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हरित क्रांति के बाद पहाड़ का लाल चावल (red rice) विलुप्ति की कगार पर

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हरित क्रांति के बाद पहाड़ का लाल चावल (red rice) विलुप्ति की कगार पर

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता में भी लाल चावल का उल्लेख पाया जाता है जिसमें लाल चावल को रोग प्रतिरोधक के साथ-साथ पौष्टिक बताया गया है। पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ-साथ लाल चावल में विपरीत वातावरण में भी उत्पादन देने कि क्षमता होती है। यह
कमजोर मिटटी, कम या ज्यादा पानी तथा पहाड़ी ढालूदार आसिंचित खेतो में भी उत्पादित किया जा सकता है। पौष्टिकता से भरपूर पहाड़ का लाल चावल अब अतीत का हिस्सा बनता जा रहा है। कभी लाल चावल की दर्जनों किस्में पहाड़ पर लहलहाती थी अब चार-पांच किस्में ही दिखाई देती हैं। इसका भी काफी कम मात्रा में उत्पादन किया जा रहा है। पर्वतीय भू-भाग में लाल चावल की कई किस्में बोई जाती थीं। हरित क्रांति के बाद यह किस्में बड़ी तेजी से खत्म हो गई। इसकी जगह मैदानी क्षेत्रों में बोई जाने वाली धान की किस्में आने लगी।

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आज पहाड़ के 80 फीसद भूभाग में यही दिखाई देती हैं। एटकिसंन के गजेटियर में लाल चावल की 48 किस्मों का जिक्र है।जबकि कुछ जगहों पर 120 किस्में भी बताई गई हैं। पारंपरिक लाल चावलों का महत्व केवल खाद्य जरुरतों के लिए नहीं होता था, बल्कि पूजा पाठ में भी इनका विशेष महत्व होता था। पिथौरागढ़ में बोये इस धान से पाॢथव, चूड़े बनते थे। चनौदा के सेला से पाॢथव पूजा होती थी। लोहाघाट का कत्यूर तो बासमती को टक्कर देता था।गंगोलीहाट का लाल चमयाड़, नैनीताल, अल्मोड़ा,पिथौरागढ़ का थापचिनी भी खूब स्वाद देता तो गरुड़-बागेश्वर व बलुवाकोट में चाइना फोर, गंगोली का खजिया व लोहाघाट का बडपासो भून कर चबाने के काम आता रहा है। लाल चावल की खासियत यह है कि इसे कम पानी में उगाया जा सकता है जबकि मैदानी क्षेत्र के चावल के पैदावार को ज्यादा पानी की जरुरत होती है। लाल चावल की प्रजातियांसाल यह धान पिथौरागढ़ क्षेत्र में सिचित (पनगल) व असिचित (उनगल) दोनों अवस्थाओं में बोया जाता है। पूजा (अक्षत तथा पाॢथव) के काम आता है। इसका आटा पाॢथव पूजा (सन्तति प्राप्ति हेतु) के अलावा पकवान (साया व सिगल) बनाने के काम आता है।

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जमाल: यह भी साल की तरह पकवान बनाने तथा विशेष रूप से च्यूड़ा व सिरौला बनाने के काम आता है। खजिया: यह धान विशेषत: बेरीनाग-गंगोली व आस-पास के क्षेत्र में ही होता है। यह सिचित धान है। इसका भात नहीं बनता बल्कि धान के मुरमुरे चावल बनते हैं, जो अखरोट या भट के भुने दानों के साथ चबाकर खाने के काम आते हैं। खीर बनाने में यह विशेष रुप से प्रयुक्त किया जाता है।कत्यूर यह लोहाघाट में पनगल में बोया जाने वाला प्रसिद्ध धान है। स्वादिष्ट और मीठा बाल निकलते समय पौधे से खुशबू आती है। पूर्व में विवाह के समय बासमती के स्थान पर इसे ही बनाया जाता था। बड़पासो: यह लोहाघाट तथा गंगोली में होने वाला लाल रंग का धान है। इसके खाजे (धान को भूनकर ओखल में कूट कर बनाए गए चपटे चावल, जो चबाकर खाए जाते हैं) स्वादिष्ट होते हैं। इसका भात विशेष स्वादिष्ट नहीं होता। चम्याड़: गंगोलीहाट में पाताल भुवनेश्वर क्षेत्र में होने वाले लाल चावल का यह धान उपराऊँ में होता है। इसका भात स्वादिष्ट होता है। थापचीनी: कुमांऊ क्षेत्र की सिचित धान की यह अत्यधिक प्रचलित किस्म है। कहीं-कहीं इसे असिचित भी बोया जाता है।

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पौष्टिकता से भरपूर लाल चावल में प्रोटीन 7.0 ग्राम/100 ग्राम फाइबर 2 ग्राम/100 ग्राम, लौह 5.5  मिग्रा/100 ग्राम तथा जिक 3.3 मिग्रा/100 ग्राम तक पाएजाते है। यह चावल डाइबिटीज का मरीज भी खा सकता हैं।लाल चावल की प्रजाति कुछ जगहों पर होती है। लेकिन वह भी काफी कम मात्रा में। इसको बढ़ावा देने के प्रयास किए जा रहे हैं। लाल चावल में सबसे महत्वपूर्ण राइस ब्रान ही है जो पोष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर होता है। जहां तक लाल चावल तथा सफेद चावल को पौष्टिकता की दृष्टि से तुलनात्मक विश्लेषण किया जाय तो सफेद चावल में प्रोटीन 6.8 ग्राम 100 ग्राम, लौह 1.2 मिग्रा 100 ग्राम, जिंक 0.5  मिग्रा 100 ग्राम, फाईवर 0.6 ग्राम 100 ग्राम, जबकि लाल चावल में प्रोटीन 7.0 ग्राम 100  ग्राम फाइबर 2  ग्राम 100 ग्राम, लौह 5.5 मिग्रा 100 ग्राम तथा जिंक 3.3 मिग्रा 100 ग्राम तक पाए जातेहैं। प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता में भी लाल चावल का उल्लेख पाया जाता है जिसमें लाल चावल को रोग प्रतिरोधक के साथ साथ पौष्टिक बताया गया है। पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ-साथ लाल चावल में विपरीत वातावरण में भी उत्पादन देने कि क्षमता होती है। यह कमजोर मिटटी, कम या ज्यादा पानी तथा पहाड़ी ढालूदार आसिंचित खेतो में भी उत्पादित किया जा सकता है।

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लाल चावल में मौजूद गुणों के कारण ही वर्तमान में भी उच्च गुणवत्ता युक्त प्रजातियां के विकास के लिए के लिए लाल चावल का प्रयोग किया जाता है। विश्वभर में हुए कुछ ही अध्ययनों में लाल चावल का वैज्ञानिक विश्लेषण होने के प्रमाण मिले है जबकि लाल चावल के निवारण के लिए अच्छी क्षमता रखता है। सर्वप्रथम सबसे प्राचीन लाल चावल जापान में लगभग 300 काल में एक प्रमुख जापानी डिश, जो विशेष अवसरों पर बनाई जाती थी, में होने के प्रमाण मिले है। जापानी सरकार द्वारा वर्ष 2007 में के सौजन्य से सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के सहयोग हेतु प्राचीन लाल चावल का एक परियोजना में विस्तृत अध्ययन किया गया। उपरोक्त अध्ययन के दौरान लाल चावल में मौजूद गुण पाये जाते है और इसी वजह से लाल चावल तथा विभिन्न स्वास्थ्य उत्पादों के लिए प्रयुक्त होता है जो कि में लाभदायक पाये जाते है। लाल चावल जैसे पेट में वसा का जमाव सेएआज विश्वभर में सफेद चावल की धूम मची हुई है जबकि स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण लाल चावल को इतना महत्व नहीं मिला है।

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वर्तमान में भी भारत में स्थानीय बाजार में लाल चावल 50 रूपये किग्रा० तथा अंतरराष्ट्रीय बाजार में जैविक लाल चावल 250 किग्रा० तक बेचा जाता है। यदि उत्तराखण्ड के सिंचित तथा असिंचित दशा में मोटे धान की जगह पर यदि लाल चावल को व्यवसायिक रूप से उत्पादित किया जाय तो यह राज्य में बेहतर अर्थिकी का स्रोत बन सकता है। जो पर्यावरण के संतुलन, जल और वायु की शुद्धता, भूमि के प्राकृतिक रूप को बनाये रखने में सहयोगी, जलधारण क्षमता बनाये रखने में सक्षम थीं उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में इतनी पोष्टिक एवं औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण फसल जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक मांग हैए को प्रदेश में व्यवसायिक रूप से उत्पादित कर जीवका उपार्जन का साधन बनाया जा सकता है। पहाड़ के जैविक धान हो दलहन या अन्य फसलें देश ही नहीं विदेशों में भी अच्छी मांग है। मगर समर्थन मूल्य तय न होने और विपणन का बेहतर बंदोबस्त के अभाव में पहाड़ के काश्तकारों को लागत वसूलना तक दूभर हो जाता है।

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तर्क दिया है कि यदि राज्य सरकार पहल करे तो पिछड़े व सीमावर्ती जिलों के किसानों को बड़ा लाभ हो सकता है। उन्होंने पीएम की अध्यक्षता में कैबिनेट के धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य एक हजार रुपये तय किए जाने को सराहनीय बताते हुए उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों के लिए भी ठोस कदम उठाए जाने पर जोर दिया है। ताकि पर्वतीय किसानों को औने पौने दाम पर अपनी उपज को बिचौलियों के हाथ बेचने को विवश न होना पड़े। भाजपा नेता ने पहाड़ी जिलों में भी धान की खरीद शुरू किए जाने बल दिया है। पत्र के जरिये यह भी अवगत कराया है कि बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग, पुरोला का लाल चावल राष्ट्रीय बाजार में 250 रुपये किलो तक बिक रहा है। मगर धान उत्पादक किसान को वाजिब दाम
नसीब नहीं होता। पूर्व दर्जा राज्य मंत्री ने सीएम को पत्र लिख उत्तराखंड के सभी पहाड़ी जिलों में जैविक विधि से उगाए जाने वाले धान व अन्य स्थानीय फसलों के लिए भी समर्थन मूल्य की घोषणा करने का आग्रह किया है ताकि पर्वतीय किसानों को प्रोत्साहित कर ऊसर होती खेती को
बचाया जा सके। मगर धान उत्पादक किसान को वाजिब दाम नसीब नहीं होता। पौष्टिकता से भरपूर पहाड़ का लाल चावल अब अतीत का हिस्सा बनता जा रहा है। कभी लाल चावल की दर्जनों किस्में पहाड़ पर लहलहाती थी अब चार-पांच किस्में ही दिखाई देती हैं। इसका भी काफी
कम मात्रा में उत्पादन किया जा रहा है।

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पर्वतीय भू-भाग में लाल चावल की कई किस्में बोई जाती थीं। हरित क्रांति के बाद यह किस्में बड़ी तेजी से खत्म हो गई। इसकी जगह मैदानी क्षेत्रों में बोई जाने वाली धान की किस्में आने लगी। आज पहाड़ के 80 फीसद भूभाग में यही दिखाई देती हैं। एटकिसंन के गजेटियर में लाल चावल की 48 किस्मों का जिक्र है। जबकि कुछ जगहों पर 120 किस्में भी बताई गई हैं।पारंपरिक लाल चावलों का महत्व केवल खाद्य जरुरतों के लिए नहीं होता था, बल्कि पूजा पाठ में भी इनका विशेष महत्व होता था। पिथौरागढ़ में बोये इस धान से पाॢथव, चूड़े बनते थे। चनौदा के सेला से पाॢथव पूजा होती थी। लोहाघाट का कत्यूर तो बासमती को टक्कर देता था। गंगोलीहाट का लाल चमयाड़, नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ का
थापचिनी भी खूब स्वाद देता तो गरुड़-बागेश्वर व बलुवाकोट में चाइना फोर, गंगोली का खजिया व लोहाघाट का बडपासो भून कर चबाने के काम आता रहा है।

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लाल चावल की खासियत यह है कि इसे कम पानी में उगाया जा सकता है जबकि मैदानी क्षेत्र के चावल के पैदावार को ज्यादा पानी की जरुरत होती है। पौष्टिकता से भरपूर पहाड़ का लाल चावल अब अतीत का हिस्सा बनता जा रहा है।लेखक के निजी विचार हैं।

(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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