सुरेश भाई
लाॅकडाउन के लगभग 63 दिनों बाद यह चर्चा जोरों पर है कि उत्तराखण्ड की सरकार प्रवासियों को रोजगार देने के लिये बैकों से कर्ज दिलायेगी, लेकिन इसकी जमीनी हकीकत के आधार को समझना भी आवश्यक है।
राज्य ने पूर्व मुख्य सचिव एके पाण्डे की अध्यक्षता में एक सलाहकार समिति का गठन किया है, जिसमें बैकों की कार्य प्रणाली को ध्यान में रखकर विचार होना चाहिये कि क्या बैकों से मिलने वाले कर्ज से लाभ होगा या नहीं? क्योंकि अब तक बैकों ने रोजगार व उघोगों के लिये जो कर्ज दिये हैं, उसमें पहले से ही अधिकतर लोग कर्ज चुकाने में सक्षम रहे हैं। गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों को जो कर्ज मिलता है, वह उनके हाथ में आधा भी नहीं पहुंचता है।
अधिकांश प्रवासी ऐसे भी हैं कि जो कोविड-19 के प्रभाव के शिथिल होने के बाद अपने काम पर वापस लौटना चाहते हैं। यदि यह प्रभाव अगले एक-दो वर्ष रहता है तो राज्य सरकार को 5 हजार रूपये प्रतिमाह उन्हें देना चाहिये, ताकि वे अपने घर रहकर खेती बाड़ी को पुनर्जीवित करे और इसी के संबधित कृषि उघोग की दिशा में उनका ध्यानाकर्षित किया जाये।
दूसरा जिनके पास अपनी खेती की जमीन और रहने लायक पर्याप्त घर नहीं है, उनके सामने रोटी प्राप्त करना पहली चुनौती है। उन्हें पहले 5-6 हजार प्रतिमाह मिलना चाहिए और वे गांव में इस दौरान अपने लिये रोजगार की संभावनायें तलाश सकते हैं। इसके लिये बैकों के द्वारा शिविर लगाकर अपेक्षित लोगों को स्वरोजगार के लिये कर्ज दिया जाए।
खाद्यान आपूर्ति प्रणाली ने कई गांव में अमीर को बीपीएल व अन्तोदय और गरीब को एपीएल में रखा है। इसके चलते भी सस्ते गल्ले की दुकानों से जो अनाज मिल रहा है, वह आधे महीने की पेट पूर्ति के लिये भी पूरा नहीं है। कई लोगों के पास राशन कार्ड ही नहीं हैं। इसमें हो रही देरी के कारण कई परिवारों को खाने की और भी समस्या झेलनी पड़ेगी।
अपंजीकृत व पंजीकृत मजदूरो छोटे व्यापारियों का काम पूरी तरह प्रभावित है। जिन्हें सीधे 5 हजार रुपये प्रतिमाह मिलना चाहिये। ताकि उनके परिवारों का फिलहाल भरण-पोषण हो सके। राज्य में हजारों स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं को कोविड-19 के प्रति जागरूक करने के लिये सहयोग दिया जा सकता है। इसके साथ ही प्रभावित क्षेत्रों में आजीविका सुधार योजनाओं पर विचार किया जाना चाहिए।
(पर्यावरणविद एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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