको जैसे आंदोलन कारियों का खुलकर समर्थन किया। यही कारण था बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारी समूह तिलक से जुड़ गये। तिलक 1916में ऐनी बेसेन्ट द्वारा गठित होमरूल सोसायटी से जुड़े। उनका निधन 1 अगस्त 1920 को मुम्बई में हुआ। तिलक का व्यक्तित्व कितना विशाल था इसका उदाहरण उनके निधन पर गांधी की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है। तिलक के निधन पर गांधी ने कहा था कि वे आधुनिक भारत का निर्माता थे।महाराष्ट्र में अपने वक़्त के दिग्गज बुद्धिजीवी महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901) का कहना था कि भारत जैसे देश में राष्ट्र निर्माण के चार अहम स्तंभ होने चाहिए। इसके लिए किसानों और महिलाओं का सशक्तिकरण ज़रूरी है। हरेक को शिक्षा मिलनी चाहिए और समाज सुधार के क्रांतिकारी क़दम उठाए जाने चाहिए। 1942 में उनकी जयंती मनाते हुए भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि रानाडे में एक स्वाभाविक नेकनीयती थी।उनमें ज़बरदस्त बौद्धिक क्षमता थी।वे ना सिर्फ़ वकील और हाई कोर्ट के जज थे, बल्कि आला दर्जे के अर्थशास्त्री भी थे। वे शीर्ष स्तर के शिक्षा शास्त्री और उसी स्तर के धर्म शास्त्र के ज्ञाता भी थे तिलक भारतीय पत्रकारिता के आदर्श थे। उनकी पत्रकारिता भारत की आजादी एवं नये भारत के निर्माण की पत्रकारिता थी। वे राष्ट्रीयता, निष्पक्षता एवं निर्भयता की पत्रकारिता के जनक थे।
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सन् 1881 में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर च्केसरीज् और मराठा दर्पणज्मक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया था। तब केसरी में तिलक ने साफ-साफ लिख दिया था कि केसरी निर्भयता एवं निष्पक्षता के सभी प्रश्नों पर चर्चा करेगा।उन्होंने यह भी लिखा कि ब्रिटिश शासन की चापलूसी करने की जो प्रवृत्ति आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं है। उस समय के जो छोटे-मोटे अखबार निकल रहे थे, उनमें ब्रिटिश सरकार की चाटुकारिता साफ दिखाई देती थी, उसे देखकर तिलकजी व्यथित हुए और यही कारण है कि केसरी के तेवर को समझने के लिए तिलकजी की एक पंक्ति अपने आप में पर्याप्त है, जिसमें वह कहते हैं केसरी के लेख इस के नाम को सार्थक करेंगें। उनका आशय यही था कि जिस तरह से शेर गरजता है उसी तरह से केसरी की पत्रकारिता भी गरजेगी। यही हुआ भी। बहुत जल्दी तिलक ब्रिटिश शासकों की आंखों की किरकिरी बन गये। तिलक के विचारों से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ समाज में वैचारिक वातावरण भी बनने लगा। आजादी के लिये संघर्ष करने वालों को एक बल मिला, दृष्टि मिली एवं दिशा मिली।आजादी दिलाने में इन दोनों समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका बनी। तिलक की पत्रकारिता के चार आयाम थे- स्वदेशी अपनाओ, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करना और स्वराज आंदोलन को निरंतर गति प्रदान करना। तिलक सिर्फ आजादी के पक्षधर नहीं थे, वह इस देश में स्वदेशी आंदोलन को भी व्यापक बनाना चाहते थे। वे चाहते थे, देश के कुटीर उत्पादों को महत्व मिले, लोग स्वदेशी उत्पादों का ही अधिकतम उपयोग करें। अंग्रेजों ने अपने देश की वस्तुओं को भारत मे खपाने का सिलसिला शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे लोग उसी के आदी होते चले गए। यानी स्वदेशी वस्तुओं से दूर होने लगे इसलिए तिलक ने स्वदेशी पर पूरा जोर दिया। मैकाले ने अपनी शिक्षा नीति के बल पर इस देश को भ्रष्ट करने की नीति अपनाई, जिसे देखकर तिलक विचलित हुए और राष्ट्रीय शिक्षा की वकालत करने लगे। उन्होंने अपने अखबारों के माध्यम से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार
का आह्वान भी किया और जल्दी-से-जल्दी स्वराज मिले, इसके लिए उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लगातार लिखने का सिलसिला भी शुरू कर दिया। सारा विश्व पांच वीटो पॉवर वाले शक्तिशाली देशों अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन तथा फ्रान्स द्वारा अपनी मर्जी के अनुसार चलाया जा रहा है। तिलक जैसी महान आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि यह होगी कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक तथा युवा भारत को एक लोकतांत्रिक विश्वव्यवस्था (विश्व संसद) के गठन की पहल पूरी दृढ़ता के साथ करना चाहिए।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं)