आसान नहीं मोटे अनाज (coarse grains) को बढ़ावा देने की राह! - Mukhyadhara

आसान नहीं मोटे अनाज (coarse grains) को बढ़ावा देने की राह!

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आसान नहीं मोटे अनाज (coarse grains) को बढ़ावा देने की राह!

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हज़ारों साल से भारत में मोटे अनाज उगाने और उन्हें खानपान में शामिल करने का चलन रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों से इनकी जगह बाज़ार के चटपटे खाद्य पदार्थों ने ले ली है, जिसका हर्ज़ाना हमें और हमारी सेहत को भुगतना पड़ रहा है। इन मोटे अनाजों में मुख्य तौर से बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी (मड़ुआ), सांवा, कोदो, कंगनी, कुटकी और जौ शामिल हैं, जो हर लिहाज़ से हमारी सेहत के लिए फ़ायदेमंद हैं। 1960 के दशक में हरित क्रांति के नाम पर हमने इनकी जगह गेहूं व चावल को दे दिया। लेकिन दुनिया अब इन्हीं मोटे अनाजों की तरफ़ एक बार फिर लौट रही है और बाज़ार में इन्हें सुपर फ़ूड का दर्जा दिया गया है।

संयुक्त राष्ट्र और भारत की केंद्रीय सरकार द्वारा साल 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष घोषित किए जाने के बाद सरकारी एजेंसियों की हरचंद कोशिश रहेगी कि भारत को मोटा अनाज उत्पादन और निर्यात का मुख्य धुरा बनाया जाए। मोटा अनाज मानव के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए वैसे भी अच्छा होता है और यह तीखे मौसम में भी उगाए जा सकते हैं। तथ्य है कि सदियों से मोटा अनाज भारतीय भोजन का हिस्सा और खुराक रहे हैं। वर्ष 1960 के दशक तक ज्वार, बाजरा और रागी का अंश भारतीयों के भोजन में लगभग एक-चौथाई हुआ करता था। लेकिन हरित क्रांति में धान और गेंहू की फसल को मिली तरजीह के बाद इनका अंश कम होता चला गया। जब से मोटे अनाज का उत्पादन और खपत कम होनी शुरू हुई तब से अब तक हमारी भोजन और खुराक संबंधी आदतें पूरी तरह बदल चुकी हैं।

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पिछले कुछ दशकों से हम निर्णायक रूप से महीन, प्रसंस्करित, पैकेट बंद और रेडी-टू-कुक भोजन की ओर मुड़ गए हैं। खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा 1690-70 के दशक से मिलना शुरू हुआ था ताकि खाद्यान्न की बर्बादी रोकी जा सके और कृषि उत्पाद का भंडारण लंबे समय तक हो पाए। प्रसंस्करित और पैकेट बंद खाद्य पदार्थों की ओर जाना आर्थिक उदारवाद लागू होने के बाद ज्यादा तेजी से हुआ। वर्ष 1991 के बाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में प्रसंस्करित और अति-प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों के अलावा अधिक चीनी युक्त पदार्थ उतारने शुरूकिए। इस श्रेणी के खाद्य को जंक फूड यानी कबाड़ भोज कहा जाता है, इन अति-प्रसंस्करित पदार्थों में चीनी, नमक और वसा (सेचुरेटेड और अनसेचुरेटेड) की काफी मात्रा होती है, इनके आने के बाद भारतीयों में मोटापा और असंक्रमित रोगों का इजाफा होने लगा।ऐसी स्थिति में मोटे अनाज को भोजन का मुख्य हिस्सा बनाना काफी चुनौतीपूर्ण होगा।

एक ओर किसानों को मौजूदा गेंहू -चावल वाले मुख्य फसल चक्र से हटकर इसकी पैदावार के लिए प्रेरित करना मुश्किल होगा तो दूसरी तरफ उपभोक्ता को अपनी खानपान आदतें सुधारने के लिए शिक्षित करना पड़ेगा। तिस पर यह डर यह है कि जंक फूड उद्योग अपनी प्रचार ताकत से मोटे अनाज के प्रति लोगों की रुचि पैदा ही न होने दें। जब से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जंक फूड को असंक्रमित रोगों के जोखिम का मुख्य कारक ठहराया है और नई पीढ़ी में जंक फूड के प्रचार-प्रसार को नियंत्रण करने के लिए नीतियां सुझाई हैं, तब से खाद्य कंपनियां अपने उत्पाद को किसी भी हीले-हवाले स्वास्थप्रद और प्राकृतिक बताने का प्रयास करने लगी हैं। इसका रूप हमें मल्टीग्रेन बिस्किट, कम चीनी वाले कोला पेय, आटा, नूडल्स और च्दिल-मित्र खाद्य तेलज्, फ्रूट जूस इत्यादि में देखने को मिल रहा है और उन्हें घर में बने- उगाए भोजन-सब्जियों-फलों का सही विकल्प बताया जा रहा है। कुछ जंक फूड कंपनियों ने पहले ही हैदराबाद स्थित आईसीएमआर – राष्ट्रीय मोटा अनाज अनुसंधान केंद्र का दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया है।

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जंक फूड कंपनियों द्वारा अपने उत्पाद को स्वास्थ्यप्रद बताने का एक तरीका है पैकेट पर बड़े-बड़े  दावे करते हुए मुख्य घटक और मिलाये गए नुकसानदायक अवयवों की जानकारी छिपाना। भारत की खाद्य नियामक संहिता के अनुसार सभी खाद्य पैकेटों पर तयशुदा सारणी के अनुसार पौष्टिकता सूचना लिखना अनिवार्य है, जिसमें मुख्यतः चीनी, वसा, कार्बोहाईड्रेट्स इत्यादि की जानकारी होती है। अब अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नियमन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक संस्थान ने प्रस्ताव दिया है कि खाद्य-पैकेट के मुख्य पार्श्व पर पौष्टिकता-अवयव संबंधी लघु जानकारी देने के अलावा पिछले हिस्से पर तफ्सील देना जरूरी किया जाए।

कहा जा रहा है कि इससे ग्राहक को अपनी सेहत स्थिति के मुताबिक उत्पाद चुनने में मदद मिलेगी। यह सूचना आसानी से समझ में आने वाले चिन्हों या फिर पंक्ति (जैसा कि उत्पाद शाकाहारी है या गैर-शाकाहारी बताने में किया जाता है) के रूप में हो सकती है। इस बाबत स्वास्थ्य जागरूकता कार्यकर्ताओं का सुझाव है कि यह ट्रैफिक सिग्नल सरीखे चेतावनी चिन्हों का प्रयोग करके हो सकती है वहीं खाद्य कंपनियां हेल्थ स्टार रेटिंग अथवा पौष्टिक स्टार रेटिंग का सुझाव दे रही हैं (जैसा कि विद्युत उपरकरणों पर बिजली खपत के बारे में होता है)।लेकिन स्टार रेटिंग व्यवस्था वास्तव में भ्रामक हो सकती है क्योंकि स्टार का चिन्ह लगते ही, भले ही एक हो या दो, ग्राहक को लगेगा कि खाद्य पदार्थ कुछ तो ठीक है।

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लोकल सर्कल नामक एजेंसी द्वारा करवाया उपभोक्ता सर्वे बताता है कि 10 में 7 ग्राहक चाहते हैं कि खाद्य-पैकेटों पर सामने की ओर चेतावनी संकेत जैसे कि लाल बिंदु होना चाहिए ताकि शिनाख्त करना आसान हो सके। अब हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पौष्टिकता संस्थान ने सूचना के विविध तरीकों पर ग्राहकों की राय जानने के लिए अध्ययन करवाया है। इसका निष्कर्ष है कि अगर पौष्टिकता और खतरे संबंधी सूचना का मकसद उपभोक्ता को इनको लेकर चिंताओं के बारे अवगत करवाकर खरीदने या न खरीदने का फैसला करवाना है तो पैकेट के अग्र भाग पर चेतावनी -संकेतक लेबल और पिछले हिस्से पर पौष्टिकता रेटिंग वाली प्रणाली ज्यादा मददगार होगी। किसी खाद्य पदार्थ की सकारात्मता संबंधी कुछ
जानकारी उसमें प्रयुक्त फल, सब्जियां, फलियां, मोटे अनाज इत्यादि तो कुछ पौष्टिकता संबंधी तफ्सील से की जा सकती है।

जहां तक स्टार रेटिंग वाले तरीके की बात है, जिसकी वकालत खाद्य कंपनियां और भारतीय खाद्य सुरक्षा नियामक भी कर रहा हैतो अध्ययन बताता है कि दो स्टार होने पर भी (अर्थात यह उत्पाद उतना स्वास्थ्यप्रद नहीं है) उपभोक्ता को लगेगा है इसमें च्चलो कुछ तो मिलेगाज् और वह अन्य उत्पाद खरीदने में कम रुचि लेता है। इसके अलावा स्टार रेटिंग उन नियमों पर आधारित होगी जिनमें हेराफेरी होने और उद्योग द्वारा अपने उत्पाद को किसी भी तरीके से बढ़िया बताने वाली दलीलों से प्रभावित होने की गुंजाइश बनी रहेगी जबकि लेबल आधारित व्यवस्था वास्तविक अवयव बताएगी। किसी उत्पाद, जैसे कि बिस्किट, पास्ता या नूडल्स में सिर्फ थोड़ा से ज्वार या बाजरा मिला देने से उसकी पात्रता
स्वास्थ्यप्रद या पौष्टिकतापूर्ण ठप्पा पाने की नहीं बन जाती।

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यहां सवाल आता है ग्राहक में पौष्टिकता संबंधी जागरूकता का, राष्ट्रीय पौष्टिकता संस्थान ने अपने अध्ययन में उपभोक्ताओं में इसकी काफी कमी पाई है। इस अध्ययन में शामिल हुए लोगों में अधिकांश का दावा था कि वे पैकेट पर लिखी जानकारी पढ़ते तो हैं लेकिन यह मुख्यतः उत्पादन-तिथि और बेकार-तिथि तक सीमित होती है। हालांकि पैकेट पर उत्पाद शाकाहारी है या गैर-शाकाहारी, इनकी सूचना देना ज्यादा प्रचलन में है। इसलिए ग्राहक को जंक फूड के अस्वस्थकारी पहलू के बारे में सचेत करना है तो चेतावनी पैकेट अग्र-पार्श्व पर संकेत के रूप में होनी चाहिए। रंग आधारित कोड वाला लेबल ग्राहकों को आंशिक स्वास्थ्यप्रद या गैर-स्वास्थ्यप्रद उत्पाद चुनने में हतोत्साहित करेंगे। लेबलिंग किसी भी प्रकार की हो, इसकी सफलता के लिए पहले ग्राहक को राष्ट्रीय प्रचार अभियानों के जरिए जागरूक करना पड़ेगा, वर्ना जंक फूड उद्योग अपनी ताकत और नियामक संस्थान में च्मित्रोंज् के बूते मोटे अनाज और अन्य स्वास्थ्यप्रद विकल्प अभियान का अपहरण कर लेंगे।

 ( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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